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प्रधान संपादक की कलम से

परिंदे सिर्फ पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत का पैमाना भर नहीं, बल्कि वे इंसानों के अस्तित्व के लिए भी बेहद अहम हैं

इंडिया टुडे कवर: लुप्त होते भारत के परिंदे
इंडिया टुडे कवर: लुप्त होते भारत के परिंदे
अपडेटेड 8 मार्च , 2024

धरती पर पक्षियों का अस्तित्व तो जुरासिक काल से ही है. दरअसल वे एक तरह के डायनासोर ही हैं जो 6.5 करोड़ वर्ष पहले महाविलुप्ति की चपेट में आने से बच गए थे. तब बिना पंखों वाली सभी प्रजातियां खत्म हो गई थीं. ताजा गणना बताती है कि भारत में पक्षियों की करीब 1,317 प्रजातियां मौजूद हैं, यानी दुनिया की 12 फीसद प्रजातियां यहां पाई जाती हैं. पर इनकी आबादी लगातार गिर रही है. कुछ प्रजातियां काफी तेजी से घट रही हैं. भारत को स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स (एसओआइबी) रिपोर्ट, 2023 के रूप में पक्षियों की स्थिति पर अपनी रेड डेटा बुक पिछले साल अगस्त में मिली. इसके निष्कर्ष खासी चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं और फौरन कदम उठाने की जरूरत बताते हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक, पक्षियों की जिन 942 प्रजातियों का अध्ययन किया गया, उनमें से 98 प्रजातियों की आबादी में पिछले तीन दशकों के दौरान करीब 50 फीसद तक की गिरावट दिखी है. रिपोर्ट की मानें तो इनमें से 14 को इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर यानी आइयूसीएन की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में शामिल किया जाना चाहिए. तीन प्रजातियों, मणिपुर बुश क्वेल (बटेर), हिमालयन क्वेल और जेर्डन्स कोर्सर, के तो विलुप्त हो जाने का ही अंदेशा जताया गया है क्योंकि दशकों से ये दिखी ही नहीं हैं.

सर्वेक्षण का यह तथ्य और भी चिंताजनक तस्वीर पेश करता है कि 106 अन्य प्रजातियों की आबादी 25 फीसद गिरी है और वे भी अगले दो दशकों में लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में शामिल हो सकती हैं. कुल मिलाकर, रिपोर्ट में 178 प्रजातियों के संरक्षण को खासी अहमियत देने पर जोर दिया गया है. 323 अन्य प्रजातियां मध्यम जोखिम वाली सूची में हैं.

सर्वे में शामिल सभी प्रजातियों में से करीब 53 फीसद घटती आबादी का दंश झेल रही हैं. शिकारी पक्षियों, प्रवासी समुद्री परिंदों और बत्तखों की संख्या भी लगातार गिर रही है. खुले पारिस्थितिकी तंत्र, नदियों और तटीय क्षेत्रों में घरौंदा बनाने वाले पक्षियों के लिए भी स्थितियां खास बेहतर नहीं हैं. मालाबार ग्रे हॉर्नबिल की एक विशाल आबादी पश्चिमी घाट के वालपराई पठार में पाई जाती है. पर सर्वे बताता है कि 2004 से 2018 के बीच इनकी आबादी 56 फीसद तक घट गई.

आखिर, हिंदुस्तानी परिंदों की तादाद में इस हद तक गिरावट की असल वजह क्या है? वैसे तो कई हैं पर यह कहना गलत न होगा कि जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी वजहों में से है. पिछले 150 वर्ष के दौरान औसत वैश्विक तापमान में 0.8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि ने कई परिंदों का जीवनचक्र बदलकर रख दिया. घोंसला बनाने, प्रजनन और वार्षिक प्रवासन जैसी उनकी आदतों में भी बड़ा बदलाव दिखता है.

प्रवासी पक्षी अब ठंडी जलवायु की तलाश में ऊपर और उत्तर की ओर जा रहे हैं. 2022 की गर्मियों में गुजरात ने गर्मी से बेहाल पक्षियों के आसमान से गिरने का अजीब नजारा देखा क्योंकि उनके शरीर में पानी की कमी हो गई थी. क्या हम इसे दुनिया के विनाश का संकेत मानें! बेमौसम बारिश और कृत्रिम सिंचाई प्रणालियों ने सारस के प्रजनन व्यवहार को बुरी तरह प्रभावित किया है.

पक्षियों की प्रजातियां घटने के एक और कारण को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. वे अपना आशियाना खो रहे हैं, चाहे वे दलदल और वेटलैंड में रहने वाले हों या फिर जंगल अथवा खुले वातावरण में. भारत के 2,01,503 वेटलैंट में पक्षियों की अनगिनत प्रजातियां पाई जाती रही हैं. लेकिन अब यहां रहने वाली ज्यादातर प्रजातियों पर संकट गहराया गया है. एसओआईबी रिपोर्ट बताती है कि वेटलैंड में रहने वाली प्रजातियों में से 50 से 80 फीसद में दीर्घकालिक गंभीर गिरावट दर्ज की गई है.

घटते जंगल भी एक बड़ी वजह हैं. आप शायद अरुणाचल प्रदेश की प्राकृतिक सुरम्यता के कायल हों पर यह अतीत की बात होती जा रही है. छीजते जंगलों की वजह से रीथेड हॉर्नबिल खतरे में है और इसे एसओआईबी ने उच्च संरक्षण प्राथमिकता वाली सूची में डाल रखा है. गौर करने वाली बात यह भी है कि 'हरियाली’ होना ही काफी नहीं होता.

प्राकृतिक वनों में कई तरह के विशाल वृक्ष होते हैं, जो बड़ी संख्या में पक्षियों की भोजन और आवास संबंधी जरूरतों को पूरा करते हैं. लेकिन औपनिवेशिक काल में शुरू हुए और आजादी के बाद से तेजी से बढ़े व्यावसायिक मोनोकल्चर (एकल कृषि) के चलन ने वृक्षों और फसलों की विविधता को सीमित कर दिया. मसलन, ऑयल पाम के बागान 1990 के दशक के बाद से 30 गुना से अधिक बढ़े हैं. ये मिजोरम के नजदीकी वर्षावनों में नजर आने वाली सिर्फ 14 फीसद पक्षी प्रजातियों को ही आकर्षित कर पाते हैं. उत्तराखंड के पहले से विकसित साल के वनों में केवल 50 फीसद कठफोड़वे सागौन के बागान में जीवित रह सकते हैं.

भारत में पक्षियों की मृत्यु और घटती आबादी के लिए मानवीय उदासीनता भी उतनी ही जिम्मेदार है. इसकी एक मिसाल पतली चोंच वाले गिद्ध हैं. एक समय में दिल्ली जैसे शहरी इलाके में बड़ी संख्या में गिद्धों को पेड़ों की टहनियों पर बैठे देखा जा सकता था. अपनी पैनी नजर के साथ ये हमेशा ड्यूटी पर मुस्तैद रहते और जहां भी खुले में पड़ा मांस नजर आता, उसे खाने पहुंच जाते. लेकिन देशभर में मवेशियों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा डाइक्लोफेनाक ने उनका जीवन खतरे में डाल दिया. देश में गिद्धों की आबादी में 90 फीसद से ज्यादा की गिरावट आई है.

बहरहाल, समय तेजी से बीत रहा है, हमें इस समस्या पर व्यापक नजरिए से गौर करना चाहिए. सीनियर एसोसिएट एडिटर सोनाली आचार्जी ने इस हफ्ते हमारी आवरण कथा 'लुप्त होते भारत के परिंदे' के जरिए कुछ ऐसी ही कोशिश की है. उन्होंने देश के 13 प्रमुख संरक्षण और अनुसंधान संगठनों के सहयोग से तैयार एसओआईबी रिपोर्ट, 2023 में शामिल आंकड़ों के हवाले से भारत में पक्षियों की स्थिति की एक चिंताजनक तस्वीर सामने रखी है. यह सब कितना मायने रखता है?

बहुत ज्यादा, क्योंकि परिंदे सिर्फ पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत का पैमाना भर नहीं, उसे सुधारने में बहुत काम आते हैं. बीज दूसरी जगहों तक पहुंचाने और परागण के अलावा परभक्षण के जरिए समग्र प्रजाति में संतुलन बनाकर और महामारी का खतरा घटाकर भी वे इंसानी जीवन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. वाइल्डलाइफ एसओएस के सीईओ और सह-संस्थापक कार्तिक सत्यनारायण बताते हैं, "पक्षियों का अस्तित्व नहीं बचा तो ज्यादा समय नहीं लगेगा जब इंसानों के लिए भी जीवित रहना दूभर हो जाएगा."

विवेक यही कहता है कि हम काठ के उल्लू न बने रहें. पक्षियों के संरक्षण के लिए सरकारों, शोधकर्ताओं और आम नागरिकों को साथ आकर प्रयास करने होंगे ताकि एक ऐसे भविष्य को आकार दे सकें, जिसमें इंसानों और पक्षियों का सह-अस्तित्व पुख्ता हो सके. पक्षियों को बचाने के लिए हमें सबसे पहले तो उनसे जुड़े डेटा पर गौर करना होगा.

एसओआईबी रिपोर्ट इस दिशा में एक अच्छी पहल है. हम उन प्रजातियों से भी सबक ले सकते हैं जो अपनी जीवटता के बूते अपने अस्तित्व को बचाए रखने में कामयाब रही हैं, जैसे भारतीय मोर या कोयल. यह भी अच्छा संकेत है कि शहरों से लगभग नदारद गौरैया फिर हमारे घर-आंगन में दस्तक देने लगी है. पक्षी विज्ञानी वी. सांताराम कहते हैं, "पक्षियों की रक्षा करना हमारा नैतिक दायित्व है."

केवल इसलिए नहीं कि हमें इस ग्रह पर जन्म लेने का मौका मिला है और हर तरह के जीवों के लिए हमें इसमें जगह बनानी चाहिए, बल्कि इसलिए भी कि पक्षी हमारे जीवन को कितना आनंदमय बना देते हैं, उनका गाना, उनके तरह-तरह के रंग हमें कितना सुकून देते हैं." निश्चित तौर पर रंग-बिरंगे खूबसूरत परिंदों और उनकी मीठी आवाज के बिना यह दुनिया कितनी सूनी होगी!

- अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)

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