- अरुण पुरी
अक्सर आंकड़ों के इधर-उधर बिखरे टुकड़े होते हैं, जिन्हें जोड़ा जाए तो वे आपको एक परिघटना के बारे में आगाह करते हैं. मसलन, कारों को लीजिए. इस साल रिकॉर्ड संख्या में कारें सड़कों पर आईं—करीब 40 लाख, लेकिन ढेरों आकर्षक नए मॉडल आए, जिन्हें ऊपर उठते मध्य वर्ग ने हाथो-हाथ लिया. 7.5 लाख रु. से 22.5 लाख रु. के बीच की कारों में विविधता और विस्तार के लिहाज से अद्भुत बहार देखी गई.
ये उस सेगमेंट की नुमाइंदगी करती हैं जिसे नए शब्द 'मास्टिज' से परिभाषित किया गया है, जो अंग्रेजी के शब्द 'मास' और 'प्रेस्टीज' से मिलकर बना है. प्रेस्टीजस या प्रतिष्ठा दिलाने वाला, और फिर भी जिसे हासिल किया जा सकता हो, तब भी जब कीमत मिड-मार्केट और सुपर-प्रीमियम के बीच है. इच्छा और पूर्ति के इस मिलन में आप सेडान, एसयूवी और एमपीवी मॉडलों का धमाका-सा होता देखते हैं, जो 2021 में बिक्री में 44.2 फीसद हिस्सेदारी से 2023 में 53.4 फीसद और पिछले साल नवंबर तक 62.4 फीसद की तकरीबन अविश्वसनीय उछाल के साथ घटित हुआ है.
वह भी बावजूद इसके कि 2020 से अब तक कारों की कीमतों में 23 फीसद का इजाफा हुआ. ये कारें अब ऐसी शानदार अतिरिक्त खूबियों के साथ आती हैं जिन्हें आप महंगी कारों के साथ जुड़ा मानते थे: 360-डिग्री कैमरा, एडैप्टिव क्रूज कंट्रोल, 'हिल होल्डर' मोड, वायरलेस चार्जिंग पैड, एयरबैग, एडवांस्ड ड्राइवर असिस्टेंस सिस्टम. वहीं 7.5 लाख रु. से कम कीमत वाली छोटी कारों की हिस्सेदारी में गिरावट देखी गई है. बिक्री में उनकी हिस्सेदारी 2021 में 55.8 फीसद थी. यह 2022 में 46.6 फीसद और नवंबर तक 36.5 फीसद पर आ गई. यह पिरामिड के उलटा हो जाने की तरह है.
यह रुझान तमाम कंज्यूमर सेगमेंट में है, प्रीमियम अपार्टमेंट से लेकर ब्रांडेड निजी साजो-सामान तक, अपनी खास पसंद और सुविधा के हिसाब से तय छुट्टियों से लेकर तमाम किस्म की आकर्षक और ठाठदार सेवाओं तक, जिनके जरिए हम एक पूरी दुनिया घर ले आते हैं. एक तो रियल एस्टेट में लंबे शीतकाल का अंत हो गया. मगर बहाली की कहानी उसी उलटे ग्राफ से लिखी गई है.
प्रॉपर्टी कंसल्टेंट नाइट फ्रैंक की रिपोर्ट से पता चलता है कि आठ बड़े शहरों—मुंबई, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, बेंगलूरू, हैदराबाद, पुणे, अहमदाबाद, कोलकाता और चेन्नई—में 1 करोड़ रु. या ज्यादा की कीमत वाले अपर सेगमेंट के घरों की हिस्सेदारी 2022 की तीसरी तिमाही में कुल बिक्री की 28 फीसद से 2023 की तीसरी तिमाही में 35 फीसद पर पहुंच गई. मिड-लेवल सेगमेंट (50 लाख रु. से 1 करोड़ रु.) 36 फीसद हिस्सेदारी पर स्थिर बना रहा. मगर 'निचली पायदान के सस्ते' माने जाने वाले 50 लाख रु. तक के घरों की बिक्री 36 फीसद से 29 फीसद पर गिर गई.
फिर एफएमसीजी को लीजिए. देश में छोटे परिवार अब तकरीबन 50 फीसद हैं, और आंकड़ों से पता चलता है कि वे संयुक्त परिवारों से ज्यादा खर्च कर रहे हैं. तो, पिछले साल परिवारों के खर्च में 8 फीसद की बढ़ोतरी हुई और यह औसतन 17,792 रुपए पर पहुंच गया. बेहतर किस्मों की मांग को पूरा करने के लिए सीधा-सादा आटा अब कई अवतारों में आता है: ग्लुटन मुक्त, कर्टिफाइड, मल्टी-ग्रेन, कंट्रोल्ड शुगर रिलीज. पीने वालों पर महंगी शराब का नशा सवार है.
एक तो वे देसी दारू से ब्रांडेड शराब की तरफ जा रहे हैं, तो दूसरे, एंट्री-लेवल से प्रीमियम स्कॉच की ओर. ब्रिटेन की इंपोर्टेड स्कॉच की खपत महामारी के दो साल 2020-22 के दौरान करीब दोगुनी हो गई, और फ्रांस को पीछे छोड़कर भारत असली स्कॉच व्हिस्की का दुनिया में सबसे बड़ा उपभोक्ता हो गया.
यात्रा-भ्रमण का दृश्य भी शॉर्ट वैकेशन वीकेंड, लॉन्ग वीकेंड गेटवे, एनुअल लीव और बाइएनुअल लीव के साथ फट पड़ा है. विदेश की सैर भी उफान पर है. उद्योग की अग्रणी ग्लोबल कंसल्टेंसी फर्म आईपीके इंटरनेशनल का वर्ल्ड ट्रैवल मॉनिटर हमें बताता है कि 2022 में भारत सालाना आधार पर 190 फीसद की बढ़ोतरी के साथ चीन, दक्षिण कोरिया और जापान को पीछे छोड़कर एशिया में यात्रियों के सबसे बड़े स्रोत बाजार के रूप में उभरा.
यहां तक कि टिकाऊ उपभोक्ता सामान में भी 550 और 670 लीटर क्षमता के रेफ्रिजरेटर फटाफट बिक रहे हैं और पुराना फ्रिज बदलने और पहली बार खरीदने वाले दोनों ही फ्रॉस्ट-फ्री, साइड-बाय-साइड और बॉटम-माउंटेड मॉडल, यानी जिनमें फ्रीजर नीचे होता है, चुन रहे हैं. स्मार्ट टेक्नोलॉजी ज्यादा आकर्षक और स्मार्ट उत्पाद तैयार कर रही है.
वॉशिंग मशीन, डिशवॉशर, माइक्रोवेव, ऑडियो ब्रांड, ग्रूमिंग और सेल्फ-केयर उत्पाद, सभी इस वैभवशाली बाढ़ के हिस्से हैं. स्मार्टफोन के मामले में भी प्रीमियम सेगमेंट में 52 फीसद की वृद्धि हुई, जबकि सस्ते फोन में 14 फीसद की गिरावट आई है. कुछ तो यह आमदनी में बढ़ोतरी की बदौलत हुआ, पर उससे कहीं ज्यादा यह मनोविज्ञान है जो रहस्यमयी तरीके से काम कर रहा है. एक पीढ़ी पहले उन्होंने संकट में ज्यादा बचत किया होता. अब वे दोनों हाथों से खुलकर खर्च कर रहे हैं, उधार लेकर भी.
कोविड के वर्षों की जबरिया मंदी की वजह से उसके बाद एक उलटा मोड़ आया, जिसमें अच्छी जिंदगी की ललक एकाएक बढ़ गई. इसे महामारी का वाईओएलओ या योलो (यू लिव ओनली वंस या जिंदगी मिलती है बस एक बार) असर कहिए—यह एहसास कि मृत्यु बस खांसी के एक संक्रमण जितनी दूर है. जैसा कि डेलॉइट एशिया पैसिफिक के पार्टनर और कंज्यूमर इंडस्ट्री लीडर राजीव सिंह बताते हैं, हम मध्य वर्ग के व्यवहार में एक पीढ़ीगत बदलाव देख रहे हैं.
बच्चों की खातिर बचत करने वाले माता-पिता के विपरीत मिलेनियल और जेन ज़ी पीढ़ी और खासकर 1990 के दशक के बाद जन्मी संततियों की खाने, रहने और स्वास्थ्य सरीखी बुनियादी जरूरतें उनके मां-बाप से पूरी हो जाती हैं. राजीव सिंह कहते हैं, "सुरक्षा का यह एहसास बहुत अहम है जो पहले ज्यादातर लोगों को नहीं मिलता था. इसने उन्हें समझा-बूझा खर्चीला बना दिया है."
बेशक, हम भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रीमियमीकरण होता देख रहे हैं. इस अंक की आवरण कथा इसी परिघटना की नाप-जोख करती है और इसके अंदरूनी अंतर्विरोधों को भी अछूता नहीं छोड़ती. इसे सीनियर एसोसिएट एडिटर सोनल खेत्रपाल और मैनेजिंग एडिटर एम.जी. अरुण ने लिखी है. अरुण कहते हैं, "आम उत्पादों की बिक्री में लगभग ठहराव है, चाहे वाहन हो या उपभोक्ता सामान, या यहां तक कि घर, और इसकी वजह ग्रामीण मांग में कमी और मैन्युफैक्चरिंग सरीखे क्षेत्रों में नौकरी की अनिश्चितता है."
"प्रीमियमीकरण भी शायद टिकाऊ परिघटना न हो, और कंपनियों को जल्द ही निचले सेगमेंट में मांग बढ़ाने के तरीके खोजने पड़ सकते हैं." यह संभवत: अर्थव्यवस्था में अंग्रेजी के अक्षर 'के' आकार की बहाली का संकेत है, जिसमें आबादी की ज्यादा आय वाली परत फलती-फूलती है, जबकि दूसरी परतें जहां की तहां रहती हैं. यह स्वस्थ वृद्धि नहीं है. चढ़ते ज्वार पर सभी नावों को ऊपर उठना चाहिए.
- अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)