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आखिर क्यों खिसक रहे हैं पहाड़? क्या बनने वाली सुरंगें और सड़कें हैं इसकी वजह

इस साल उत्तराखंड में हुए भूस्खलनों से 12,000 करोड़ रुपए की चार धाम परियोजना पर भारी सवालिया निशान लगे. क्या भारत पहाड़ों पर होने वाले असर को कम से कम करते हुए बुनियादी ढांचे को महफूज रख सकता है

ऊबड़-खाबड़ रास्ता रुदप्रयाग में 25 अगस्त को सड़क धंसने के बाद चार धाम राष्ट्रीय राजमार्ग
रुदप्रयाग में 25 अगस्त को सड़क धंसने के बाद चार धाम राष्ट्रीय राजमार्ग-16:9
अपडेटेड 29 नवंबर , 2023

उत्तराखंड में गंगोत्री-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक बन रही सुरंग में काम कर रहे 40 श्रमिकों के लिए यह दीवाली काली साबित हुई. 12 नवंबर को सुबह 5.30 बजे जब बाकी भारत रोशनी का त्योहार मनाने के लिए जग रहा था, बन रही 4.5 किलोमीटर लंबी सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग का 100 मीटर का हिस्सा अचानक ढह गया. भूस्खलन के बाद छत ढह गई और टनों ढीली मिट्टी तथा गिरे हुए मलबे ने सुरंग के मुहाने को बंद कर दिया, जिससे श्रमिक अंदर ही फंस गए.

नेशनल हाइवेज ऐंड इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (NHIDCL) और उत्तराखंड सरकार ने बचाव कार्य के लिए लोगों और मशीनरी को भेजा, लेकिन अगले 48 घंटों तक स्थिति ऐसी ही बनी रही. उत्तराखंड आपदा प्रबंधन के सचिव डॉ. रंजीन सिन्हा ने इंडिया टुडे को बताया, ''बचाव दल को सावधान रहना पड़ा, क्योंकि इतनी भारी मशीनरी के साथ साइट पर पहुंचना और ढीली मिट्टी पर इसे तैनात करना भी जोखिम भरा था. यह जल्दबाजी में नहीं किया जा सकता, वरना मशीनें ढह जातीं.''

विडंबना कि धरासू को यमुनोत्री से जोड़ने वाली 853 करोड़ रुपए की सुरंग, जो विवादास्पद चार धाम राजमार्ग विकास परियोजना का हिस्सा है, सड़क का इस्तेमाल करने वालों को ऐसे भूस्खलन से बचाने के लिए बनाई जा रही है. यहां तक कि हादसे के एक दिन बाद, जब बचाव कार्य जारी था, केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय (MoRTH) ने एक बयान में कहा कि "एक बार बन जाने के बाद, यह सुरंग...हर मौसम में कनेक्टिविटी देगी और बर्फ से प्रभावित 25.6 किमी रास्ते को घटाकर...4.5 किमी कर देगी, जिसके बाद यात्रा का समय फिलहाल लगने वाले 50 मिनट के बजाए पांच मिनट तक कम हो जाएगा."

पिछले कुछ साल से चार धाम के 'हर मौसम के अनुकूल' राजमार्गों को लेकर ऐसे ही हालात बने हुए हैं. उत्तराखंड में 12,000 करोड़ रुपए की लागत से गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ को जोड़ने वाले 825 किमी लंबे राजमार्गों को चौड़ा करने की परियोजना इस साल लगातार विवाद के केंद्र में रही. मॉनसून की बारिश में राज्य ने करीब हजार बड़े-छोटे भूस्खलन झेले. राजमार्गों सहित करीब 270 किमी सड़कें कई-कई दिनों तक बंद रहीं. दरारों के दोनों ओर गाड़ियों की लंबी कतारों का नजारा आम बात थी. चार धाम को जाने वाले राजमार्ग कई बार बाधित हुए और हजारों तीर्थयात्री फंसे रहे.

असल में, साल दर साल की यही कहानी है. इस पहाड़ी राज्य की एक बदतरीन आपदा में करीब 6,000 लोगों के मारे जाने के एक दशक बाद यहां की जिंदगी फिर भूस्खलनों और सैलाबों की चपेट में है. गंगा और हिमालय के संरक्षण के लिए काम कर रहे नागरिकों के समूह गंगा आह्वान मूवमेंट के संयोजक और चार धाम राजमार्ग विकास परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नियुक्त उच्चाधिकार समिति के पूर्व सदस्य हेमंत ध्यानी कहते हैं, ''कई-कई दिनों तक गांवों में सामान नहीं पहुंचा. कुकिंग गैस सिलिंडर के लिए लोग 10,000 रुपए दे रहे थे.'' 

सरकार के लिए पहाड़ी राज्यों में प्राकृतिक आपदाओं की लागत बढ़ रही है. पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में बारिश ने दो महीने पहले कहर बरपाया, जहां सरकार का कहना है कि सड़कों के बुनियादी ढांचे को ही 3,000 करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचा, जबकि कुल नुकसान 8,000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा था.

उत्तराखंड में उत्तरकाशी के रहने वाले केशर सिंह पंवार कहते हैं, "ये कच्ची मिट्टी के पहाड़ हैं. सड़कों को चौड़ा करने के वास्ते वे पहाड़ काटने के लिए भारी-भरकम मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं और इसी से आधार कमजोर हो रहा है. भारी बारिश होते ही मिट्टी नीचे खिसकने और धसकने लगती है." पंवार का मकान 2013 की अचानक आई बाढ़ में नष्ट हो गया था और वे राष्ट्रीय हरित पंचाट में चार धाम परियोजना को रोकने की याचिका लगाने वालों में थे. मामला अंतत: सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जिसने 2021 में कई हिदायतों के साथ सशर्त मंजूरी दी. 

पारिस्थितिकी वैज्ञानिक और उत्तराखंड स्थित हिमालयी पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन (HESCO) के संस्थापक अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि पहाड़ी सड़कें पहले प्राकृतिक आपदाओं से अछूती थीं. लेकिन अब ये घटनाएं ज्यादा होने लगी हैं. इसका वास्ता सड़क बनाने के तरीके से है. हमारी सड़क बनाने वाली एजेंसियों को दूसरे देशों से सीखने की जरूरत है."

दरकते पहाड़

चार धाम परियोजना ने भूस्खलन संभावित हिस्सों से बचने के लिए दो सुरंगों की योजना बनाई है, उनमें से एक 4.5 किमी लंबा सिल्क्यारा-बारकोट रास्ता है जहां गुफा ढही. सुप्रीम कोर्ट में पेश अंतिम रिपोर्ट में उच्चाधिकार समिति ने भी बेहद अहम संवेदनशील पट्टियों में ज्यादा सुरंगें बनाने की सिफारिश की. केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी कहते हैं, ''सुरंगों की लागत सड़कों की लागत से कई गुना ज्यादा सैकड़ों करोड़ रुपए तक जा सकती है. देश हर जगह उनका खर्च नहीं उठा सकता.'' भारत में राजमार्ग इंजीनियरों की शीर्ष संस्था इंडियन रोड कांग्रेस के पास भूस्खलन की आशंका वाले इलाकों में मौसम के अनुकूल लचीली सड़कें बनाने के लिए एक नियमावली है. इसके बावजूद विशेषज्ञ जमीन पर कई सारी गलतियां होते पाते हैं. केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान (CRRI) में जियोटेक्निकल इंजीनियरिंग के प्रमुख अनिल सिन्हा कहते हैं, ''सड़क बनाने के लिए पहाड़ी काटने का एंगल मिट्टी में 30 से 45 डिग्री, नरम चट्टान ढलानों में 75 से 80 डिग्री और कठोर चट्टान ढलानों में 80 से 90 डिग्री के बीच होना चाहिए. इससे ज्यादा काटने पर या अनियंत्रित गिट्टी अस्थिर ढलान पैदा करती है.''

चंबा सुरंग

CRRI ने हिमालयी इलाकों के समस्या से जूझ रहे इलाकों के ऑडिट में पहाड़ी सड़कों के ढहने के पीछे पर्याप्त जल निकासी न होने सरीखे कई वजहों की ओर इशारा किया. CRRI की एक रिपोर्ट कहती है, ''पानी की मौजूदगी की वजह से मिट्टी के खनिजों से भरपूर चट्टानें संतृप्त हो जाती हैं और कमजोर होकर मौसम के लिहाज से ज्यादा संवेदनशील भी हो जाती हैं. इसके अलावा उत्तरपूर्व की एक रिपोर्ट कहती है, ''सतह से पानी का रिसाव रोकने के लिए पेड़ों का आवरण काफी जरूरी है...देखा गया है कि मिट्टी और निर्माण तथा टूट-फूट का मलबा ढलान वाली जगहों पर फेंक दिया जाता है, जो ढलानों पर पेड़ पौधे नहीं उगने देता है. 

बाहर की तरफ नजर

हर साल नुकसान बढ़ने और स्थायी समाधान का शोर तेज होने के साथ सरकार ने बाहर से मदद लेने का फैसला किया. मंत्री नितिन गडकरी ने इंडिया टुडे से कहा, ''स्विट्जरलैंड और नॉर्वे सरीखे देशों ने पहाड़ों में नए-नवेले तरीकों से जलवायु के हिसाब से सड़कें बनाने पर काम किया है. हम उनकी इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी के बारे में पता लगा रहे हैं.'' गडकरी ने हाल में उन इंजीनियरिंग समाधानों को दिखाने के लिए विशेषज्ञों को बुलाया था, जो उन्हें स्विट्जरलैंड में कामयाब रहे और हिमालय के पहाड़ों में दोहराए जा सकते हैं. वे कहते हैं, ''इस (भूस्खलनों और उनके होने के तरीकों के अध्ययन) पर भारत में पर्याप्त काम नहीं हुआ. इस समस्या पर काम करने के लिए हम सड़क निर्माण संगठनों में अलग विभाग बना रहे हैं.'' मंत्री कहते हैं कि राजमार्गों पर दुर्घटना की आशंका वाले 'ब्लैक स्पॉट' की तरह देशभर के सभी पहाड़ों के लिए भूस्खलन की आशंका वाली जगहों का नक्शा बनाया जाएगा.

बर्न यूनिवर्सिटी ऑफ एप्लाइड साइंसेज में रिसर्च ऐंड कंसल्टेंसी प्रमुख प्रो. लुक डोरेन कहते हैं, ''स्विट्जरलैंड सभी राष्ट्रीय सड़कों का देशव्यापी विस्तृत खतरा और जोखिम आकलन करने में इनोवेटिव रहा है. यह आकलन खतरे के राष्ट्रीय हॉटस्पॉट को परिभाषित करने और बचने के उपायों में निवेश किए जा सकने वाले अधिकतम बजट की गणना करने का आधार है, ताकि टूट-फूट तथा उससे हुए नुकसान के बीच संतुलन रखा जा सके.'' 1980 के दशक से स्विस सड़कों पर प्राकृतिक खतरों की वजह से जाहिर तौर पर महज छह मोटर सवारों की मौत हुई. सबसे ताजा घटना 2006 में हुई, जब चट्टान गिरने से दो लोग मारे गए थे.

गडकरी के सामने प्रजेंटेशन देने वाली एक स्विस फर्म ने आल्प्स पर्वतमाला में आजमाई गई टेक्नोलॉजी को दिखाया. कंपनी के एक अधिकारी कहते हैं, ''हमें लगता है कि आल्प्स इस मामले में हिमालय की तरह है.'' भूस्खलनों से दो तरह की सुरक्षा के सुझाव दिए गए: सक्रिय और निष्क्रिय. सक्रिय सुरक्षा में पहाड़ी ढलानों को अस्थिर होने से रोकने के लिए उन पर इस्पात के तारों का जाल बिछाया जाता है. निष्क्रिय प्रणालियां सतह के नीचे बुनियादी ढांचे पर पेचीदा जाल या भौतिक आवरण की तरह होती हैं. माना जाता है कि इन जालों में 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से गिरते 25 टन जितने विशाल पत्थरों का वजन सहने की ताकत होती है. वही अधिकारी कहते हैं, ''सक्रिय तरीका जरा महंगा है, इसलिए यह बेहद नाजुक इलाकों के लिए ही ठीक है. निष्क्रिय तरीके का इस्तेमाल वहां किया जाता है जहां पूरे पहाड़ को स्थिर रखना वित्तीय या तकनीकी तौर पर नामुमकिन है.'' उन्होंने पहाड़ी ढलानों पर लगाए गए इलेक्ट्रॉनिक सेंसरों जैसी स्विस टेक्नोलॉजी का भी प्रदर्शन किया, जो मोटर सवारों को भूस्खलनों की पूर्व चेतावनी देती है.

भारतीय तरीका

बेशक एक और तरीका है—सुरंगें. बीते नौ साल में नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने पहाड़ों में आने-जाने वालों के लिए सभी मौसमों में कारगर छोटे विकल्प के तौर पर विशाल सुरंगों की घोषणा और निर्माण करके सुर्खियां बटोरीं. खतरनाक रोहतांग दर्रे के विकल्प के रूप में हिमाचल प्रदेश में अटल सुरंग इसकी एक मिसाल है. लेकिन वे भी पहाड़ी अस्थिरता में योगदान करते हैं, चाहे बोरिंग मशीनें कितनी भी अच्छी क्यों न हों. वे कई गुना अधिक महंगी भी हैं.

चार धाम परियोजना की बनावट—जिसके तहत लंबी अदालती बहस के बाद राजमार्गों को 10 मीटर और पक्के फुटपाथ वाले डबल लेन तक चौड़ा किया जा रहा है—पर नजर डालने से पता चलता है कि परियोजना के इंजीनियरों ने भूस्खलनों और दूसरी आपदाओं से निपटने के लिए कई सारे उपायों का ध्यान रखा था. इसमें सुरक्षा के लिए इस्पात के तारों की जाली और ढलानों के 'जियो-सिंथेटिक' उपचार सरीखी खूबियां थीं. इसमें ढलानों को मजबूत करने, या मिट्टी के क्षरण पर नियंत्रण के लिए किनारियां बनाने, या 'पोर वॉटर प्रेशर' को कम करने के वास्ते कृत्रिम जलनिकासी बनाने के लिए पोलीप्रोपायलीन और ऐसी ही सिंथेटिक सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय अब चार धाम परियोजना की पट्टियों के किनारे 'शमन के उपायों' पर काम कर रहा है. इन उपायों के लिए NHIDCL की ओर से बनाई जा रही आखिरी 100 किमी की पट्टी पर करीब 32 जगहों की पहचान की जा रही है. समाधान सस्ता नहीं आता. अधिकारियों का कहना है कि शमन के उपाय पर करीब 500 करोड़ रुपए की लागत आ सकती है.

मगर विशेषज्ञों का कहना है कि पहाड़ी सड़कों को मौसम के अनुरूप लचीला बनाने में सबसे अहम कारक समय है. यह हिमालय सरीखी युवा और 'सक्रिय' पर्वतमाला में खास तौर पर जरूरी है. आइआइटी रुड़की में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख प्रो. प्रवीण कुमार का कहना है कि अतीत में पहाड़ियों का काटना और सड़कों के लिए सतह बिछाने से पहले सालभर उन्हें यूं ही पड़े रहने देना आम बात थी. वे कहते हैं, "मगर अब बहुत लंबा इंतजार करना गवारा नहीं किया जा सकता. समय के साथ लागत बढ़ जाती है, ठेकेदार को यह व्यवहार्य नहीं लगता, वगैरह. इसलिए संतुलन बनाने की जरूरत है."

आगे का रास्ता

उत्तराखंड के बाशिंदों के सिविल सोसाइटी समूह सिटिजंस फॉर ग्रीन दून के एक सदस्य (वे अपनी पहचान बताना नहीं चाहते) कहते हैं, "हम अपनी सभी अर्जियों में परियोजना के कारण पर्यावरण के जिस नुकसान की चेतावनी देते रहे थे, वह अब सच साबित हो रहा है." यह समूह उन याचिकाकर्ताओं में शामिल था जो 2018 में विशाल राजमार्ग विस्तार परियोजना को रोकने के लिए केंद्र सरकार को अदालत में ले गए थे. वे कहते हैं, "भूस्खलनों की वास्तविक संख्या सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज संख्या से ज्यादा है. विदेशी इंजीनियरिंग समाधानों की सारी चर्चा एक और हथकंडा भर है." सरकार ने अलबत्ता बार-बार इन आरोपों से इनकार किया, सुप्रीम कोर्ट में भी किया, कि यह सड़क परियोजना भूस्खलनों सरीखी प्राकृतिक आपदाओं के लिए जिम्मेदार है.

गंगा आह्वान के ध्यानी कहते हैं, "सुधार के लिए भूस्खलनों की आशंका वाली करीब 200 जगहों की पहचान की गई है. इसके अलावा माना के नजदीक भारत-चीन सीमा पर बनाई जा रही सामरिक सड़क जिस भागीरथी ईको सेंसिटिव जोन से होकर गुजरेगी, उसमें काटे जाने के लिए देवदार के 6,000 पेड़ चिह्नित किए गए हैं. तमाम वैज्ञानिक अध्ययन इस नतीजे पर पहुंचे कि इस जोन की पारिस्थितिकी को अस्थिर किया जाता है, तो न केवल उत्तराखंड बल्कि तमाम दूसरे हिमालयी इलाकों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा." वहीं, गडकरी का कहना है कि वे टिकाऊ समाधान खोजेंगे. वे कहते हैं, "पहाड़ों में सड़कें इसलिए बनाई जाती हैं क्योंकि वहां के लोग कनेक्टिविटी की मांग करते हैं. यह कठिन चुनौती है, पर हम इस पर काम कर रहे हैं." दोनों यानी तरक्की की मांग और पहाड़ों के नाजुक तथा दुर्लभ पर्यावरण के बीच संतुलन खोजना ही इस अफसाने की कुंजी होगी.

अभिषेक जी. दस्तीदार 

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