सबसे लंबे समय तक मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने पिछले कुछ वर्षों में एक यात्री के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बना ली है. 2018 में, विधानसभा चुनाव से एक साल पहले, दिग्विजय ने छह महीने चली नर्मदा परिक्रमा जैसी कठिन यात्रा की थी. उन्होंने पूर्व से पश्चिम तक नदी की परिक्रमा की और इस क्रम में राज्य के 100 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया था. कुछ महीने पहले वे राहुल गांधी की अगुआई वाली 4,000 किमी से भी ज्यादा लंबी भारत जोड़ो यात्रा का हिस्सा थे. अब, 2023 के चुनाव से पहले, उनके पुराने मित्र और प्रदेश कांग्रेस कमिटी (पीसीसी) अध्यक्ष कमलनाथ ने उन्हें एक यात्रा का कार्य सौंपा जिसका मार्ग भले ही सीधा न रहा हो, पर उद्देश्य सीधा और स्पष्ट है. तीन महीने से ज्यादा लंबी यात्रा के दौरान दिग्विजय को ऐसी लगभग 66 विधानसभा सीटों का दौरा करना है जहां पिछले कई चुनावों से पार्टी को जीत नहीं मिल रही. उन्होंने आगामी चुनावों में इन सीटों पर कांग्रेस की जीत का रोडमैप भी तैयार किया है.
वैसे उनका 10 साल का संन्यास और अभी राज्यसभा सदस्यता, ये सब इससे मेल नहीं खाता, लेकिन इस तरह के कठिन जमीनी काम के लिए वे सबसे उपयुक्त शख्स हैं. प्रदेश की उनकी स्थानीय समझ काफी गहरी है. उनका यह रिश्ता 1970 के दशक में नगरपालिका परिषद के अध्यक्ष से शुरू हुआ, और 1980 के दशक में मंत्री, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष तथा उसके बाद दो बार उनके मुख्यमंत्री रहने के दौरान गहरा होता गया. ऐसे में हैरानी नहीं कि उन्होंने यह नई चुनौती स्वीकार ली है और अनुभवी फील्ड कमांडर के रूप में उस परिदृश्य में वापस आ गए हैं जिनमें वे हर चीज से वाकिफ हैं. यह उन्हें बढ़त दिला सकती है.
दिग्विजय ने 17 फरवरी से 35 जिलों की अपनी यात्रा शुरू की थी और भोपाल उनका मुख्यालय है. इस दौरान उन्होंने हर वर्ग, समूह और खेमे के पार्टी नेताओं के साथ बातचीत की. उन्होंने बहुत साधारण फॉर्मेट रखा. पहले चरण में वे महिला कांग्रेस, यूथ कांग्रेस, स्टूडेंट यूनियन और सेवा दल जैसे अग्रिम मोर्चे के संगठनों के पदाधिकारियों से मिले. दूसरे चरण में उन्होंने त्रिस्तरीय स्थानीय निकायों के पार्टी नेताओं और ग्राम पंचायतों, जनपद और जिला पंचायतों के साथ ही दो अहम प्रशासनिक इकाइयों मंडल और सेक्टर के ऐसे पदाधिकारियों से मुलाकात की, जिनका कांग्रेस से जुड़ाव रहा है. दिग्विजय ने 15 जून को इस यात्रा की रिपोर्ट कमलनाथ को सौंपी जिसमें उन्होंने ऐसे दो प्रमुख मुद्दों को रेखांकित किया जो पार्टी को कमजोर कर रहे हैं: पहला, संगठन का अभाव और दूसरा आपसी फूट. मसलन, दिग्विजय जिन विधानसभा क्षेत्रों में गए, उनमें से ज्यादातर में उन्होंने पाया कि पार्टी के टिकट से वंचित गुस्साए नेता बगावत करके चुनाव में उतर जाते हैं और कांग्रेस के आधिकारिक प्रत्याशी की जीत में रोड़े अटका देते हैं.
दूसरी बड़ी समस्या जमीनी स्तर पर पार्टी की पकड़ में भारी कमी की थी. विदिशा के जिला कांग्रेस अध्यक्ष राकेश कटारे कहते हैं, ''किसी सीट का प्रतिनिधित्व करने वाला विधायक न होने से पार्टी का संगठन कमजोर पड़ने लगता है. इसके अलावा पार्टी वर्षों से सत्ता में भी नहीं है, जिससे कार्यकर्ताओं का आधार गिरा है. कई बार कार्यकर्ताओं को ऐसा लगने लगता है कि उनकी उपेक्षा हो रही है, इससे भी उनका मन टूटता है.'' कांग्रेस विदिशा लोकसभा सीट 1985 से लगातार हार रही है. उसी तरह, विदिशा जिले के दो विधानसभा क्षेत्रों कुरवाई और शमशाबाद पर भी कांग्रेस कई चुनावों से हारती आ रही है.
अपने दौरे की बैठकों के दौरान, कार्यकर्ताओं को संबोधित करने के बजाए, दिग्विजय अधिकांश समय दर्शकों के बीच कहीं बैठकर कार्यकर्ताओं की बातों को गंभीरता से सुनते और अपनी डायरी में कुछ लिखते रहे. उन्होंने बताया, ''एक आम समस्या यह थी कि कांग्रेस संगठन घिस चुका है. कैसे कम से कम समय में संगठन को फिर से खड़ा किया जा सकता है, इस पर मैंने कुछ सुझाव दिए हैं.'' कार्यकर्ताओं की एक और शिकायत उम्मीदवारों के चयन को लेकर थी कि पार्टी के बाहर से नेताओं को लाकर उन पर थोप दिया जाता है. दिग्विजय ने कहा, ''ये सभी अहम फीडबैक 66 सीटों को लेकर पीसीसी अध्यक्ष को सौंपी गई मेरी उस रिपोर्ट का हिस्सा हैं.'' इन सभी निर्वाचन क्षेत्रों में, दिग्विजय ने कार्यकर्ताओं को एकता की शपथ दिलाई और मतभेदों को दूर करने कहा. उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा, हमारे लिए पांच 'स' महत्वपूर्ण होंगे हैं—संपर्क, संवाद, समन्वय, सामंजस्य और सकारात्मकता.
दिग्विजय के दौरे से पार्टी के वरिष्ठ नेता उत्साहित हैं. पीसीसी के प्रतिनिधि और जावद के पूर्व जनपद पंचायत अध्यक्ष सत्य नारायण पाटीदार कहते हैं, ''अन्य वरिष्ठ नेता कार्यकर्ताओं को निर्देश देते हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह जी ने उनसे उलट पार्टी कार्यकर्ताओं से उनकी प्रतिक्रिया मांगी. उन्होंने लगभग 1,000 लोगों से व्यक्तिगत मुलाकात की. एक छोटे कार्यकर्ता की बात जब एक वरिष्ठ नेता इतने ध्यान से सुनता है तो यह कार्यकर्ता के लिए बहुत बड़ी बात होती है.'' सूत्रों का कहना है कि पार्टी अब जमीनी स्तर के ऐसे मजबूत नेताओं की पहचान करने की कोशिश कर रही है जो सेक्टर और मंडल जैसी अहम मतदान इकाइयों में टीमों को जोड़ सकते हैं. पार्टी को लगता है कि इससे चुनावी संभावनाएं बेहतर हो सकती हैं.
वैसे, सियासी हलकों में कुछ लोग कमलनाथ की ओर से दिग्विजय को दिए गए 'असाइनमेंट' को एक बड़ी रणनीति का हिस्सा मानते हैं. भाजपा प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल कहते हैं, ''इन निर्वाचन क्षेत्रों को आवंटित करना दिखाता है कि कांग्रेस में आंतरिक झगड़ा बहुत बढ़ चुका है. अभी भी सबसे बड़ी संख्या में विधायकों की वफादारी दिग्विजय सिंह के प्रति है और इस दौरे के जरिए वे इन 66 सीटों पर अपने वफादारों को मैदान में उतारना चाहेंगे.'' वहीं कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि यह जिम्मेदारी दिग्विजय को इसलिए सौंपी गई क्योंकि दशकों के अपने सियासी अनुभव से वे ही ऐसी चुनौतियों का सामना करने में सबसे ज्यादा सक्षम हैं. वे कहते हैं, ''अक्सर ऐसा होता है कि कमलनाथ जी सबसे कठिन काम दिग्विजय सिंह जी को दे देते हैं, पर इसके पीछे एक सोची-समझी वजह होती है. पहले भी दिग्विजय सिंह जी ने कमलनाथ जी के कहने पर भोपाल लोकसभा का चुनाव लड़ा था. भोपाल कांग्रेस के लिए सबसे मुश्किल सीटों में है. दिग्विजय सिंह जी किसी भी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटते.''
बावजूद इसके अतीत के कुछ मसले भी हैं जिनसे पीछा छुड़ाना दिग्विजय के लिए आसान नहीं होगा. कमलनाथ ने कभी भी इसे खुलकर नहीं कहा, लेकिन दिग्विजय के करीबी लोगों का दावा है कि दिग्विजय की 10 साल की सरकार के खिलाफ भाजपा 2003 से ही भ्रष्टाचार और बिजली, सड़क और पानी जैसे बुनियादी मुद्दों की अनदेखी के आरोप लगाते हुए उन्हें 'मिस्टर बंटाधार' बुलाती रही है, इसलिए 2018 में चुनाव अभियान की कमान उन्हें सौंपने के बजाए पार्टी ने आंतरिक बगावत को संभालने का जिम्मा सौंपा था. प्रचार अभियान की जिम्मेदारी अपेक्षाकृत युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया को सौंपी गई थी.
सिंधिया की कहानी भी कम विस्फोटक नहीं है. ग्वालियर राजघराने के वंशज सिंधिया 2020 में, कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए और कमलनाथ की सरकार गिर गई. तबसे उनमें और दिग्विजय-कमलनाथ के बीच तीखी प्रतिद्वंद्विता है. इस सियासी परिदृश्य में नए खिलाड़ी दिग्विजय के बेटे जयवर्धन हैं, जो सिंधिया के गढ़ माने जाने वाले ग्वालियर-चंबल और मालवा बेल्ट के प्रभारी हैं. उन्हें हाल ही में उन 22 विधायकों में से दो को कांग्रेस में वापस लाने का श्रेय दिया गया, जो सिंधिया के साथ पार्टी छोड़कर चले गए थे.
राज्य में दिग्विजय का कद ऐसा है कि उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती. 2018 के राज्य चुनावों में, उन्हें कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवारों के खिलाफ पार्टी के बागियों को अपनी उम्मीदवारी वापस लेने के लिए राजी करने का बड़ा काम सौंपा गया था और वे उसमें काफी हद तक सफल रहे. उनकी नर्मदा यात्रा के भव्य समापन के अवसर पर सभी पार्टियों के लोगों की जैसी उपस्थिति थी, उसने भाजपा को चौंका दिया था. अगर 'दिग्गी' राजा अपने 'मिशन 66' में सफल होते हैं और भाजपा के गढ़ में सेंध लगा देते हैं, तो एक बार फिर यह साबित होगा कि वे अब भी प्रदेश के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक हैं.