
दिल्ली में कोविड का आखिरी वार्ड नवंबर 2022 में हटा दिया गया. राजधानी के 11 वार्डों में यह सबसे बड़ा वार्ड एलएनजेपी अस्पताल में था. आज वह पूरी जगह जो कभी परिवारों, जूझते मरीजों और बदहवास डॉक्टरों से खचाखच भरी रहती थी, एक बार फिर पढ़ाई की कक्षाओं में बदल गई है.
बिस्तर और मशीनें भले गायब हो गई हों, लेकिन महामारी से मिले सबक सबको याद हैं. देश में डॉक्टर और वैज्ञानिक बीमारी के अगले बड़े प्रकोप के लिए चौकस और चिंतित हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसे 'डिजीज एक्स' या रोग एक्स नाम दिया है.
इसके जूनोटिक (ऐसी बीमारी या संक्रमण जो जानवरों से इनसानों को या इनसानों से जानवरों को स्वाभाविक रूप से हो सकता है) होने की आशंका है. मुमकिन है कि यह आरएनए वायरस होगा. वैश्विक स्वास्थ्य संस्था की तरफ से रोग एक्स की घोषणा से बड़े पैमाने पर अनुसंधान और भविष्यवाणियां होने लगी हैं कि अगली महामारी दुनिया पर कब धावा बोलेगी.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स ऐंड सोसाइटी (टीआइजीएस) के डायरेक्टर राकेश मिश्रा, जो सीएसआइआर-सेंटर फॉर सेल्यूलर ऐंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी) के पूर्व डायरेक्टर भी हैं और इन दिनों देश भर में नए-नवेले वायरसों का सर्वे करने के काम से जुड़े हैं, कहते हैं, ''चिंता अकेले कोविड वायरस की नहीं है. हमारे यहां हजारों अलग-अलग वायरस हैं जो चिंता का विषय हैं और लाखों वायरस अभी खोजे नहीं गए हैं. हमें यह भी नहीं सोचना चाहिए कि अगला वायरस किसी और देश से उभरेगा. भारत में भी हमारे यहां बहुत ज्यादा जोखिम वाले कई इलाके हैं, जहां कोई अनोखा वायरस जानवर से इनसान में आ सकता है. इनसानी बस्तियां जितना ज्यादा वन क्षेत्रों में फैलने लगती हैं, मनुष्यों में नए वायरस के उभरने की आशंका उतनी ही ज्यादा बढ़ सकती है.''
ब्रिटेन में वैक्सीन टास्कफोर्स की पूर्व अध्यक्ष केट बिंगहैम ने अनुमान लगाया है कि अगली महामारी कोविड से 20 गुना ज्यादा जानलेवा हो सकती और 5 करोड़ इनसानी जिंदगियां लील सकती है. मिश्रा यह भी कहते हैं, ''आप निपाह से लेकर कोविड तक हाल के जूनोटिक वायरसों का पैटर्न देखें, तो वे सब संक्रामक और इनसानी सेहत के लिए नुक्सानदायक रहे हैं. अगला वायरस वैश्विक महामारी भले न हो पर स्थानीय स्तर पर भारी नुक्सान कर सकता है. हमें लगातार चौकस रहने की जरूरत है.''
रोग एक्स के उभरने का नया मॉडलिंग पूर्वानुमान बीमारियों की भविष्यवाणी करने वाली लंदन की कंपनी एयरफिनिटी से आया है और उसने सुझाया है कि 2033 तक कोविड-19 जितनी मारक महामारी के उभरने की आशंका 27.5 फीसद है. एयरफिनिटी ने कहा है कि बदतरीन स्थिति में इनसानों में फैलने वाले एवियन फ्लू का प्रकोप अकेले ब्रिटेन में रोज 15,000 लोगों की जानें ले सकता है. ये निष्कर्ष विभिन्न संभावित पैथोजन या रोगजनकों के मॉडल पर तैयार 1,50,000 सिम्यूलेशन या अनुरूपणों पर आधारित हैं, जिनमें इन पैथोजन की संक्रामकता, प्रकोप की शुरुआत का आकार, प्रकोप के देश की आबादी, और मामलों की मृत्यु दर काफी अलग-अलग थी.
बीमारियों के जोखिम का पूर्वानुमान लगाने वाली अमेरिका की कंपनी मेटाबायोटा के एक और अनुसंधान में किसी भी दिए गए साल में कोविड-19 के पैमाने पर महामारी की सालाना आशंका को 2.5 से 3.3 फीसद के बीच होने का अनुमान लगाया गया है. इसका मतलब है कि अगले 25 साल में कोविड जितनी जानलेवा एक और वैश्विक महामारी की आशंका 47-57 फीसद है. इस पूर्वानुमान में भविष्य के प्रकोपों के संभावित असर का अनुमान लगाने और महामारी के लंबे वक्त के जोखिम का आकलन करने के लिए महामारी विज्ञान और आपदा मॉडलिंग दोनों की तकनीकों का इस्तेमाल किया गया. विश्लेषण में यह भी अनुमान लगाया गया है कि स्पिलओवर इवेंट (यानी वह घटना जिसमें वायरस एक प्रजाति से दूसरी में कूदता है) को महज 1 फीसद रोककर भविष्य में मौतों की तादाद में अच्छी-खासी कमी लाई जा सकती है—10 साल की अवधि में 100 गुना कम मौतें.
एनआइवी की पूर्व डायरेक्टर और वायरोलॉजिस्ट डॉ. प्रिया अब्राहम कहती हैं, ''हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि महामारी का जोखिम खत्म हो गया. नए प्रकोप के जोखिम के कारक- ग्लोबल वार्मिंग, अंतरराष्ट्रीय यात्राएं, जानवरों के प्रवास का बदलता पैटर्न, वन क्षेत्रों में मानव अतिक्रमण- मौजूद हैं और बढ़ रहे हैं. जितना ज्यादा हम जानवरों के संपर्क में आएंगे, नए वायरस के जानवर से मेजबान इनसान में आने की आशंका उतनी ही बढ़ेगी.''
क्या रोग एक्स का आगमन हो चुका है?
डब्ल्यूएचओ ने यह स्पष्ट नहीं किया कि रोग एक्स का वायरस कौन-सा हो सकता है, पर विशेषज्ञों का कहना है कि इसके श्वसन वायरस होने की आशंका ज्यादा है क्योंकि इनके जीवित रहने की दर सबसे ज्यादा है. बेंगलूरू में कनिंघम रोड स्थित फोर्टिस अस्पताल में आंतरिक चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. आदित्य एस. चौटी कहते हैं, ''सभी इनसान सांस लेते हैं और हमारा श्वसन तंत्र हमें संक्रमित करने की खातिर किसी भी पैथोजन के लिए सबसे तेज रास्ता है.''
रोग एक्स के खतरे के जवाब में डब्ल्यूएचओ ने कई प्राथमिकता वाली बीमारियों का आरऐंडडी ब्लूप्रिंट बनाया. अगर वे रूप बदलकर ज्यादा संक्रामक और घातक हो जाती हैं तो उनमें से कोई भी रोग एक्स बन सकता है. हमारे लिए खतरा पैदा करने वाले बड़े जूनोटिक वायरसों की मौजूदा फेहरिस्त में शामिल हैं- कोविड-19, क्रीमियन-कांगो रक्तस्रावी बुखार, इबोला वायरस, मारबर्ग वायरस, लासा बुखार, मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (एमईआरएस) और सार्स, निपाह और हेनिपावायरल बीमारियां, रिक्रट वैली बुखार और जीका वायरस. ये सब भारत में भी पाए गए हैं.
रोज नए वायरस भी उभर रहे हैं. इनमें से कुछ सार्स-कोव-2 परिवार से आए हैं, जिनसे कोविड-19 और उससे करीब से जुड़ा सार्स वायरस आया. 2023 के अक्तूबर के आखिरी हफ्ते में चीनी वैज्ञानिकों ने चीन के दक्षिणी तट के निकट हैनान द्वीप पर आठ वायरसों की खोज की जो पहले कभी नहीं देखे गए. ये सभी आठ चूहों में पाए गए और उनमें कोई स्पिलओवर घटना होने पर इनसानों को संक्रमित करने की 'बहुत ज्यादा' संभावना थी. यह खोज वायरोलॉजिका सिनिका नाम की पत्रिका में छपी और उस द्वीप से लिए गए चूहों के 700 नमूनों पर आधारित थी. वहां पाए गए वायरसों में से एक उसी परिवार का है जिससे कोविड-19 पैदा हुआ.
मिश्रा चीनी जूनोटिक निगरानी का हवाला देते हुए कहते हैं कि भारत को बीमारी के छोटे से छोटे प्रकोप और जूनोटिक पैथोजन पर भी ध्यान देना चाहिए. वे कहते हैं, ''सभी वायरस जानलेवा नहीं होंगे, पर हमें उनके व्यवहार और रूप बदलने का खाका बनाने की जरूरत है, और कोई चिंताजनक संकेत हो तो हमें दूसरों से आगे रहना चाहिए और पहले से पूर्वानुमान लगाकर तैयार रहना चाहिए.'' मसलन, चीन में लैंग्या नामक पशु वायरस से संक्रमित 35 लोगों की पहचान की गई और उनके बारे में द न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में बताया गया. हालांकि, यह जानलेवा या बहुत संक्रामक वायरस नहीं था, पर उसकी मौजूदगी पर नजर रखी जा रही है. लैंग्या उन दो हेनिपावायरसों से करीब से जुड़ा है जो लोगों को संक्रमित करने के लिए जाने जाते हैं—हेंड्रा वायरस और निपाह वायरस. यह बुखार, खांसी और न्यूमोनिया सरीखे सांस के लक्षण पैदा कर सकता और जानलेवा हो सकता है (निपाह में मृत्यु दर 40-75 फीसद के बीच है).
डॉक्टरों को केवल वायरस से होने वाली मौतों का ही नहीं, बल्कि इनसानी सेहत पर लंबे वक्त के असर का भी डर है. फरीदाबाद के अमृता अस्पताल में पल्मोनरी मेडिसिन विभाग के प्रमुख डॉ. अर्जुन खन्ना कहते हैं, ''हम मौतों का पूर्वानुमान लगाते हैं और जिंदगियां बचा लीं तो उसे कामयाबी का पैमाना मानते हैं. मगर हम यह नहीं देखते कि बीमारी के इन प्रकोपों का जीवन की गुणवत्ता पर कैसा असर पड़ता है.'' उनका यह भी कहना है कि उनके पास अब भी लॉन्ग कोविड से पीड़ित मरीज हैं और ऐसे मरीज भी जिनमें कोविड के बाद अस्थमा, सीओपीडी (क्रोनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज) और दूसरे श्वसन विकार विकसित हो गए. वे कहते हैं, ''सांस लेने में गड़बड़ी से न केवल आपकी रोजमर्रा की गतिविधियों पर बल्कि लंबे वक्त में कुल सेहत और भले-चंगे होने पर भी असर पड़ता है.''
भारत कैसे तैयारी कर रहा है?
भारत भी बाकी दुनिया की तरह रोग एक्स के लिए कमर कस रहा है. एम्स के पूर्व प्रमुख और पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. रणदीप गुलेरिया कहते हैं, ''भारत की छोटी से छोटी लैब को भी आरटी-पीसीआर टेस्टिंग सुविधा में बदल दिया गया था. प्रयोगशालाओं, बिस्तरों, दवाइयों, जीवनरक्षक उपकरणों, टीकों और जन जागरूकता के बारे में कोविड ने हमें जो सिखाया, उसे बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए क्योंकि भविष्य में हमें उनकी जरूरत पड़ेगी.''
केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव सुधांश पंत ने 17 अक्तूबर को बताया कि जूनोटिक रोगों की पहचान के लिए देश को और ज्यादा ज्ञान व कौशल की सख्त जरूरत है. वे कहते हैं, ''बीते 30 साल में लोगों को प्रभावित करने वाली नई उभरती संक्रामक बीमारियों में 75 फीसद का स्वरूप जूनोटिक है.'' भारत में न केवल विविध तरह के वन्यजीव हैं बल्कि दुनिया में पशुधन की आबादी और जनसंख्या घनत्व भी सबसे ज्यादा है, जिससे पशु-मानव संपर्क और जूनोसिस का जोखिम बढ़ जाता है.
स्वास्थ्य के इस नए उभरते खतरे को देखते हुए सरकार ने 'एक स्वास्थ्य' नजरिया अपनाया है. राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) के साथ शुरू की गई इस पहल का मकसद जूनोटिक बीमारियों के लिए महामारी की तैयारियों में सुधार लाना है. उनके पहले कदमों में एक बायोटेक्नोलॉजी विभाग के तहत कार्यरत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी (एनआइएबी) और बेंगलूरू स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स ऐंड सोसाइटी के बीच जानवरों में संक्रामक रोगों की पहचान, निगरानी और प्रबंधन के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान सहयोग स्थापित करना है.
अनुसंधानों से यह भी संकेत मिलता है कि टीकों की तैयारी कितनी अहम है. मेटाबायोटा की मॉडलिंग से पता चलता है कि अगर पैथोजन की खोज के 100 दिनों के भीतर टीका लाया जा सके तो अगले दशक में कोविड-19 जितनी जानलेवा बीमारी की संभावना 27.5 फीसद से घटकर 8.1 फीसद पर आ जाएगी. कोविड के मामले में पहली वैक्सीन को अधिकृत करने में जेनेटिक सीक्वेंसिंग जारी होने के बाद 326 दिन लगे. दुनिया भर में कोएलिएशन फॉर एपिडेमिक प्रिपेयर्डनेस इनोवेशंस (सीईपीआइ) सरीखे समूह ऐसी पहल लेकर आ रहे हैं जिनसे 3.5 अरब डॉलर (29,134 करोड़ रु.) की योजना के तहत महामारी की आशंका से परिपूर्ण वायरस के उभरने के 100 दिनों में वैक्सीन लाई जा सके.
भारत में फार्मास्यूटिकल विभाग ग्लोबल वैक्सीन रिसर्च कोलैबरेटिव या वैश्विक टीका अनुसंधान सहयोग की खातिर जी20 देशों और कुछेक विशेष आमंत्रित देशों के हितधारकों को लाने के लिए प्रोग्राम फॉर एप्रोप्रिएट टेक्नोलॉजी इन हेल्थ (पीएटीएच) और सीईपीआइ के साथ मिलकर काम कर रहा है.
बीते साल हुए जी20 शिखर सम्मेलन में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनुसख मंडाविया ने जल्द से जल्द ऐसे सहयोग की जरूरत पर जोर दिया. उन्होंने कहा, ''भारत सरकार ने उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए वैक्सीन मैन्यूफैक्चरर्स को बढ़ावा देने की खातिर वित्तीय प्रोत्साहन लाभ दिए और नियामकीय प्रक्रियाओं को सरल बनाया है. उसने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और दूसरी स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं के मौजूदा बुनियादी ढांचे का लाभ उठाकर ग्रामीण क्षेत्रों में वैक्सीन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के कदम भी उठाए हैं.''
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि जूनोसिस के प्रकोप के जोखिम को कम से कम करने के लिए यह भी जरूरी है कि हम पशुओं के साथ अपने रिश्ते पर नए सिरे से विचार करें. डॉ. मिश्रा कहते हैं, ''इनसान दूसरी प्रजातियों से आने वाले पैथोजन के इतना करीब पहले कभी नहीं था.'' खेती के तरीकों में सुधार, जलवायु परिवर्तन की पहलों के प्रति प्रतिबद्धता, जंगलों की कटाई और जंगली जानवरों से संपर्क में कमी, यह सब करने से रोग एक्स के महज कागज पर वायरस बने रहने—और हकीकत में तब्दील न होने—की संभावना बढ़ जाएगी.
जूनोटिक वायरसों के लक्षण

बीते तीन दशकों में 30 से ज्यादा नए मानव पैथोजन पाए गए, जिनमें से 75 फीसद जानवरों से निकले. डब्ल्यूएचओ के अनुसार, ये निगरानी सूची में हैं. इनमें से किसी का गारंटीशुदा इलाज नहीं है, और केवल कुछ की रोकथाम के लिए टीके हैं:
कोविड-19: यह श्वसन बीमारी अब तक दुनिया भर में लगभग 70 लाख जानें ले चुकी है
क्रीमियाई-कांगो हेमरेजिक या रक्तस्रावी बुखार: यह टिक-जनित वायरस तीव्र और जानलेवा रक्तस्रावी बुखार पैदा करता है. इस रोग से मृत्यु दर (सीएफआर) 10-40% है
इबोला वायरस रोग और मारबर्ग वायरस रोग: दोनों बीमारियां एक ही परिवार के वायरसों से उत्पन्न होती हैं और संक्रमित लोगों में रक्तस्रावी बुखार पैदा करती हैं. दोनों की सीएफआर 24% से 90% के बीच हैं
लासा बुखार: सामान्य अफ्रीकी चूहों से फैलने वाला यह बुखार तीव्र वायरल इन्फेक्शन होता है, जिसमें 1-4 हफ्ते तक तेज बुखार रहता है. इसकी सीएफआर फिलहाल 17% के आसपास है
मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (एमईआरएस) और एसएआरएस या सार्स: दोनों वायरस एक ही परिवार से हैं और तीव्र श्वसन रोग उत्पन्न करते हैं. एमईआरएस की सीएफआर 35% से 40% के बीच है जबकि सार्स के लिए यह करीब 10-13% है
निपाह और हेनिपावायरस रोग: सूअरों और चमगादड़ों के जरिए फैलने वाली ये बीमारियां इनसानों में एनसेफलाइटिस (दिमागी सूजन) और श्वसन सक्रमण पैदा करती हैं. जिन लोगों को निपाह एनसेफलाइटिस होता है, उनकी सीएफआर 61% जितनी ज्यादा है
रिफ्ट वैली बुखार: मोटे तौर पर मच्छर के काटने से होने वाले इस बुखार से इनसानों में फ्लू सरीखे लक्षण और तेज बुखार होता है. प्रकोप वाले इलाकों में सीएफआर 30% के आसपास रही है
जीका वायरस: एडीस मच्छर इसके रोगवाहक हैं. यौन संपर्क, खून चढ़ाने, अंग प्रत्यारोपण या गर्भावस्था में मां से भ्रूण तक जीका वायरस पहुंचता है. यह बहुत घातक तो नहीं है लेकिन गर्भवती महिला के लिए जोखिम है क्योंकि पल रहे बच्चे में तंत्रिका संबंधी विकार उत्पन्न कर सकता है.