scorecardresearch

लोकसभा इलेक्शन में किसानों के वोटों पर टिकीं सभी पार्टियों की निगाहें

उत्तरी राज्यों में पसरे कृषि संकट के बीच किसानों में अपनी पैठ बनाने के लिए भाजपा ने व्यावहारिक नजरिया अपनाया, तो विपक्ष भी भारत के इस सबसे बड़े मतदाता तबके को रिझाने की जुगत में

पंजाब के शंभू में 17 अप्रैल को रेलवे पटरी को जाम करते किसान
पंजाब के शंभू में 17 अप्रैल को रेलवे पटरी को जाम करते किसान
अपडेटेड 7 जून , 2024

जनादेश 2024ः किसान

मई की 10 तारीख को आनंदपुर साहिब से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उम्मीदवार सुभाष शर्मा के लोकसभा चुनाव की देख-रेख के लिए आए केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र शेखावत को पंजाब में प्रदर्शनकारी किसान यूनियनों के गुस्से का शिकार होना पड़ा. हालात पर काबू पाने के लिए स्थानीय पुलिस को दखल देना पड़ा.

लेकिन इसे महज स्थानीय घटना कहकर खारिज नहीं किया जा सकता. राज्य में भाजपा के सभी 13 उम्मीदवारों को किसान यूनियनों के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है, जो इस साल फरवरी में पंजाब के खनौरी और शंभू बैरियर्स पर हुए टकराव का बदला लेने पर आमादा हैं. 

उस वक्त हरियाणा पुलिस ने ट्रैक्टरों, अर्थमूवरों और तरह-तरह के वाहनों पर सवार आक्रामक यूनियनों के दिल्ली कूच को रोकने के लिए बल प्रयोग किया था. उनकी कई मांगें थीं, जिनमें वे सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानूनी ढांचा और किसानों के कर्ज की पूरी माफी चाहती थीं. (अकेले पंजाब में किसानों पर सांस्थानिक ऋणदाताओं का 75,000 करोड़ रुपए बकाया है). केंद्रीय मंत्रियों के साथ बाद की बातचीत नाकाम रही, जिससे असंतोष भीतर ही भीतर खदबदाता रहा.

किसान यूनियनों का गुस्सा पड़ोसी हरियाणा में भी देखा जा सकता है, हालांकि इसका असर यहां चार सीटों सिरसा, हिसार, रोहतक और सोनीपत पर जाटों के दबदबे वाले कुछ निश्चित हिस्सों तक सीमित है. यहां उनकी मांगें खेती से जुड़े मुद्दों से आगे जाकर राजकाज में हिस्सेदारी भी चाहती हैं.

1966 में हरियाणा के गठन के बाद से ही राज्य की राजनीति में खेतिहर जाट समुदाय का दबदबा रहा है. मगर भाजपा से उनका अलगाव और उसके अनुरूप गुस्सा 2014 में पंजाबी खत्री मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद शुरू हुआ.

अब रद्द कर दिए गए कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के अलावा भी पिछले दशक में आक्रोश भड़काने वाली कई घटनाएं हुईं. मसलन, 2016 में हिंसक जाट आरक्षण आंदोलन हुआ. फिर, दिल्ली में पहलवानों का आंदोलन भी हुआ जिसमें हरियाणा की खाप पंचायतें महिला जाट पहलवानों के पीछे लामबंद हुई थीं.

समुदाय के नेता अब पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के इर्द-गिर्द गोलबंद होकर किसान यूनियनों का समर्थन कर रहे हैं, जो जाटों के दबदबे वाले गांवों में उनके विरोधियों को घुसने तक नहीं दे रहीं. ऐसे नजारे पंजाब में भी दिख रहे हैं, जहां किसान उन इलाकों में विरोध प्रदर्शन का मंसूबा बना रहे हैं जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार के लिए आने वाले हैं.

किसान क्यों मायने रखते हैं
अब जब आम चुनाव अपने आखिरी चरण में दाखिल हो रहा है तब हरियाणा में 25 मई को और पंजाब में 1 जून को मतदान है. भाजपा और विपक्ष दोनों को देशभर के किसान समुदाय में व्याप्त अलगाव का एहसास हो गया है. अक्सर अनदेखा कर दिया जाने वाला एक तथ्य यह है कि किसान भारत का सबसे बड़ा मतदाता समूह है, जो अक्सर भारतीय राजनीति के एक और निर्णायक कारक जाति को भी पछाड़ देता है.

दरअसल, जमीन और जुताई से तकरीबन हर जाति जुड़ी है. जोखिम और वित्तीय असुरक्षा के मुहाने पर जिंदगी बसर कर रहे इस तबके में सरकारी मदद का वादा सभी के लिए मौजूं है. फिर हैरानी क्या कि सारे घोषणापत्रों में अन्नदाता के लिए ढेरों गारंटियां हैं.

कृषक परिवारों के बारे में आखिरी उपलब्ध सरकारी आंकड़ों से जो 2019 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के 77वें दौर में जुलाई 2018 से जून 2019 की अवधि के लिए एकत्र किए गए से पता चलता है कि देश के ग्रामीण परिवारों में कृषक परिवारों की हिस्सेदारी 54 फीसद है.

असल में 21 फीसद ग्रामीण परिवार पूरी तरह खेती-किसानी पर निर्भर हैं. मगर बीते दो दशकों में देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) भले 6-7 फीसद की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ा हो, कृषि क्षेत्र की औसत वृद्धि दर महज करीब 4 फीसद रही.

प्रधानमंत्री मोदी ने फरवरी 2016 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान एक रैली को संबोधित करते हुए कृषि आय को दोगुना करने की प्रतिबद्धता जताई थी. एनएसएस के आंकड़ों के मुताबिक, कृषि परिवारों की औसत मासिक आय 2012-13 के 6,426 रुपए से बढ़कर 2018-19 में 10,218 रुपए पर पहुंच गई. इससे किसानों की वास्तविक आमदनी के दोगुना होने की झलक नहीं मिलती. तब भी जब मोदी सरकार ने सामाजिक क्षेत्र की योजनाएं ग्रामीण आमदनी बढ़ाने के हिसाब से बनाई हैं.

मसलन, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, जिसमें किसानों को सीधे के जरिए 6,000 रुपए की सालाना वित्तीय सहायता दी जाती है. मगर डेटा से पता चलता है कि करीब 79 फीसद कृषि परिवार मासिक 10,000 रुपए से कम कमा रहे हैं.

तिस पर भी राजनैतिक रैलियों या भाजपा के संकल्प पत्र (घोषणापत्र) से कृषि आय को दोगुना करने की प्रतिबद्धता अब गायब है और पार्टी के नेता इसके बजाए खेत से ही बिक्री के बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देने और बाजार की सुलभता बढ़ाने की बात करते हैं. यह अन्य जगहों के किसानों के लिए जरूर कारगर है, पर पंजाब-हरियाणा में नहीं, जहां सरकारी एजेंसियां पहले से तय एमएसपी पर कृषि उपज की सुनिश्चित खरीद कर रही हैं.

बीते 10 साल में भाजपा ने किसानों के वास्ते आगत लागतें कम करने के लिए भले ही समुचित कोशिशें की हों, पर उपज की लाभकारी कीमतें सुनिश्चित करने की चुनौतियां बरकरार हैं. गुणवत्ता और मात्रा दोनों के लिहाज से खराब पैदावार से जूझते पंजाब-हरियाणा के किसान एमएसपी पर उपज की खरीद के लिए सरकारी एजेंसियों पर बहुत निर्भर हैं.

सरकार 23 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करती है और यह घोषित दर बाजार की कीमतें नीचे गिरने पर सुरक्षा जाल का काम करती है. मसलन, पंजाब में मंडियों तक पहुंचने वाली कृषि उपज का करीब 85 फीसद हिस्सा सरकारी एजेंसियां एमएसपी पर खरीद लेती हैं.

मोदी सरकार ने 2020 में तीन कृषि कानूनों पर जोर देकर इस क्षेत्र में ढांचागत सुधार लाने की कोशिश की थी. उन कानूनों ने सीधे निजी कारोबारियों के साथ कीमतें तय करने और अनुबंध खेती की व्यवस्था शुरू करने के लिए किसानों को ज्यादा आजादी देने की कोशिश की.

इरादा कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और निवेश बढ़ाने का था. पर कानूनी तौर पर सुनिश्चित कीमतों की गैरमौजूदगी में किसानों में बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों के साथ ऐसी व्यवस्था में दाखिल होने का विश्वास नहीं था. किसानों के भारी विरोध के बाद सरकार उन कानूनों को रद्द करने पर मजबूर हो गई.

उस मोर्चे पर इतना बड़ा झटका झेलने के बाद सरकार सहकारी संस्थाओं को मजबूत करने और लॉजिस्टिक तथा भंडारण सुविधाएं स्थापित करने की दिशा में बढ़ी. यह भाजपा की तरफ से किए जा रहे वादों में झलकता है. प्रधानमंत्री मोदी मुख्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन के लिए नए क्लस्टर स्थापित करने की बात कर रहे हैं जो अनिवार्यत: खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय की तरफ से चलाई जा रही टीओपी (टमाटर, प्याज और आलू) योजना का विस्तार है.

महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान और उत्तराखंड की रैलियों में भाजपा नेताओं ने मिलेट या मोटे अनाजों के उत्पादन और प्राकृतिक खेती पर जोर देने की प्रतिबद्धता भी जताई है. कृषि मंत्रालय पहले ही जरूरी बाजार ढांचे का निर्माण करने और जिंसों के डिजिटल व्यापार को प्रोत्साहन लाभ देने के तरीकों की योजना बना रहा है.

उचित मूल्य समर्थन रणनीति के साथ फसलों में विविधता लाने की प्रतिबद्धता भी है. अलबत्ता कांग्रेस के विपरीत, जिसने एमएसपी की कानूनी गारंटी देने का वादा किया है, भाजपा को इस बात पर यकीन है कि सुनिश्चित खरीद और तयशुदा कीमत कृषि उपज के वास्ते मजबूत बाजार स्थल बनाने के लिए काफी नहीं हैं. 

उनका रखवाला कौन?
चुनाव के मौसम में किसानों के मुद्दों पर राजनीति करने में वैसे भी कोई कमी नहीं रहती. हिमाचल प्रदेश में, जहां 1 जून को मतदान होना है, कांग्रेस के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने सीधे प्रधानमंत्री को अमेरिका से सेब के आयात की मंजूरी देने के लिए दोषी ठहराया, जिससे घरेलू कीमतों में गिरावट आ गई है.

कांग्रेस ने तीन कृषि कानूनों का विरोध किया था, पर अब वह किसानों के लिए खेत के दरवाजे या अपनी पसंद की किसी और जगह पर अपनी उपज बेचने का तंत्र स्थापित करने का वादा कर रही है, जिसमें डिजिटल बहीखाते पर बिक्री और खरीद के समझौते को अपलोड करने का विकल्प भी होगा. महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के शरद पवार की अगुआई वाले धड़े के साथ मिलकर उसने प्रगतिशील किसानों और किसान संगठनों की नुमाइंदगी वाले स्वायत्त निकाय के हाथों संचालित ई-मार्केट का वादा भी किया है.

उधर, दक्षिण में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी अक्सर कहते हैं कि किसानों के कल्याण की उनकी चिंता की वजह से उनके जनता दल (सेक्युलर) ने भाजपा के साथ हाथ मिलाया. इस गठबंधन का बनना जेडी (एस) के गढ़ मांड्या और हासन के नारियल उगाने वाले किसानों के लिए मुफीद साबित हुआ, जब फरवरी के मध्य में केंद्र सरकार ने 7,000 टन बाल खोपरा (सूखे नारियल की गिरी) की खरीद को मंजूरी दे दी. जाहिर है, आसन्न चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस मुद्दे पर जेडी (एस) ने जोर डाला था.

ओडिशा में, जहां चार चरणों में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो रहे हैं, नवीन पटनायक की अगुआई वाले बीजू जनता दल (बीजद) की सरकार ने आजीविका और आय संवर्धन के लिए कृषक सहायता (केएएलआईए या कालिया) योजना तीन साल के लिए बढ़ाने का फैसला किया है. प्रधानमंत्री किसान योजना के समानांतर चलाई जा रही इस योजना में किसानों को खेती करने के लिए अतिरिक्त 4,000 रुपए की सालाना सहायता दो किस्तों में दी जाती है. इसके अलावा पात्र भूमिहीन खेतिहर परिवारों को 12,500 रुपए की सालाना सहायता भी दी जाती है. 
 
भाजपा ने बदला पैंतरा
किसानों से किए कुछ वादे पूरे नहीं करने के लिए विपक्ष भले भाजपा पर निशाना साधे, मगर उसने व्यावहारिक नजरिया अपनाया जो करने लायक चीजों पर ध्यान देता है. ओडिशा के बरगढ़ में 11 मई की अपनी रैली में मोदी ने कहा कि वे किसानों को ताकतवर बनाने के लिए अथक काम कर रहे हैं. प्रधानमंत्री ने जिक्र किया कि पिछली सरकारों के दौरान यूरिया की खराब और महंगी आपूर्ति कैसे किसानों के लिए अभिशाप बनी हुई थी और उनकी सरकार किस तरह इसे 300 रुपए प्रति बोरे (50 किग्रा) से भी कम कीमत पर मुहैया करवा रही थी.

कुल मिलाकर बीते दशक में केंद्र ने बीज, अच्छी गुणवत्ता की खाद, यूरिया, और अन्य रसायनों तक पहुंच को सुगम बनाकर, पीएम किसान के जरिए आमदनी में मदद देकर, खेतों को सिंचाई एवं बिजली की सुलभता में सुधार लाकर, और साथ ही इस अहम क्षेत्र में बैंकिंग और बीमा की पैठ गहरी करके किसानों पर आगत लागतों का दबाव कम करने पर जोर दिया है. कृषि ऋण 2013-14 के 7.3 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 2022-23 में 21.5 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गए. कई भाजपा शासित राज्यों ने पीएम किसान के अलावा भी प्रोत्साहन लाभ दिए हैं.

कृषक समुदाय पारंपरिक तौर पर भाजपा का समर्थक नहीं रहा. यही वजह है कि पार्टी किसानों का समर्थन हासिल करने के लिए जूझ रही है. मगर बीते दशक में प्रधानमंत्री मोदी की देखरेख में पार्टी ने अब तक अलग-थलग पड़े समुदायों तक प्रभावी पहुंच कायम की है और यह उस कार्यक्रम के तहत हासिल की गई है जिसे भाजपा नेता समग्र सामाजिक न्याय कहते हैं. ऐसे में भाजपा यही उम्मीद कर रही होगी कि 4 जून को वह देश के ग्रामीण हृदयप्रदेश में दिख रही नाराजगी से पार पाते हुए अच्छी फसल काटेगी.

Advertisement
Advertisement