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वापस लौट आए हैं कभी मराठाओं के 'चेतक' रहे भीमथड़ी घोड़े

कभी मराठा साम्राज्य के गौरव रहे ऐतिहासिक भीमथड़ी घोड़ों ने 200 साल उपेक्षा सही. हाल में अलग नस्ल की मान्यता मिलने से इन बलवान चौपायों को फिर मिल सकती है शोहरत

पुणे के नजदीक स्टड फार्म में भीमथड़ी घोड़ों की जोड़ी
पुणे के नजदीक स्टड फार्म में भीमथड़ी घोड़ों की जोड़ी
अपडेटेड 29 मार्च , 2024

महाराष्ट्र के बारामती में नीची छत वाले अस्तबल की इमारत. बगल से छह घोड़े सरपट दौड़ते हुए आए. एक गबरू काला घोड़ा और एक लाल-भूरे रंग की घोड़ी तेज रफ्तार से दौड़ती गुजरी. उनके पीछे उतनी ही तेजी और जोशो-खरोश से दौड़ती सफेद घोड़े और गहरे भूरे रंग की घोड़ी की जोड़ी. चमकती खालें, लहराते अयाल, उड़ती पूंछें और धूल उड़ाते खुर... कुदरती ताकत ऐसी ही होती होगी.

मशहूर भीमथड़ी या दक्कनी घोड़ों के खास ढंग से चुने गए ये नमूने मानो 17वीं और 18वीं सदी के अपने उन पूर्वजों के बीच से आए हैं जो दुश्मन पर धावा बोलते और उन्हें मैदान से खदेड़ते मराठा घुड़सवारों की टुकड़ियों में हुआ करते थे. भीमथड़ी नस्ल के घोड़ों की उत्पत्ति महाराष्ट्र की भीमा नदी घाटी से हुई (थड़ी का मतलब है नदीतट) और वे जल्द ही उस मराठा घुड़सवार फौज का नामचीन और खूंखार आधार बन गए जिसका तब भारत के बड़े हिस्से पर वर्चस्व था.

जोशीली फुर्ती और सरपट रफ्तार ही नहीं, उनकी खच्चर जैसी दृढ़ता की वजह से सामान ढोने वाले जानवरों के तौर पर भी उनका इस्तेमाल किया जाता था. हट्टी-कट्टी कदकाठी, कम चारा खाकर लंबी दूरी तय करने और अपने वजन से डेढ़ गुना भार ढोने की क्षमता ने उन्हें पसंदीदा घोड़ा—औपनिवेशिक युग के वनस्पतिशास्त्री सर जॉर्ज वॉट के शब्दों में, "भारत की सबसे अच्छी नस्लों में से एक"—बना दिया.

मगर 19वीं सदी की शुरुआत में मराठा राज्यसंघ के ढहने के बाद भीमथड़ी घोड़े धीरे-धीरे तकरीबन दो सदियों तक उपेक्षा, अनुपयोग और लगभग जानलेवा पतन की ढलान में धंसते गए. दूसरी वजहों ने भी इसमें योगदान दिया, जैसे अंग्रेजों की तरफ से ज्यादा प्रभावशाली नस्लों (उच्च गुणवत्ता और शुद्ध नस्ल के घोड़ों) को तरजीह दिया जाना, आग्नेयास्त्रों का बढ़ता इस्तेमाल और यातायात के मशीनी साधनों का बोलबाला.

भीमथड़ी घोड़े पर सवार एक साहूकार, जॉन लॉकवुड किपलिंग की बनाई नक्काशी (19वीं सदी के अंत में)
भीमथड़ी घोड़े पर सवार एक साहूकार, जॉन लॉकवुड किपलिंग की बनाई नक्काशी (19वीं सदी के अंत में)

अलबत्ता 2007 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने भीमथड़ी घोड़ों को अपनी "बेहद अहम नस्लों" की फेहरिस्त में शामिल किया. एक आधिकारिक अनुमान से दक्कनी पठार के कुछ हिस्सों में उनकी तादाद महज 5,100 से कुछ अधिक और लगातार घटती आंकी जाती है, जो भारत की कुल 5,50,000 अश्वीय (घोड़े, टट्टू, गधे और खच्चर) आबादी के बीच महज एक चित्ती भर है.

इन अध-बिसरे घोड़ों के लिए अब उम्मीद की एक किरण है. उन्हें अलग पहचान देने के लिहाज से अब तक महत्वहीन माने गए भीमथड़ी घोड़ों को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की नस्ल पंजीकरण समिति ने दिसंबर 2023 में स्वतंत्र नस्ल के रूप में मान्यता दे दी. उम्मीद की जाती है कि इससे पोलो सरीखे घुड़सवार खेलों और प्रशिक्षण में इस्तेमाल के लिए इनके प्रजनन और संरक्षण में तेजी आएगी.

इससे उनके प्रजनन के तौर-तरीकों में भी सुधार आएगा, जिससे ज्यादा तादाद में और बेहतर गुणवत्ता के घोड़े पैदा होंगे. यह मान्यता करीब तीन साल लंबी कोशिशों के बाद मिली. भीमथड़ी घोड़ों से जुड़े दावों की जांच के लिए बारामती के एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट ट्रस्ट की सहायता से और राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केंद्र बीकानेर के साथ एक टीम बनाई गई. प्रक्रिया में दूसरी बातों के अलावा डीएनए के करीब 500 नमूनों का अध्ययन शामिल था ताकि यह परखा जा सके कि वे वाकई स्वतंत्र नस्ल थे और उनमें अन्य नस्लों का डीएनए नहीं था.

ऑल इंडिया भीमथड़ी हॉर्स एसोसिएशन और स्टड फॉर्म बारामती अश्व पागा के संस्थापक और उन्हें मान्यता दिलाने की कोशिशों की अगुआई करने वाले रंजीत पवार का कहना है कि इतिहास में इनकी मौजूदगी अच्छी तरह दर्ज होने के बावजूद सरकारी रिकॉर्ड में इस देसी नस्ल को मान्यता हासिल नहीं थी. वे बताते हैं, "उनका इस्तेमाल कम होने की वजह से उनकी तादाद घट रही है. अगर उनके संरक्षण की कोशिशें नहीं की जाएंगी तो वे लुप्त हो जाएंगे."

पुणे से करीब 100 किमी दूर बारामती में स्टड फार्म के मालिक पवार बचपन से ही भीमथड़ियों से वाकिफ थे. ऑल इंडिया मारवाड़ी हॉर्स एसोसिएशन जोधपुर के साथ अपने जुड़ाव की बदौलत उन्हें भीमथड़ी घोड़ों के लिए काम करने की जरूरत का एहसास हुआ. वे कहते हैं, "मुझे देखकर अफसोस हुआ कि महाराष्ट्र की देशज नस्ल होने और इतिहास में उनकी भूमिका के बावजूद भीमथड़ी संभवत: विलुप्त होने के कगार पर खड़े थे."

पवार ने 1996 में अभियान छेड़ा और लोकसभा सांसद व अभिनेता नीतीश भारद्वाज से केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखवाई. करीब पांच साल पहले उन्होंने नए सिरे से कोशिश शुरू की और इसमें उन्हें राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केंद्र के क्षेत्रीय दफ्तर के प्रमुख शरद मेहता सरीखे वैज्ञानिकों का भी साथ और सहयोग मिला.

मेहता इससे इत्तेफाक रखते हैं कि नीतिगत पहल के जरिए भीमथड़ियों की बहाली में तेजी आएगी. भारत में घोड़ों की सात नस्लों—मारवाड़ी (राजस्थान), काठियावाड़ी (गुजरात), सिंधी (राजस्थान और गुजरात), मणिपुरी (मणिपुर), स्पीति (हिमाचल प्रदेश), भूटिया (भूटान) और जंस्कारी (लद्दाख)—को मान्यता प्राप्त है. भीमथड़ी मान्यता प्राप्त आठवीं नस्ल है. मेहता तस्दीक करते हैं कि भीमथड़ी घोड़े "अच्छी नस्ल के और बहुत मेहनती हैं, और दक्कन के पहाड़ी भूभागों में ज्यादा से ज्यादा काम कर सकते हैं."

पवार कहते हैं कि भीमथड़ियों में मारवाड़ी घोड़ों सरीखा शारीरिक सौष्ठव भले न हो, लेकिन ये प्रतिकूल परिस्थितियों का बेहतर सामना कर सकते हैं. अहम यह कि दूसरी नस्लों के विपरीत ये पहाड़ी इलाकों में ज्यादा आसानी से रास्ता बना सकते हैं. स्वभाव से शांत और वफादार भीमथड़ियों की ज्यादा चौड़ी छाती उन्हें जबरदस्त दमखम देती है और उनके मजबूत खुरों को मुश्किल भूभाग में नाल की जरूरत भी शायद न हो. इन्हीं खूबियों ने उन्हें उस मराठा घुड़सवार फौज के लिए आदर्श और सबसे उपयुक्त घोड़ा बना दिया था जो पथरीले पहाड़ी भूभागों में हिट-ऐंड-रन और गुरिल्ला रणनीतियों में माहिर थी.

इत्तेफाकन भीमथड़ियों को अलग नस्ल की मान्यता मिलने में एक रुकावट अधिकारियों का यह शुरुआती आग्रह भी था कि इनके अपेक्षाकृत नाटे कद के कारण इन्हें 'टट्टू' कहा जाए. करीब 30 मारवाड़ी और आठ भीमथड़ी घोड़ों के अस्तबल के मालिक पवार बताते हैं, "मगर हमने दिखाया कि टट्टू बराबर रफ्तार से सरपट नहीं दौड़ सकते. ये घोड़े 80 किमी तक सरपट दौड़ सकते हैं."

पतन और पुनर्जीवन

द टेल ऑफ द हॉर्स: ए हिस्ट्री ऑफ इंडिया ऑन होर्सबैक (2021) में यशस्विनी चंद्र का कहना है कि घोड़ों के यूरोपीयकरण का नतीजा दक्कनियों सहित भारतीय नस्लों के पतन में हुआ. उन्होंने लिखा है कि दक्कनी घोड़े "व्यावहारिक रूप से विलुप्त हो गए हैं. उन्हें आधिकारिक तौर पर इसलिए मान्यता नहीं दी जाती क्योंकि उनकी विशिष्ट खूबियों को अब परिभाषित नहीं किया जा सकता."

मेहता बताते हैं कि पहले से ज्यादा परिष्कृत आग्नेयास्त्रों की लगातार प्रगति के चलते विशाल घुड़सवार फौज की जरूरत ही नहीं रह गई, जबकि यातायात के मशीनी साधनों ने एक और धक्का पहुंचाया. इतना ही अहम यह कि मराठा सैन्य शक्ति के पतन का नतीजा यह हुआ कि भीमथड़ियों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने वाले ही न रहे. पवार बताते हैं कि ब्रिटिश लोगों ने 1827-28 के आसपास भीमथड़ी घोड़ों के लिए पुणे के आलेगांव पागा में स्टड फार्म खोला था, पर इसका कुछ खास नतीजा नहीं निकला.

एक मराठा घुड़सवार अपनी सवारी के साथ, एच. हॉल द्वारा बनाई गई रेखाचित्र (19वीं सदी के मध्य में)
एक मराठा घुड़सवार अपनी सवारी के साथ, एच. हॉल द्वारा बनाई गई रेखाचित्र (19वीं सदी के मध्य में)

उनके 'प्रजनन के इलाके' पुणे, सतारा, सांगली, कोल्हापुर, सोलापुर और अहमदनगर में भीमा और नीरा नदियों की घाटियों तक सीमित होने से भीमथड़ी गुमनामी के अंधेरे में खोने को अभिशप्त थे. मगर यह नस्ल इसलिए बची रही क्योंकि धनगर समुदाय के खानाबदोश पशुपालक और अहमदनगर के बोल्हेगांव के मांडलिक कापड़े सरीखे किसान इनका इस्तेमाल करते थे, जो पारिवारिक परंपरा के अंग के तौर पर उनका लालन-पालन करते हैं. आजकल भीमथड़ियों का इस्तेमाल वैष्णो देवी सरीखे तीर्थ स्थलों और माथेरान सरीखे पहाड़ी स्थलों पर पर्यटकों को घुमाने और सामान ढोने के लिए भी किया जाता है.

अखिल भारतीय बेलगाडा शर्यत संघटना (अखिल भारतीय बैलगाड़ी दौड़ संघ) के अध्यक्ष संदीप बोड़गे का कहना है कि बैलों की दौड़ की फलती-फूलती परंपरा ने भी भीमथड़ियों का जिंदा बचा रहना पक्का किया. भीमथड़ियों का इस्तेमाल दौड़ों के दौरान बैलों को दिशा बताने के लिए किया जाता है और नंगी पीठ पर (काठी के बिना) उनकी सवारी की जाती है, जिसके लिए जबरदस्त घुड़सवारी की जरूरत होती है.

इनका इस्तेमाल अहमदनगर जिले में 'तांगा दौड़' के लिए भी किया जाता है. पवार बताते हैं, "दौड़ शुरू करते वक्त भीमथड़ी एकदम बहुत तेजी से हरकत में आ जाते हैं और दूसरी नस्लों के मुकाबले बहुत जल्द तेज रफ्तार पकड़ लेते हैं. यही वजह है कि दौड़ों के दौरान रास्ता बताने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता है."

अहमदनगर जिले के निघोज में रह रहे और बैलगाड़ी दौड़ के लिए चार भीमथड़ी घोड़ियों के मालिक बोड़गे इसमें जोड़ते हैं, "बैलगाड़ी दौड़ों में उनकी उपयोगिता की वजह से किसानों ने इन्हें बचाना शुरू किया. हालांकि वे भीमथड़ियों की गौरवशाली वंशावली से बेखबर थे. उन्हें टट्टू या गवरान (देसी/देहाती) घोड़े कहा जाता है." उनका कहना है कि भीमथड़ियों को अलग नस्ल की मान्यता मिलने और पवार की बदौलत जनवरी में बारामती में आयोजित हॉर्स शो की वजह से किसानों और पशुपालकों में नए सिरे से दिलचस्पी पैदा हुई है.

वे बताते हैं, "अब उन्हें एहसास हुआ है कि इन घोड़ों की मार्शल परंपरा रही है जो छत्रपति शिवाजी महाराज के युग तक जाती है." बोड़गे भीमथड़ियों की मजबूती का गुणगान करते हुए कहते हैं, "मुझे याद नहीं आता कि आखिरी बार उन्हें कब कोई दवाई देनी पड़ी थी... उन्हें तेजी से प्रशिक्षित किया जा सकता है, ये संवेदनशील और रखरखाव में आसान हैं." उन्हें चारे की भी कम जरूरत होती है.

मगर क्या जंग के मैदानों में आग लगा देने वाला भीमथड़ी दूसरी नस्लों के मुकाबले कहीं छोटा जानवर था? पवार का कहना है कि समुचित प्रजनन की कमी, संततियों के बीच प्रजनन, पोषक खुराक न मिलने और युवावस्था से ही सामान ढोने वाले जानवर के तौर पर इस्तेमाल के कारण पिछले 200 साल में ये घोड़े ऊंचाई में नाटे होते गए. अच्छी नस्ल के घोड़े की ऊंचाई (अगले पैर के सिरे से पीठ का सबसे ऊंचा हिस्सा) 65 से 70 इंच होती है, जबकि मारवाड़ी घोड़े 60 से 64 इंच और काठियावाड़ी घोड़े करीब 59 इंच ऊंचे होते हैं. भीमथड़ी इससे थोड़े नाटे औसतन 55-56 इंच ऊंचाई के होते हैं.

शरद मेहता का अनुमान है कि बाहर से अश्वों के आगमन से पहले और उनके आगमन की मदद से मारवाड़ी और काठियावाड़ी सरीखी देशज नस्लों के विकास से पहले भीमथड़ी भारत में आज के घोड़ों की मूल नस्लों में से एक रहे हो सकते हैं. अभिलेखों से पता चलता है कि भारत में ऐतिहासिक रूप से छोटे घोड़े ही होते थे.

उनकी जन्मजात खूबियों का बखान उन्हें संभालने वाले सारे लोग करते हैं. भीमथड़ियों को मान्यता मिलने में जिनके हित निहित हैं, उन्होंने इन बलवान घोड़ों को उनके अतीत का गौरव वापस दिलवाने की ठान ली है. 

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