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प्रधान संपादक की कलम से

यह वित्त वर्ष 2022-23 के 89,000 करोड़ रु. के संशोधित अनुमान से 33 फीसद कम है. साफ है कि केंद्र बड़ी तादाद में निजी निवेश लाने और अपने पूंजीगत खर्च के साथ नौकरियों के सृजन पर दांव लगा रहा है, ताकि मनरेगा के जरिए काम न देना पड़े.

16 फरवरी, 2022
16 फरवरी, 2022
अपडेटेड 7 फ़रवरी , 2023

अरुण पुरी

हर अर्थव्यवस्था में रोजगार और महंगाई दो अहम कारक होते हैं. भारत में महंगाई का मामला भारतीय रिजर्व बैंक देखता है. फिर भी सरकार मुफ्त खाद्यान्न बांटने सरीखे कल्याणकारी उपायों के जरिए महंगाई के असर को हल्का कर सकती है. जहां तक रोजगार तथा नौकरियों की बात है, सरकार पूंजीगत खर्च के जरिए रोजगार सृजन को बढ़ावा दे सकती है. इससे सुखद घटनाओं का चक्र बन सकता है.

बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं पर सरकारी खर्च से उनके निर्माण के दौरान रोजगार सृजन होता है और उनके लिए आपूर्ति करने वाले तमाम उद्योगों में नौकरियों पर बहुगुणक प्रभाव पड़ता है. इन उद्योगों की क्षमता ज्यों-ज्यों बढ़ती है, वे अपना विस्तार करते हैं और निजी निवेश आने लगता है. इससे और नौकरियों का सृजन होता है. नौकरियों का मतलब है आमदनी, जिसका नतीजा समूची अर्थव्यवस्था में खपत की शक्ल में सामने आता है. 

मोदी सरकार लगातार अपने बजटों में इसी पर दांव लगाती रही है. संसद में 2023 का बजट पेश करने के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इसे ''खूबसूरत संतुलन’’ कहा. जो यह सचमुच था. झटका और चौंकाने के अपने शुरुआती रुझान से मोदी सरकार दूरदर्शी नीति निर्माण को तरजीह देने लगी है. 2022 के बजट में बुनियादी ढांचे पर पूंजीगत खर्च पिछले साल के 5.5 लाख करोड़ रु. से 35.4 फीसद बढ़ाकर 7.5 लाख करोड़ रु. कर दिया गया था. इस साल वित्त मंत्री ने इसे 33 फीसद बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रु. या जीडीपी का 3.3 फीसद कर दिया. यह अच्छा आंकड़ा है, जिससे जरूरी नौकरियों का सृजन होना चाहिए.

रोजगार पैदा करने वाले दूसरे प्रमुख क्षेत्रों को भी कई प्रोत्साहन दिए गए हैं. एमएसएमई को दी गई 2 लाख करोड़ रु. की कर्ज गारंटी योजना और दूसरे फुटकर लाभों से इस क्षेत्र में जान पड़नी चाहिए, जो नोटबंदी के बाद से ही काफी-कुछ निढाल पड़ा है. यह 11 करोड़ से ज्यादा रोजगार देता है, जो कुल रोजगार का 20 फीसद से ज्यादा है. नई कृषि उत्प्रेरक निधि ग्रामीण भारत में एग्रीटेक स्टार्ट-अप के लिए मददगार साबित होगी. रोजगार वाले एक अन्य क्षेत्र पर्यटन को उदार प्रोत्साहन मिला है—50 जगहों को चुनकर उन्हें चमकाया जाएगा, तकि वहां हवाई अड्डे वगैरह घरेलू और अंतरराष्ट्रीय सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बनें.

बुनियादी ढांचे पर खर्च भी नौकरियों के सृजन का परोक्ष तरीका है. जहां तक प्रत्यक्ष रोजगार की बात है, केंद्र ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का बजट घटाने के अपने रुझान का पालन किया. लिहाजा 2023-24 के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के तहत महज 60,000 करोड़ रु. रखे गए.

यह वित्त वर्ष 2022-23 के 89,000 करोड़ रु. के संशोधित अनुमान से 33 फीसद कम है. साफ है कि केंद्र बड़ी तादाद में निजी निवेश लाने और अपने पूंजीगत खर्च के साथ नौकरियों के सृजन पर दांव लगा रहा है, ताकि मनरेगा के जरिए काम न देना पड़े. पिछले वित्त वर्ष में 5.7 करोड़ लोगों ने मनरेगा के तहत काम किए थे, यह दुनिया की सबसे बड़ी गरीबी उन्मूलन योजना के लक्ष्यों में बहुत साफ फेरबदल है.

इस हफ्ते हमारी आवरण कथा के लिए एक्जीक्यूटिव एडिटर एम.जी. अरुण दोहरी नजर डाल रहे हैं. एक तरफ हम विश्लेषण कर रहे हैं कि आम चुनाव से एक साल पहले नौकरियों के सृजन पर मोदी सरकार का इतना जोर क्यों है. हर साल 1.2 करोड़ भारतीय कार्यबल में शामिल होते हैं.

दुखद यह है कि सीएमआइई के दिसंबर के आंकड़ों के मुताबिक 20-24 वर्ष आयु वर्ग के 7.7 करोड़ युवा भारतीयों में से 48 फीसद बेरोजगार थे. यह  2017-18 के 20 फीसद से दोगुने से भी ज्यादा और महामारी से ठीक पहले के 30 फीसद से भी ज्यादा है. 25-29 वर्ष आयु वर्ग में भी यह 14 फीसद था. यही हमारी विशाल आबादी से मिलने वाला वह लाभांश है जिसके बहुत गुण गाए जाते हैं और जो बर्बाद हो रहा है.

भारत में 44.3 करोड़ कामगारों की फौज है, पर एक चौथाई के पास ही 'नियमित नौकरी’ है, यानी ऐसी नौकरी जिसमें हर महीने तनख्वाह और कुछ सुरक्षा मिलती है. 75 फीसद से ज्यादा लोग अल्पकालिक काम में लगे हैं या अपने धंधे करते हैं. उन्हें न नियमित आमदनी की गारंटी है और न काम की. हमारे ब्यूरो ने बेजान आंकड़ों को मानवीय चेहरा भी दिया. हमारा सामना उन मुरझाए लाखों युवाओं में कुछ से हुआ—मसलन, 24 वर्षीय बीकॉम ग्रेजुएट कुलदीप नारायण त्रिपाठी, जो भोपाल पार्क की बेंच पर मोबाइल एसेसरीज बेचते हैं.

भारत में रोजगार पेचीदा मुद्दा है. यह ढांचागत समस्या भी है. कृषि में कार्यबल के 46 फीसद लोग लगे हैं, पर यह जीडीपी में महज 20 फीसद का योगदान देती है. सेवाएं 54 फीसद का योगदान देती हैं, जिनमें 32 फीसद लोग लगे हैं, और उद्योगों में करीब 21 फीसद लोग लगे हैं, जो 26 फीसद का योगदान देते हैं.

भारत में परेशानी बेरोजगारी की उतनी नहीं बल्कि छिपी हुई अल्परोजगारी की है. लोग अनुत्पादक काम-धंधों में लगे हैं. कई सरकारों ने इस असंतुलन को बदलने की कोशिश की, पर कम ही कामयाबी मिली. खुद बेरोजगारी के आंकड़े ही गुमराह करने वाले हैं. परिभाषा से बेरोजगार वह व्यक्ति है जो रोजगार की तलाश कर रहा है, पर भारत में ज्यादातर लोग बेरोजगार रहना गवारा नहीं कर सकते क्योंकि वे हाशिए पर जिंदगी गुजारते हैं. 

बजट 2023 इस मुद्दे से निपटने की कोशिश करता है., सिर्फ पूंजीगत खर्च बढ़ाकर नहीं. कारीगरों और दस्तकारों के लिए नई प्रधानमंत्री विश्वकर्मा कौशल सम्मान (पीएम-विकास) योजना उन्हें अपने उत्पादों की गुणवत्ता सुधारने, पैमाना बढ़ाने और बेहतर बाजारों तक पहुंच हासिल करने, उसे एमएसएमई मूल्य शृंखला से जोड़ने में मदद करती है. लोगों को हुनर मुहैया कराने पर भी ज्यादा जोर है. विदेश में नौकरियों का लक्ष्य साधने में युवाओं की मदद के लिए तमाम राज्यों में करीब 30 स्किल इंडिया अंतरराष्ट्रीय केंद्र खोले जाएंगे. 

शायद कई राज्यों के चुनावों और अगले साल आम चुनाव को ध्यान में रखकर वित्त मंत्री निजीकरण के एजेंडे पर खामोश रहीं, जिसमें 2021 के बजट में घोषित बैंकों के निजीकरण की योजना भी शामिल है. केंद्र ने विनिवेश का लक्ष्य भी घटाकर 51,000 करोड़ रु. कर दिया. पिछले बजट में विनिवेश से 65,000 करोड़ रु. उगाहने का मंसूबा था, जिसे बाद में बदलकर 50,000 करोड़ रु. कर दिया.

18 जनवरी तक महज 31,106 करोड़ रु. इकट्ठा हुए थे. 2021 में संपत्तियों के मौद्रीकरण की बजट घोषणा के बाद उस साल अगस्त में केंद्र ने राष्ट्रीय मौद्रीकरण पाइपलाइन के तहत 6 लाख करोड़ रु. उगाहने की योजना का ऐलान किया था. इस बजट में उसकी प्रगति का कोई जिक्र नहीं है.

अंतत: सार्वजनिक निवेश के लिहाज से सरकार बस इतना ही कर सकती है. आखिरकार यह जीडीपी का 7 फीसद है, जबकि निजी निवेश, सरकारी निवेश के तिगुने से भी ज्यादा, करीब 20-23 फीसद है. बजट तो बस उत्प्रेरक हो सकता है. चुनावी प्रलोभनों के बावजूद राजकोषीय अनुशासन बनाए रखने और देश को लगातार वृद्धि की राह पर ले जाने के लिए सरकार की तारीफ करनी होगी.

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