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दमदार राइफल के लिए भटक रही भारतीय सेना, रूस की क्या है भूमिका?

देसी इनसास के नाकाफी प्रदर्शन और सेना की तरफ से स्पष्टता नहीं होने की वजह से भारत की अपने जवानों के लिए भरोसेमंद असॉल्ट राइफल की खोज अब भी जारी है

जम्मू-कश्मीर के उड़ी सेक्टर में 24 जनवरी को नियंत्रण रेखा पर गश्त के दौरान अपनी एके-47 असॉल्ट राइफल के साथ भारतीय जवान
जम्मू-कश्मीर के उड़ी सेक्टर में 24 जनवरी को नियंत्रण रेखा पर गश्त के दौरान अपनी एके-47 असॉल्ट राइफल के साथ भारतीय जवान
अपडेटेड 13 फ़रवरी , 2024

दिलचस्प पहेली है. ऐसा कैसे है कि जिस भारत के पास दुनिया के कुछ सबसे जानदार रॉकेट विज्ञान और बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम हैं, उसके पास देश में डिजाइन की गई विश्वस्तरीय असॉल्ट राइफल नहीं है, जो थल सेना का बुनियादी हथियार है.

वजहें कई और मिली-जुली हैं—देसी डिजाइन में लगातार खामियां, भारतीय सेना की ऊहापोह कि उसे आखिरकार किस किस्म का हथियार चाहिए, और हथियार निर्माताओं की तरफ से बेजा मांगें. दुनिया में छोटे हथियारों (जिसमें असॉल्ट राइफलें आती हैं) का सबसे ज्यादा इस्तेमाल भारत में होता है.

फिलहाल करीब बीस लाख राइफलें इस्तेमाल में हैं. भारतीय सेना और पैरामिलिटरी फोर्स आईएनएसएएस (इंडियन स्मॉल आर्म्स सिस्टम, भारतीय जवानों को दिया जाने वाला मानक निजी हथियार) या इनसास, एके-47, एम4ए1 कार्बाइन, टी91 असॉल्ट राइफल, सिग सॉर 716 और ट्वोर सरीखी कई तरह की असॉल्ट राइफलें इस्तेमाल करते हैं.

भारत की छोटे हथियारों की फेहरिस्त में बड़ा हिस्सा इनसास का है, जिनका करीब दस लाख की तादाद में इस्तेमाल किया जा रहा है. सशस्त्र बल तीनों सेनाओं के लिए 8,10,000 असॉल्ट राइफलों का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें से अकेले सेना 7,60,000 राइफलें काम में लाती है.

सैन्य उपयोग के लिए डिजाइन असॉल्ट राइफलें सेमी ऑटोमेटिक (एक बार ट्रिगर खींचने से एक गोली चलती है) और फुली ऑटोमेटिक (जब तक ट्रिगर खिंचा रहेगा लगातार गोलियां चलती रहेंगी) दोनों तरह से इस्तेमाल की जा सकती हैं.

पुरानी बोल्ट एक्शन राइफलों के मुकाबले सेमी और फुल ऑटोमेटिक राइफलें गोलियां दागने की दर के मामले में आगे हैं. इनमें चलाई गई हर गोली की ऊर्जा का इस्तेमाल चल चुकी गोली के खोखे को बाहर करने और नई लोड करने में होता है.

भारतीय सेना दो दशकों से भरोसेमंद असॉल्ट राइफल की तलाश में है, तो इसका काफी कुछ वास्ता इनसास के असंतोषजनक प्रदर्शन से है. इसे रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) ने विकसित किया, सरकार के मातहत संचालित आयुध कारखाना बोर्ड (ओएफबी) ने निर्मित किया और 1998 से इस्तेमाल की जा रही है.

जल्द इसमें कई सारी खामियां बताई गईं—बार-बार जाम और बंद हो जाना, कारतूस फटने के कई मामले और नली का चटक जाना. 1999 की करगिल जंग के दौरान भारतीय सैनिकों ने ठंडे मौसम में पॉलीमर प्लास्टिक मैगजीन के तड़क जाने की शिकायत की.

देखते-देखते शिकायतों का तांता लग गया—सियाचिन और कश्मीर घाटी की ऊंची पर्वतमालाओं पर चलाने के वक्त जाम हो गई, मध्य भारत के जंगलों में नक्सल विरोधी कार्रवाइयों के दौरान चलाते वक्त भी गड़बड़ काम किया.

धीरे-धीरे सेना ने जम्मू और कश्मीर में बगावत विरोधी कार्रवाइयों के दौरान इनका इस्तेमाल बंद कर दिया और भरोसेमंद एके-47 थाम ली जो कि बदतर मौसम में चलने और एक बार में इस्तेमाल करने की अपनी खासियत के लिए पहचानी जाती है.

करगिल के फौरन बाद सेना ने इनसास का वाजिब विकल्प खोजना शुरू किया. बीत 25 साल में इसने कई शक्लें अख्तियार कीं. इनसास का उन्नत संस्करण और दूसरी देसी राइफलें आजमाई और खारिज कर दी गईं.

राइफल की जरूरी क्षमता पर बहस के बीच इंटरचेंजेबल बैरल के साथ अलग-अलग क्षमता की आयातित राइफलों की मांग उठी और बाद में शांत भी हो गई. लंबी अनिश्चितता से अब जाहिर समाधान निकलकर आया—विदेशी हथियारों का आयात.

दिसंबर, 2023 में भारतीय सेना को 'आपातकालीन खरीद' रास्ते के जरिए अमेरिका से 840 करोड़ रुपए के सौदे में 7.62 और 51 मिमी क्षमता (जो नली की गोलाई और कारतूस की लंबाई बताता है) की 72,000 से ज्यादा सिग सॉर असॉल्ट राइफलें इम्पोर्ट करने की मंजूरी मिल गई.

हालांकि ये सेना की पहली सिग सॉर राइफलें नहीं थीं—फरवरी 2019 में भी रक्षा मंत्रालय की तरफ से किए गए 694 करोड़ रुपए के सौदे में 72,400 असॉल्ट राइफलें आयात की गई थीं और पाकिस्तान व चीन से सटी सीमा पर जवान इनका इस्तेमाल कर रहे हैं. 

भारतीय सेना को ताबड़तोड़ और ज्यादा सिग सॉर आयात करनी पड़ीं, तो इसका मुख्य कारण एके-203 असॉल्ट राइफलों के भारत-रूस सहउत्पादन में कीमत और देसी सामग्री की साझेदारी सरीखी वजहों से आई बाधाएं थीं.

अलबत्ता इनसास को थोक के भाव पूरा का पूरा नहीं बदला जा रहा है—खालिस तादाद और बदलने की भारी-भरकम लागत की वजह से इन राइफलों के उन्नत संस्करण की कोशिशें की जा रही हैं जिनमें इनकी खामियां दूर कर दी जाएं और ज्यादा लंबे वक्त काम में लेने लायक बनाया जाए.

भरोसेमंद असॉल्ट राइफल की खरीद/निर्माण के टेढ़े-मेढ़े रास्ते के बारे में बताते हुए पूर्व नॉर्दर्न आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल डी.एस. हुड्डा (सेवानिवृत्त) का कहना है कि डीआरडीओ ने उन्हें दिए गए काम पर कभी ध्यान ही नहीं दिया जबकि भारतीय सेना को ठीक-ठीक पता ही नहीं था कि उसे चाहिए क्या.

वे कहते हैं, ''सेना मुख्यालय को पक्क तौर पर पता ही नहीं था कि उसे किस किस्म के हथियार की तलाश है. मैन्युफैक्चरिंग तो तभी आपके पास आएगी जब आप तय कर लें कि आप चाहते क्या हैं." सेना मुख्यालय की पेचीदा जनरल स्टाफ क्वालिटेटिव रिक्वाएरमेंट्स (जीएसक्यूआर) ने भारतीय हथियार निर्माताओं को गफलत में डाल दिया.

इंटीग्रेटड डिफेंस स्टाफ फॉर पॉलिसी प्लानिंग ऐंड फोर्स डेवलपमेंट के पूर्व डिप्टी चीफ लेफ्टिनेंट जनरल अनिल आहूजा (सेवानिवृत्त) सहमति जाहिर करते हुए कहते हैं कि अपने सशस्त्र बलों के लिए देसी असॉल्ट राइफल हासिल करने की भारत की अक्षमता परिचालन जरूरतें साफ ढंग से तय नहीं कर पाने, सार्वजनिक क्षेत्र के राइफल कारखानों का भरोसेमंद हथियार नहीं बना पाने और अधिग्रहण प्रक्रिया में चूक और फिसलनों का मिला-जुला नतीजा है.

हालांकि रक्षा अधिकारी मानते हैं कि छोटे हथियार विकसित करने में लंबा वक्त लगता है. वे बताते हैं कि अमेरिकी एम4 असॉल्ट राइफल को अपने शुरुआती मॉडल से विकसित होने में 50 से ज्यादा साल का वक्त लगा और इनके साथ भी गुणवत्ता के कई मसले लगातार रहे हैं.

ईशापुर राइफल फैक्ट्री में राइफलों की एसेंबलिंग का दृश्य

राइफल का सफर

1962 की चीन-भारत जंग के दौरान भारतीय जवानों ने पुरानी और बेकार बोल्ट-ऐक्शन एनफील्ड .303 राइफलों से एके-47 थामे दुश्मनों का सामना किया था. इस बंदूक को अंतत: 7.62 और 51 मिमी एसएलआर (सेल्फ लोडिंग राइफल) से बदल दिया गया.

इन्हीं से भारतीय सेना ने पाकिस्तान के खिलाफ 1965 और 1971 की जंग लड़ीं और ये 1990 के दशक के आखिर तक काम आईं. 1980 के दशक में वैश्विक रुझान को ध्यान में रखते हुए इस मानक सेवा राइफल की क्षमता को 7.62 मिमी से 5.56 मिमी में बदलने का फैसला किया गया.

वजह यह थी कि लड़ाई के रंग-ढंग में आमूलचूल बदलाव आ चुका था—जंग के मैदान में दुश्मन को सिरे से मार डालने के बजाय उसे घायल करना और इस तरह साज-संभाल के लिहाज से बोझ बना देना ज्यादा फायदेमंद माना जाने लगा.

छोटी दूरी और दायरे ने गोली को हल्का भी बनाया जिससे यह संपर्क होने पर लक्ष्य के कम भीतर जाती तथा ज्यादा गंभीर चोट नहीं पहुंचाती. गोली बंदूक के मुंह पर ज्यादा वेग और सीधे-सपाट यात्रापथ के साथ कम प्रतिघात पैदा करती थी, इसलिए करीब 200 मीटर तक—जो आमने-सामने गोलीबारी की सामान्य सीमा है—यह ज्यादा सटीक ढंग से जाती थी.

इसके अलावा बुलेट कहीं ज्यादा हल्की थी और बनाने में ज्यादा सस्ती भी, क्योंकि इसमें कम पीतल और सीसा लगता था. इसी तरह नई इनसास राइफलें भी 5.56 और 45 मिमी क्षमता में आईं. लेफ्टि. जन. आहूजा कहते हैं, ''कैलिबर बदलकर 7.62 से 5.56 करना पारंपरिक कार्रवाइयों के लिए अब भी अच्छा है, पर आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों के लिए यह काफी नहीं था, जहां हमारे लिए पक्के तौर पर मार देना जरूरी होता है."

इनसास के गड़बड़ कामकाज की वजह से सेना मुख्यालय को पक्का पता नहीं था कि कौन-सी राइफल खरीदे. 2011 में सेना ने इंटरचेंजेबल बैरल वाली असॉल्ट राइफलों के लिए वैश्विक टेंडर निकाला और चार साल बाद इस कार्यक्रम को मैदानी परीक्षणों में खरा नहीं उतर पाने के कारण रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया.

बेरेटा की एआरएक्स-160 (इटली), कोल्ट कॉम्बैट राइफल (अमेरिका) और सीए 805 बीआरईएन (चेक गणराज्य) सेना की अवास्तविक जीएसक्यूआर पर खरी नहीं उतर पाईं. इस प्रयोग को नाकाम होना ही था, क्योंकि दुनिया की किसी सेना के पास बुनियादी हथियार के तौर पर टू-कैलिबर राइफल नहीं है.

सेना के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, ''अगर किसी जवान को दो बैरल और दो प्रकार के असलहे साथ ले जाने की जरूरत है, तो उसे अपने कपड़ों और खाने की चीजों में कटौती करनी पड़ेगी. कुल बैटल लोड कम से कम 10 किलोग्राम बढ़ गया होगा, जिससे गतिशीलता कम होगी."

इंटरचेंजेबल बैरल का विचार घूरे में डालने के बाद भारतीय सेना को असॉल्ट राइफलों के मामले में अपने मार्गदर्शक सिद्धांतों पर नए सिरे से विचार करना पड़ा. पक्के तौर पर मार डालने की ताकत वाली 7.62 मिमी क्षमता की राइफल और नकारा बना देने की कोशिश करने वाली 5.56 मिमी क्षमता की राइफल के बीच बहस फिर शुरू हो गई.

आखिरकार 2016 में सेना के सभी शीर्ष कमांडरों ने अपनी पैदल बटालियनों और उग्रवाद विरोधी इकाइयों के लिए ''मार डालने की ज्यादा संभावना और ताकत को रोकने’’ वाली ज्यादा ताकतवर 7.62 और 51 मिमी क्षमता की राइफल आयात करने का फैसला किया. 7.62 और 51 मिमी सिग सॉर असॉल्ट राइफल खरीदने के हाल के फैसले में इसी फैसले की झलक मिलती है.

मगर दो और मायूसियां सेना का इंतजार कर रही थीं. 2016 में उसने गुणवत्ता मानकों को लेकर 5.56 मिमी एक्सकैलिबर असॉल्ट राइफल खारिज कर दी, जो फोल्डेबल बट वाली गैस से संचालित स्वचालित राइफल थी और इनसास का उन्नत संस्करण थी, जिसे डीआरडीओ ने विकसित किया था.

इसी तरह 2017 में सेना ने राइफल फैक्टरी ईशापुर की ओर से विकसित 7.62 और 51 मिमी क्षमता की प्रोटोटाइप असॉल्ट राइफलों का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया. इन राइफलों ने जाहिरा तौर पर बैकफायर किया था.

एक कर्नल कहते हैं, "सेना ने कभी भारतीय निर्माताओं पर भरोसा नहीं किया, क्योंकि उनकी गलतियों का दंश जवानों को भुगतना पड़ता है." और नतीजा यह निकला कि आखिरकार भारत ने अपने सबसे बड़े हथियार सप्लायर रूस की तरफ लौटने का फैसला किया.

एके-203 और सिग सॉर

फरवरी 2019 में भारत और रूस ने एके-203 असॉल्ट राइफलों के लिए अंतर-सरकारी समझौता किया जो प्रसिद्ध कलाशनिकोव शृंखला की 7.62 & 39 मिमी क्षमता वाली पांचवीं पीढ़ी की असॉल्ट राइफल है. इसके बाद 2021 में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा और भारत-रूस 22 संवाद के दौरान भारत में एके-203 बनाने के समझौते पर दस्तखत हुए.

2019 में इंडो-रशिया राइफल्स प्राइवेट लिमिटेड (आइआरआरपीएल) की स्थापना हुई जो ओएफबी (50.5 फीसद बहुसंख्यक हिस्सेदार वाली), कलाशनिकोव (42 फीसद) और रूस की सरकारी मिल्कियत वाली रक्षा निर्यात एजेंसी रोसोबोरोनएक्सपोर्ट (7.5 फीसद) का संयुक्त उद्यम था.

इसके तहत राइफलें उत्तर प्रदेश के अमेठी स्थित कोरवा आयुध कारखाने में बनाई जानी थीं. आइआरआरपीएल ने सेना की तत्काल परिचालन जरूरतों को पूरा करने के लिए लगभग 1,100 डॉलर (81,000 रुपए) प्रति राइफल की कीमत पर 8,00,000 एके-203 आयात करने का और उसके बाद बाकी 6,50,000 इकाइयों के लाइसेंसशुदा उत्पादन का मंसूबा बनाया.

बहुत-सी मेक इन इंडिया परियोजनाओं से जुड़े लेफ्टिनेंट जनरल मनोज के. चन्नान का कहना है कि वित्तीय बाध्यताओं और देशी पुर्जों के मसलों ने एके-203 परियोजना में अड़ंगा डाल दिया. वे कहते हैं, ''रॉयल्टी से जुड़ी ऊंची लागत और टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण ने खास तौर पर सशस्त्र बलों के लिए उपलब्ध वैकल्पिक हथियारों के मुकाबले इस परियोजना को वित्तीय तौर पर अव्यवहारिक बना दिया.’’

वे यह भी कहते हैं कि कीमत तय करने के मौजूदा मॉडल से संकेत मिलता है कि भारत देश में ही बनी एक एके-203 की कीमत में विदेश में बनी तीन राइफलें हासिल कर सकता है. अपनी फौरी जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय सेना ने 2019 में अमेरिका-निर्मित 72,400 सिग सॉर 7.62 & 51 मिमी राइफलें हासिल कीं. सिग सॉर अपनी श्रेणी का बेहतरीन हथियार है और मजबूती, विश्वसनीयता तथा 600 मीटर की लंबी रेंज होने की वजह से इसे चुना गया. यह एके-47 और इनसास के मुकाबले अधिक सटीक है.

देशी नाइट विजन सिस्टम, बाइपॉड और भारत में निर्मित गोलियों के साथ यह अमेरिकी हथियार और घातक बन गया है जिसका उपयोग पाकिस्तान और चीन सीमा पर तैनात भारतीय सैनिक कर रहे हैं. इसमें से सेना को सबसे बड़ा हिस्सा 66,400, भारतीय वायु सेना को 4,000 और नौसेना को 2,000 राइफलें मिलीं.

इसके बाद जल्द ही रक्षा मंत्रालय ने असॉल्ट राइफलों को हथियार प्रणालियों की सकारात्मक स्वदेशीकरण सूची में डालकर इनके आयात पर पाबंदी लगा दी. हालांकि पिछले दिसंबर में सेना ने सिग सॉर की 72,000 इकाइयों की एक खेप की तत्काल जरूरत के लिए मंत्रालय को राजी कर लिया.

सेना के एक प्रमुख अधिकारी कहते हैं, "अगर देश में ही बनी राइफलों से हमारी जरूरतें पूरी होतीं तो हम आयात के लिए नहीं गए होते. हमारे सामने आयात के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है."

सिग सॉर के आगमन का मतलब यह नहीं कि इनसास राइफलों का रास्ता बंद हो गया है. बड़े पैमाने पर इसके इस्तेमाल को ध्यान में रखते हुए सेना के योजनाकारों ने इनसास राइफलों के अपने मौजूदा जखीरे को उन्नत बनाने की योजना तैयार की है.

और इसे परिचालन के लिहाज से व्यवहार्य और लागत-प्रभावी समाधान माना है. कुछ अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस ने उन्नत बनाई गई इनसास का इस्तेमाल शुरू कर दिया है, भारतीय सेना की उत्तरी कमान ने भी यही करने की पेशकश की है.

मौजूदा इनसास राइफलों के अपग्रेड करने की पेशकश करने वाली स्टार एयरोस्पेस के डायरेक्टर समीर धवन दावा करते हैं कि उनकी कंपनी ने अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस को उन्नत राइफलें दी हैं और गृह मंत्रालय से इनका डिजाइन मंजूर करवा लिया है. वे यह भी कहते हैं कि अभीष्टतम स्तर तक रूपांतरित इनसास राइफल से अत्याधुनिक विशेषताएं और मौजूदा वक्त की खूबियां मिल जाती हैं. 

जिस ताजातरीन स्वदेशी राइफल की पेशकश की जा रही है, वह उग्रम है, जिसे डीआरडीओ के आयुध अनुसंधान और विकास प्रतिष्ठान और हैदराबाद स्थित प्राइवेट फर्म द्विपा आर्मर इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने मिलकर विकसित किया है. इस 7.62 मिमी कैलिबर वाली राइफल का परीक्षण अभी होना है.

दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी थल सेना को शस्त्र-सज्जित करने के लिए हमेशा असॉल्ट राइफल की खोज में रहना आदर्श स्थिति नहीं है. विभिन्न असॉल्ट राइफलों की पेचीदा फेहरिस्त टकराव के वक्त भी गफलत पैदा कर सकती है. चल रही परियोजनाओं को तेजी से पूरा तो करें ही, साथ ही एकल और स्थिर हथियार की दिशा में मेक इन इंडिया के तहत स्थायी समाधान पाने के लिए निजी क्षेत्र की शिरकत बेहद जरूरी है.

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