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यानी अब मिलेगा उनको न्याय!

मुरादाबाद दंगों पर जस्टिस सक्सेना आयोग की रिपोर्ट को 40 साल बाद योगी सरकार विधानसभा में रखेगी. इस पर गर्म राजनीति के बीच पीड़ित अब भी न्याय की प्रतीक्षा में

वह ठौर: मुरादाबाद की मशहूर ईदगाह जहां 13 अगस्त, 1980 को ईद की नमाज के बाद दंगा भड़क उठा था
वह ठौर: मुरादाबाद की मशहूर ईदगाह जहां 13 अगस्त, 1980 को ईद की नमाज के बाद दंगा भड़क उठा था
अपडेटेड 9 जून , 2023

मुरादाबाद जिला कचहरी से दो किलोमीटर दूर, दिल्ली-रामपुर रोड के बगल, मोहल्ला गलशहीद गदर का गवाह रहा है. मुरादाबाद के नवाब मज्जू खां और उनके सैनिकों ने 1857 के गदर के दौरान अंग्रेजी पलटनों को नैनीताल तक खदेड़ दिया था. सरकारी खजाने पर कब्जा हो गया था. इसी जांबाजी के चलते बहादुर शाह जफर ने 8 जून, 1857 को मज्जू खां को मुरादाबाद का हाकिम घोषित किया था. कुछ समय बाद अंग्रेज वापस आए. मज्जू खां की सेना ने उनका मुकाबला किया पर अंग्रेजों की मजबूत सेना से पार न पा सके. ईदगाह के पास मौजूद एक कब्रिस्तान में मज्जू खां का सिर कलम करके इमली के पेड़ पर लटका दिया गया. इसके बाद से इस कब्रिस्तान के आसपास का इलाका गलशहीद के नाम से जाना जाने लगा. करीब सवा सौ साल बाद 1980 में मुरादाबाद का यही गलशहीद इलाका यूपी के बड़े दंगों में से एक का गवाह बना.

मुरादाबाद दंगों का जिक्र आते ही गलशहीद कोतवाली के पीछे रहने वाली साजिदा बेगम (75) बेचैन हो उठती हैं. कांपते हाथों से आंसू पोछते हुए वे 13 अगस्त, 1980 की उस मनहूस घड़ी को कोसती हैं जब पुलिस वालों के कहने पर उन्होंने घर का दरवाजा खोल दिया था. साजिदा बताती हैं, ''पुलिस वाले मेरे शौहर (सज्जान हुसैन), ससुर, देवर और नौकर को पकड़कर ले गए. मुझे यही बताते रहे वे लोग जेल में हैं लेकिन आज दिन तक उनका कोई पता नहीं चल पाया है.'' दंगे थमने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी साजिदा से मिलने आई थीं. उन्होने वित्तीय मदद की पेशकश भी की थी पर साजिदा ने साफ मना कर दिया. उस वक्त साजिदा की शादी को महज 13 साल हुए थे. बच्चे बहुत छोटे थे. पति की तलाश में वे दर-दर भटकीं लेकिन उनका कहीं कोई पता न चला. हालात ऐसे बने कि भीख मांगने तक की नौबत आ गई. घरों में झाड़ू-पोंछा करके उन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. इसी दौरान साजिदा अस्थमा जैसी गंभीर बीमारी की जकड़ में आ गईं. आंखों में जाला पड़ गया पर वे आज भी शौहर की राह तक रही हैं.

गलशहीद कोतवाली के सामने परचून की दुकान चलाने वाले मोहम्मद वसीम (58) दंगों के वक्त 15 साल के थे. वह मंजर याद करते हुए वसीम बताते हैं, ''मेरे वालिद हाजी अब्दुल हमीद और वालिदा जमीला खातून ईदगाह में नमाज पढ़कर रिक्शे से लौट रहे थे. घर से चंद कदम दूर ही रह गए थे कि गोलियां चलने लगीं. वालिदा को गोली लगी और थोड़ी देर बाद ही उनका इंतकाल हो गया.'' घर के आसपास आगजनी के मंजर के चलते बाहर निकलना मुश्किल था. वसीम के मुताबिक, उनकी वालिदा का शव तीन दिन तक घर में रखा रहा, उसके बाद पास के कब्रिस्तान में दफनाया गया. 

मुरादाबाद का गलशहीद मुहल्ला दंगों की झकझोर देने वाली दास्तानों से भरा पड़ा है. 1980 में स्वतंत्रता दिवस से दो दिन पहले 13 अगस्त को पूरा मुरादाबाद ईद के त्योहार के उल्लास में डूबने लगा था. शहर इमाम हकीम सैयद मासूम अली आजाद उस वक्त नायब इमाम थे और उनके बड़े भाई डॉ. कमाल फाहिम शहर इमाम थे. सुबह आठ बजे ईद की नमाज ईदगाह के मैदान में हुई थी. 50,000 से ज्यादा लोग जमा थे. आजाद वह मंजर याद करते हैं, ''नमाज के बाद दुआ के वक्त एक जानवर (सुअर) नमाजियों के बीच कहीं से घुस आया. इस पर भगदड़ मच गई. हम लोग कुछ समझ पाते कि पत्थरबाजी शुरू हो गई. भगदड़ और फायरिंग में कई बच्चे और बुजुर्ग मारे गए. मैं, मेरे भाई, एक राहगीर औरत और दो बच्चों ने पड़ोस के एक मकान में शरण ली.'' गलशहीद इलाके की स्थानीय मस्जिद के इमाम पुत्तन अली को गोली मारने के बाद मस्जिद जला दी गई. तभी से यह 'पुत्तन शहीद' मस्जिद के नाम से जानी गई.

दंगों की पृष्ठभूमि में गलशहीद मुहल्ले से सटी वाल्मीकि बस्ती के बीच विवाद का जिक्र भी स्थानीय लोग करते हैं. उस बस्ती के नंद राम (76) पर दंगे के दौरान एक दर्जन फर्जी मुकदमे लाद दिए गए थे जिन्हें बाद में हाइ कोर्ट ने खारिज कर दिया था. नंदराम बताते हैं, ''मार्च, 1980 में एक दलित लड़की के अपहरण के बाद से हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव चरम पर था. इसके बाद जुलाई, 1980 में एक दलित लड़के की बारात गलशहीद इलाके में निकलने के दौरान भी दोनो पक्षों में तनाव हो गया था.'' इसी तनाव के बीच जब ईदगाह में सुअर दिखाई पड़ा तो मुसलमानों ने सोचा कि यह वाल्मीकि बस्ती से जानबूझ कर छोड़ा गया है. इससे मुसलमान आक्रोशित हो गए. मौके पर मौजूद पुलिस फोर्स के साथ प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी) ने गुस्साए लोगों को रोकने की कोशि‍श की तो वे और उग्र हो गए. भीड़ ने अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (एडीएम) डी.पी. सिंह को खींच लिया. जब तक उन्हें छुड़ाया जाता, उनकी मौत हो चुकी थी. गलशहीद पुलिस चौकी आग के हवाले कर दी गई. इसके बाद पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू की.

मुरादाबाद दंगों के गवाह रहे और साहित्य से वास्ता रखने वाले अजय अनुपम बताते हैं, ''हालात इतने खराब हो गए कि सेना को बुलाना पड़ा. सितंबर में हालत थोड़ा सुधरी तो सेना हटने लगी. फिर भी नवंबर, 1980 तक छिटपुट हिंसा जारी रही थी.'' इस हिंसा में कुल 83 लोग मारे गए और 113 घायल हुए थे. मुरादाबाद दंगा 13 अगस्त, 1980 को भड़का था और दो दिन में हालात इतने बदतर हो गए थे कि 15 अगस्त, 1980 को स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लालकिले से भाषण की शुरुआत इन दंगों पर दुख जताकर की थी और दोषियों को सजा दिलवाने का ऐलान किया था.

प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री, कांग्रेस के विश्वनाथ प्रताप सिंह‍ ने दंगों की जांच के लिए इलाहाबाद हाइ कोर्ट के तत्कालीन न्यायमूर्ति एम.पी. सक्सेना की अध्यक्षता में आयोग गठित किया था, जिसने 20 नवंबर, 1983 को रिपोर्ट सरकार को सौंप दी. 40 साल तक किसी भी सरकार ने इस रिपोर्ट के आधार पर दंगे के दोषियों पर कार्रवाई और पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया. अचानक यह पिछले महीने 12 मई को उस वक्त चर्चा में आ गई जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में जस्टिस सक्सेना की रिपोर्ट को सदन में पेश करने का निर्णय लिया गया. विधानसभा के मॉनसून सत्र के दौरान मुरादाबाद दंगों से जुड़ी यह रिपोर्ट सदन में रखी जा सकती है. 

जानकारी के मुताबिक जस्टिस सक्सेना की रिपोर्ट में तत्कालीन कांग्रेस सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए गए हैं. इसके अलावा इसमें मुस्लिम लीग के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष मुरादाबाद के ही डॉ. शमीम अहमद खान की भूमिका पर भी उंगली उठाई गई है. जानकारी के मुताबिक खान ने 13 अगस्त, 1980 को ईद की नमाज के दौरान दूसरे संप्रदाय के लोगों को फंसाने के लिए सांप्रदायिक हिंसा फैलाई थी. मुरादाबाद के ही निवासी मुस्लिम लीग के राष्ट्रीय सचिव मौलाना कौसर हयात खान बताते हैं, ''दंगा पीड़ितों को सहायता पहुंचाने में मुस्लिम लीग की बड़ी भूमिका थी. हर वर्ष 13 अगस्त को मुस्लिम लीग की तरफ से सरकार को ज्ञापन देकर दंगे में मारे गए लोगों के परिजनों को न्याय दिलाने के साथ मुआवजे की भी मांग की जाती है.'' हयात के मुताबिक मुरादाबाद दंगा महज पुलिस के साथ झड़प का था. इसे दंगों का रूप अधिकारियों ने दिया. वे बताते हैं, ''मरने वालों की हत्या हुई थी. उनके परिजनों को आजतक कोई मुआवजा नहीं मिला. उनकी ओर से कोई मुकदमा तक नहीं लिखा.'' जानकारी के मुताबिक, रिपोर्ट में पीएसी की भूमिका को दंगे का दोषी नहीं माना गया है जबकि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों में उपजे असंतोष के मद्देनजर मुरादाबाद में पीएसी की तैनाती को बैन कर सीमा सुरक्षा बल को तैनात किया था.

रिपोर्ट पेश होने के 40 साल बाद इसे सदन में पेश करने के भाजपा सरकार के निर्णय की 'टाइमिंग' पर सवाल हो रहे हैं. मुरादाबाद के वकील आवेश खान बताते हैं, ''लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जांच रिपोर्ट को सामने लाकर मुसलमानों के बीच कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के विरोध को हवा देने की रणनीति तो है ही, भाजपा दंगा पीड़ित मुसलमानों की हमदर्द बनने की भी कोशि‍श कर रही है. वर्ना उसकी सरकार तो 2017 से यूपी में है.'' दरअसल मुरादाबाद मंडल पिछले कुछ समय से भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से दुरुह साबित हो रहा है (देखें बॉक्स). मुसलमान बहुल इस इलाके में पैठ बढ़ाने के लिए भाजपा ने 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद मुरादाबाद के भूपेंद्र चौधरी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया. मुरादाबाद मंडल के ही बिजनौर जिले के नगीना के हुर्रनगला गांव निवासी धर्मपाल सिंह को प्रदेश संगठन महामंत्री बनाकर 2024 के लोकसभा चुनाव में मुरादाबाद मंडल में भगवा खेमे की राह मजबूत करने की जुगत लगाई है. दंगों की रिपोर्ट सदन में रखने के पीछे भूपेंद्र चौधरी का ही दिमाग है. भाजपा सरकार क्या वास्तव में दंगा पीड़ितों को न्याय दिलाने की सोच रही है या रिपोर्ट फिर सियासत का निवाला बनेगी? देखते जाइए.

''जिस दंगे की रिपोर्ट पर सभी सियासी पार्टियां अब तक खामोश रहीं, उसे योगी आदित्यनाथ सामने लाने वाले हैं. मुरादाबाद दंगे के दोषि‍यों को बख्शा नहीं जाएगा.''
भूपेंद्र चौधरी, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष

अंतहीन इंतजार: साजिदा बेगम को आज भी अपने पति का इंतजार है जिन्हें मुरादाबाद दंगे भड़कने के बाद पुलिस ले गई थी

मुरादाबाद में गलशहीद कोतवाली के सामने परचून की दुकान चलाने वाले मो. वसीम की वालिदा पुलिस की गोलियों का शिकार हो गई थीं

''भाजपा सरकार यह दिखाना चाहती है कि कांग्रेस के जमाने में मुसलमानों पर कितनी ज्यादती और जुल्म हुआ था. लेकिन मुसलमानों को भाजपा की असलियत पता है.''
एस.टी. हसन, सपा सांसद, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल में सिकुड़ रहा कमल

 मुरादाबाद मंडल में पांच जिले हैं: मुरादाबाद, अमरोहा, बिजनौर, संभल और रामपुर; छह लोकसभा सीटें हैं: संभल, रामपुर, नगीना, अमरोहा, मुरादाबाद और बिजनौर; और 27 विधानसभा सीटें हैं.

 वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा इस मंडल की सभी लोकसभा सीटें हारी. 2022 के उपचुनाव में रामपुर सीट जीत मंडल की लोकसभा सीटों में उसने खाता खोला.

 वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को मंडल की 27 में से महज 11 सीटों पर विजय मिली. सपा ने 16 सीटें जीती थीं. रामपुर सदर और स्वार सीट पर उपचुनाव जीतने के बाद भगवा दल की सीटें 13 पर पहुंच गईं.

 मुरादाबाद जिले में कुल छह विधानसभा सीटें हैं. 2022 के चुनाव में भाजपा बमुश्कि‍ल मुरादाबाद नगर सीट जीत पाई. 2017 में उसे कांठ सीट भी मिली थी.

 जिले में 1989 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 1, 1991 में 7, 1993 में 8, 1996 में 8 सीटें जीती थीं. तब जिले में 12 विधानसभा सीटें थीं.

 2002 के विधानसभा चुनाव में मुरादाबाद मंडल में भाजपा ने 3 और 2007 में सिर्फ 01 सीट जीती थी ( तब अमरोहा मुरादाबाद जिले से काटकर नया जिला बनाया गया था और जिले में कुल 8 विधानसभा सीटें थीं).

 मुरादाबाद से कटकर संभल के नया जिला बनने के बाद 2012 के विधानसभा चुनाव में मुरादाबाद जिले में कुल छह सीटें रह गईं. इनमें महज 1 पर भाजपा को विजय मिली थी. सपा के चार विधायक जीते थे.

 अप्रैल 2022 में मुरादाबाद-बिजनौर स्थानीय प्राधिकारी निर्वाचन क्षेत्र सीट पर हुए विधान परिषद चुनाव में भाजपा के सत्यपाल सैनी जीते. 2016 में इस सीट पर सपा के परवेज अली जीतकर एमएलसी बने थे.

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