कानूनी बिरादरी को इस रौशन सितारे की कमी हमेशा खलती रहेगी. 21 फरवरी को प्रख्यात न्यायविद् फली एस. नरीमन की मृत्यु के साथ भारत ने एक ऐसे इंसान को खो दिया, जिसके लिए अंतररात्मा की आवाज बेहद मायने रखती थी. मैंने 2008 में पाटिया, ओडिशा स्थित आईआईटी लॉ स्कूल में एक कार्यक्रम में उन्हें आमंत्रित किया था. कार्यक्रम में जब एक वक्ता लगातार बोलता रहा तो नरीमन ने मुझसे एक नोट उन्हें देने को कहा, जिस पर 'केआईएस-आई' लिखा था. यह कुछ समझ नहीं आया तो मैंने असमंजस से उनकी ओर देखा. इस पर उन्होंने मुझसे कहा कि वक्ता को बताना होगा - कीप इट शॉर्ट, इडियट (भाषण लंबा न खींचें). नरीमन ने पिछले वर्ष 18 अगस्त को मुझे एक व्यक्तिगत पत्र भी भेजा जिसमें उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित मेरे एक आलेख की सराहना की. साथ ही मुझसे एक किताब लिखने को कहा था. भारत में शायद ही कोई ऐसा वकील, कानून का शिक्षक होगा, जिसके पास दिवंगत न्यायविद् के बारे में बताने के लिए कोई बेहद खास किस्सा न हो. नरीमन के संदर्भ के बिना भारतीय न्यायप्रणाली की कहानी अधूरी है.
1929 में बर्मा (अब म्यांमार) में जन्मे नरीमन बॉम्बे बार में शामिल हुए और सात दशकों से अधिक समय तक कानूनी पेशे में अपनी धाक जमाए रहे. वे 1971 में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील के तौर पर दिल्ली आ गए. पूरी शिद्दत से नागरिक स्वतंत्रता के पक्षधर रहे नरीमन ने 1975 में उस समय भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के पद से इस्तीफा दे दिया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया.
देश के अनेक ऐतिहासिक मामलों में नरीमन वकील के तौर पर कोर्ट में पेश हुए और उनके तर्कों ने सर्वोच्च न्यायालय को नए सिरे से न्यायशास्त्र गढ़ने में बहुत योगदान दिया. वे न्यायपालिका की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक थे जो उनकी नजर में लोगों का अधिकार था न कि न्यायाधीशों का विशेषाधिकार.
उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली के गठन में अहम भूमिका निभाई थी, जिसे 1993 में अपनाया गया था. यही नहीं, नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से अपने पहले कार्यकाल के दौरान किए गए पहले बड़े संवैधानिक संशोधनों में से एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (एनजेएसी), 2014 का उन्होंने जमकर विरोध भी किया. एनजेएसी को अंतत: 2015 में रद्द कर दिया गया.
नरीमन न केवल सरकार बल्कि न्यायाधीशों को लेकर भी अपनी बात एकदम बेबाकी से सामने रखते थे. मसलन, जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के सुप्रीम कोर्ट के 2023 के फैसले को लेकर उनका रुख काफी आलोचनात्मक रहा था. इस पर न्यायविद् ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा था, "फैसला राजनैतिक तौर पर स्वीकार्य है लेकिन संवैधानिक रूप से गलत है."
नरीमन 1967 के बहुचर्चित गोलकनाथ मामले में भी पेश हुए थे, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार नहीं है. वे टी.एम.ए. पई फाउंडेशन मामले में फैसला सुनाने वाली सुप्रीम कोर्ट की 11 सदस्यीय पीठ के समक्ष भी उपस्थित हुए. वर्ष 2002 के इस मामले में शीर्ष अदालत ने अल्पसंख्यक समुदायों के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकारों पर ऐतिहासिक निर्णय सुनाया था.
विधि क्षेत्र में बेहद खास रुतबा और सम्मान हासिल करने वाले नरीमन को बस एक ही बात का अफसोस था कि उन्होंने 1984 के भोपाल गैस त्रासदी मामले में यूनियन कार्बाइड की तरफ से पैरोकारी की थी. ऐसे विरल ही वकील और न्यायाधीश हुए हैं जिन्होंने अपनी गलतियों को इस तरह स्वीकारने का साहस दिखाया. नरीमन के निधन के साथ हमने बेहद बेबाक बुद्धिजीवी और असहमति जताने का साहस दिखाने वाले इंसान खो दिया है. वे हमारे समय के संभवत: उन आखिरी नैतिकतावादियों में से एक थे, जिनकी राय में - जब लोकतंत्र, न्यायिक स्वतंत्रता, संवैधानिक लोकाचार और नागरिक स्वतंत्रता खतरे में हो तो चुप्पी साधना कतई कोई विकल्प नहीं हो सकता. लेकिन संवैधानिक धर्मशास्त्र का एक सबसे सशक्त पैरोकार अब हमारे बीच नहीं है.
फैजान मुस्तफा
लेखक चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, पटना के कुलपति हैं. व्यक्त विचार निजी हैं