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प्रधान संपादक की कलम से

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2023 के विधानसभा चुनावों को अपने पर केंद्रित करने का जोखिम मोल लिया और क्षत्रपों के भरोसे छोड़ने के बजाए उन्होंने खुद अपना रथ आगे कर दिया

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2024 लक्ष्य के करीब भाजपा
अपडेटेड 15 दिसंबर , 2023

-अरुण पुरी

हमें "सेमी-फाइनल" से दोटूक जवाब मिल गया. नरेंद्र मोदी का कारवां पहले की तरह परचम लहराता आगे बढ़ रहा है. हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में जीत इतनी एकतरफा थी कि उसके मुश्किल होने का एहसास भी भूल गए. जीत अपने पैमाने में और जिस तरह ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर तक तरकीब से बुनी गई, वह अपने आप में एक बड़ी कहानी है. विवाद बस इस पर है कि इन विधानसभा चुनावों के आधार पर 2024 के आम चुनाव की कितनी भविष्यवाणी की जा सकती है. आम समझ यही कि एक चुनाव के नतीजे अपने आप दूसरे के नतीजों में नहीं बदलते और न ही कोई गारंटी होते हैं. चेतावनी 2018 में मिली, जब कांग्रेस राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जीतने के बाद भी 2019 में हार के जख्म सहला रही थी. क्या वह अब भी मौजूं है? बिल्कुल उस तरह तो नहीं. राजनीति में जोश और रफ्तार की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. खुद कांग्रेस को सांत्वना पुरस्कार दक्षिण में तेलंगाना की नई जिंदगी देने वाली जीत में मिला. उत्तर में भाजपा की जीत में भी ऊर्जा और उत्साह का वही उछाल और वही एक्स-फैक्टर है, जो आम समझ से आगे जाता है. 

प्रधानमंत्री ने इन चुनावों को अपने पर केंद्रित करने का जोखिम मोल लिया. क्षत्रपों के भरोसे छोड़ने के बजाए उन्होंने खुद अपना रथ आगे कर दिया. भाजपा की कमान-और-नियंत्रण शैली के विपरीत कांग्रेस अपनी पुरानी परंपरा से हटकर क्षत्रपों को तकरीबन पूरी छूट दे दी. यह उदारता से ज्यादा मजबूरी थी—कमजोर आलाकमान बिगडै़ल क्षेत्रीय सामंतों के आगे खड़ा नहीं हो सका. इस तरह उत्तर में अपने को मोदी के प्रमुख चैलेंजर के तौर पर पेश करने की उसकी महत्वाकांक्षा चूर-चूर हो गई. इन तीन राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें हैं, जो उन 186 सीटों की करीब एक-तिहाई हैं जहां कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला होगा. यहां प्रतिद्वंद्वी के बेमजा स्ट्राइक रेट को बेनकाब करके भाजपा ने विपक्ष की 2024 की मुख्य रणनीति का फन कुचल दिया.

यह तब हुआ जब मोदी खुद भूपेश बघेल, अशोक गहलोत और कमलनाथ सरीखों के खिलाफ तनकर खड़े हो गए. यह दिलेर रणनीति थी और इसमें जोखिम भी निहित थे. यही नहीं, केंद्र के खिलाफ विपक्ष की तरफ से उठाए जा रहे कई मुद्दों से सीधे टकराना और उनकी दिशा मोड़ना ज्यादा बड़े मैदान में उनकी धार भोथरी करने में मददगार साबित हुआ. ओबीसी वोट जिस भारी तादाद में भाजपा के पक्ष में गए, उसके मद्देनजर उन्होंने जाति जनगणना के मुद्दे को बेअसर कर दिया, जो 'इंडिया' गठबंधन का तुरुप का पत्ता माना जा रहा था. यह खुद मोदी पर मिनी जनमत संग्रह की तरह लगता है. उनके लिए तीसरा कार्यकाल अब पहले से ज्यादा संभव दिखता है, जो नेहरू के बाद भारत में नहीं देखा गया और दुनिया में भी विरले ही देखने को मिला. 

भाजपा ने जोश और खुशी से लबालब असर पैदा करने और तमाम पुर्जों को जोड़कर विशाल शक्ति पैदा करने के लिए बहुत छोटे-छोटे ब्योरों को साधने और संजोने में महारत हासिल कर ली है. इस हफ्ते हमारी मुख्य आवरण कथा में ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा ने डिप्टी एडिटर अनिलेश एस. महाजन के साथ इसकी पड़ताल की है कि अपनी उपलब्धियों से संतोष करने के बजाए भाजपा इसे कैसे आगे ले जाने का मंसूबा बना रही है, किस तरह 2024 की रणनीति बना रही है, खामियों को दूर कर रही है, और अधूरे कामों को पूरा करने के लिए क्षेत्रीय और जाति गठबंधन का तानाबाना बुन रही है.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना से भोपाल/रायपुर में सीनियर एसोसिएट एडिटर राहुल नरोन्हा, वरिष्ठ विशेष संवाददाता हिमांशु शेखर, जयपुर में डिप्टी एडिटर रोहित परिहार, और हैदराबाद में सीनियर डिप्टी एडिटर अमरनाथ के. मेनन की कहानियां जमीनी तस्वीर सामने रख रही हैं. एग्जीक्यूटिव एडिटर कौशिक डेका मिजोरम में ललदुहोमा की सांचा तोड़ने वाली फतह के अलावा कांग्रेस की हालत का जायजा ले रहे हैं. खासी सजा पाकर अब वह 'इंडिया' ब्लॉक के साथ फिर बातचीत कर रही है और उन नाराज सहयोगी दलों को समझा-बुझाकर शांत कर रही है, जो इन विधानसभा चुनावों में उसके आचरण और प्रदर्शन से खुश नहीं हैं.

आवरण कथा को सहारा दिया है एक्सिस माइ-इंडिया की टीम के विस्तृत और आकर्षक आंकड़ों ने. भाजपा प्रभावी वोट हिस्सेदारी हासिल कर पाई—मध्य प्रदेश में सचमुच मोदी की शैली में 48.55 फीसद, छत्तीसगढ़ में जबरदस्त 46.27 फीसद और राजस्थान में 41.7 फीसद, जहां 'मोदी-प्रथम' रणनीति कहीं ज्यादा जोखिम भरी थी. मगर दुख की इस घड़ी में कांग्रेस इससे तसल्ली पा रही है कि सीट हिस्सेदारी रसातल में जाने के बावजूद वोट हिस्सेदारी पर उसकी पकड़ बनी हुई है. मध्य प्रदेश में वह 2018 के 40.89 फीसद के मुकाबले 40.40 फीसद पर मजबूती से टिकी है. छत्तीसगढ़ में उसे 42.23 फीसद (2018 में 43.04 फीसद) वोट मिले, जबकि राजस्थान में उसने (2018 के 39.3 फीसद से) सुधार करते हुए 39.5 फीसद वोट हासिल किए. 

इसके भीतर छिपे पैटर्नों की चीर-फाड़ करें तो अहम तथ्य हाथ लगते हैं—ओबीसी वोट क्यों अहम थे और आर्थिक पेशकशों के जरिये बने दायरे किस तरह सामाजिक पहचानों पर हावी हो सकते हैं. पहली बात यह कि मूल क्षेत्र में ब्रांड मोदी की चमक रत्ती भर फीकी नहीं पड़ी है. ठेठ शहरी, शिक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त जातियां मजबूती से उसके साथ हैं, तो वह नए-नवेले क्षेत्रों में भी अपनी चमक फैला रहा है. चौहान की लाडली बहना योजना की बदौलत भाजपा के पक्ष में महिलाओं के वोटों में 7 फीसद अंकों की उछाल को ही देखिए.

भाजपा बड़ी जीत इसलिए हासिल कर सकी क्योंकि उसने पुराने वफादार समुदायों के बीच वोट मजबूत किया, साथ ही पुराने कांग्रेस समर्थक समुदायों के वोट तोड़े भी. मसलन, मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 32 फीसद के मुकाबले भाजपा ने 57 फीसद ओबीसी वोट, सामान्य श्रेणी के 59 फीसद वोट (कांग्रेस 31 फीसद) और ब्राह्मणों के 60 फीसद वोट (कांग्रेस 29 फीसद) हासिल किए. भाजपा की ओर झुके वोटरों में वोट हिस्सेदारी में फर्क 30 फीसद अंक का है. लेकिन कांग्रेस की ओर झुके समुदायों में स्पर्धा कांटे की है. दलितों में फर्क सिर्फ 2 फीसद अंकों का है (कांग्रेस 44 फीसद, भाजपा 42 फीसद) और आदिवासियों में कांग्रेस की बढ़त मामूली 1 फीसद अंक (45 फीसद के मुकाबले भाजपा के 44 फीसद). इसी तरह के समीकरण दूसरे दो हिंदी पट्टी के राज्यों में भी हैं.

कांग्रेस फिर लटका, उदास चेहरा लिए लौट आई है. छत्तीसगढ़ को गंवाने में तो उसने जरूर अपने पैर में कुल्हाड़ी मारी होगी, जो सबसे आसान मालूम देता था. अब वह तीन राज्यों की सत्ता में है. इसमें धन से भरपूर तेलंगाना का आना खुशियां लेकर आएगा. जाहिर है, अच्छी योजना, अच्छे नैरेटिव और रेवंत रेड्डी सरीखा मजबूत चेहरा केसीआर सरीखे अजेय को भी हरा सकता है. 

मगर सचमुच अजेय मौजूदगी लुटियंस दिल्ली के गलियारों में मंडरा रही है. और वह अपनी उपलब्धियों पर मिनट भर नहीं ठहरती. विपक्ष को धराशायी करके अब वह 2024 के आम चुनाव में देश भर में अपने पदचिह्न स्थापित करने के लिए तैयार है.

- अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)

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