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भगवा परिवार में फूट के बीज

भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार आनुवंशिक रूप से संशोधित सरसों के दरवाजे खोल रही है, तो आरएसएस और उसके संगठन इस कदम का विरोध कर रहे हैं

भारी विरोध : वाम कार्यकर्ता और आरएसएस के संगठन, दोनों जीएम फसलों को पेश किए जाने का विरोध कर रहे
भारी विरोध : वाम कार्यकर्ता और आरएसएस के संगठन, दोनों जीएम फसलों को पेश किए जाने का विरोध कर रहे
अपडेटेड 14 नवंबर , 2022

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई वाली केंद्र सरकार की स्वदेश में विकसित आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) सरसों को बाजार में उतारने की महत्वाकांक्षी योजना को कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है. सरकार इसे तिलहन में आत्मनिर्भरता हासिल करने की दिशा में अहम कदम के तौर पर देखती है. विडंबना यह कि इसका विरोध करने वालों में भाजपा के वैचारिक स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके सहयोगी संगठनों के नेता भी हैं. समझा जाता है कि नवंबर के पहले हफ्ते में आरएसएस के एक शीर्ष नेता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दफ्तर से संपर्क साधा और संघ तथा उसके सहयोगी संगठनों की आपत्तियां बतला दीं. बाद में भारतीय किसान संघ (बीकेएस) और स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसे रोकने के लिए हस्तक्षेप करने को कहा. बीकेएस किसानों के बीच काम करने वाला संघ से जुड़ा संगठन है, तो एसजेएम संघ का आर्थिक थिंक-टैंक है.

इस सबके बीच खाद्य सुरक्षा कार्यकर्ताओं की याचिका पर कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 4 नवंबर को केंद्र सरकार को वह सारा डेटा और विशेषज्ञों के निष्कर्ष पेश करने का निर्देश दिया जिनके आधार पर धारा मस्टर्ड हाइब्रिड-11 (डीएमएच-11) के नाम से जानी जाने वाली जीएम सरसों की किस्म को जारी करने का फैसला लिया गया है. एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और सुधांशु धूलिया की पीठ को भरोसा दिलाया कि फैसला होने तक सरकार कोई ''ठोस कदम'' नहीं उठाएगी.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, जीएम खाद्य पदार्थ उन जीवों से निकाले जाते हैं जिनकी आनुवंशिक सामग्री (डीएनए) को अप्राकृतिक ढंग से संशोधित या रूपांतरित कर दिया जाता है. जीएम फसलें पौधों के रोगों को रोककर या शाकनाशकों के प्रति सहनशक्ति बढ़ाकर पैदावार बढ़ाने का दावा करती हैं.

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, जीएम खाद्यों की बदौलत खाद्य पदार्थों की कीमतों में कमी आ सकती है, क्योंकि पैदावार और विश्वसनीयता बढ़ जाएगी. भारत के कृषि कार्यकर्ता इससे सहमत नहीं हैं. भारत 2000 में कनाडा के मॉन्ट्रियल में स्वीकृत बायोसेफ्टी प्रोटोकॉल से बंधा है, जो आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों (जीएमओ) के नियमन के लिए राष्ट्रीय कानूनों की मांग करता है. इसमें यह भी शामिल है कि जीएम फसलों को जारी करने से पहले लंबे समय के अध्ययन करने होंगे, क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र पर इनके प्रभावों को उलटा नहीं जा सकता. अभी तक कीटाणुनाशक दवा-प्रतिरोधी बीटी कॉटन अकेली जीएम फसल है जिसे भारत में बाजार में लाने की मंजूरी दी गई (2002 में). 

इस साल 18 अक्तूबर को जीएम खाद्यों पर भारत की शीर्ष नियामकीय संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेजल कमेटी (जीईएसी) ने डीएमएच-11 को पर्यावरण में छोड़ने को मंजूरी दी. एक हफ्ते बाद 25 अक्तूबर को भूपेंद्र यादव की अगुआई वाले केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने कृषि मंत्रालय के लिए राजस्थान, पंजाब और मध्य प्रदेश सहित पांच राज्यों में प्रदर्शन परीक्षण करने के दरवाजे खोल दिए. इसके बाद आनुवंशिक तरीके से बदली गई सरसों के बीज भारत के किसानों को व्यावसायिक तौर पर मुहैया किए जा सकेंगे. रबी के सीजन (अक्तूबर-मार्च) में उगाई जाने वाली सरसों उत्तर भारत की अहम नकदी फसल है, जहां इसके बीजों से निकला तेल खाना पकाने में इस्तेमाल किया जाता है, पत्तियों की सब्जी बनाकर खाई जाती है और बची हुई चीजें मवेशियों की खिला दी जाती हैं.

आरएसएस से जुड़े संगठन और वाम झुकाव वाले संगठन, दोनों बीते दो दशकों से भारत में जीएम फसलें लाने का विरोध करते रहे हैं. वाम धड़े अदालतों में कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, तो आरएसएस से जुड़े संगठन 2014 से ही ऐसे किसी भी कदम के खिलाफ पीएम मोदी की हुकूमत पर दबाव डालते आ रहे हैं. इस बार आरएसएस के सहयोगी संगठनों ने जीईएसी के निष्कर्षों में ही कमियां निकाल लीं. नियामकीय संस्था ने 2017 में भी जीएम सरसों लाने को मंजूरी दी थी, पर प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी. इस कदम का विरोध कर रहे भगवा संगठनों के मुताबिक, बीते पांच साल में न तो अतिरिक्त परीक्षण किए गए और न ही सरकार ने जीएम सरसों की सुरक्षा तथा प्रभावों या जरूरत के जुड़े सवालों के जवाब खोजे. सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रोड्रिगेज ने मंत्रालय के फैसले को चुनौती देने वाली अपनी याचिका में यही रुख सामने रखा है.

संघ परिवार के सदस्यों ने बार-बार जो मुख्य सवाल उठाए, वे यह हैं कि जीएम फसलों की बदौलत किसान बड़ी विदेशी कंपनियों के हाथों नियंत्रित बीजों पर निर्भर हो जाएंगे और पारिस्थितिकी तंत्र को स्थायी नुक्सान पहुंचेगा. इस 'स्वदेशी बनाम विदेशी' बहस और उससे जुड़े खाद्य सुरक्षा के सरोकारों की रोशनी में आनुवंशिकी वैज्ञानिक दीपक पटेल की अगुआई में दिल्ली विश्वविद्यालय ने 2015 में डीएमएच-11 विकसित की. अलबत्ता खाद्य सुरक्षा कार्यकर्ता और आरएसएस से जुड़े संगठनों की दलील है कि यह संकर किस्म एक विदेशी कंपनी (बायर की सहयोगी प्रोएग्रो सीड कंपनी) के हाथों विकसित और पेटेंट करवाए गए बीज पर आधारित है, जिसने 2002 में जीएम सरसों की व्यावसायिक मंजूरी के लिए अर्जी दी थी. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) ने उसकी अर्जी यह कहकर खारिज कर दी थी कि मैदानी परीक्षणों से बेहतर पैदावार का कोई प्रमाण नहीं मिला.

एसजेएम के संयोजक अश्विनी महाजन का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भारत के कई खाद्य उत्पादों को इसलिए तरजीह दी जाती है क्योंकि उन पर 'गैर-जीएमओ' का तमगा लगा होता है. उनकी दलील है कि इस तरह जीएम फसलें लाने से खाद्य निर्यात पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा. भगवा खेमे का यह भी कहना है कि सरसों भारत में प्राचीन काल से उगाई जाती रही है और यह हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में गहराई से समाई है, इसलिए इस नाजुक संतुलन को बिगाड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. जीएम फसलों को मंजूरी ने मंत्री भूपेंद्र यादव को भी अटपटी स्थिति में डाल दिया. आरएसएस से जुड़े संगठन सरकार में आने से पहले उनके लिखे लेखों का हवाला दे रहे हैं जिनमें विपरीत नजरिया अपनाया गया था.

विवाद छिड़ने के बाद यादव ने होंठ सिल लिए, पर समझा जाता है कि वे आरएसएस के आकाओं से संपर्क करके अपने मंत्रालय का नजरिया सामने रखने को कह रहे हैं. मगर आरएसएस नेताओं का यही कहना है कि अब गेंद प्रधानमंत्री मोदी के पाले में है. आरएसएस के एक बड़े नेता ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर इंडिया टुडे से कहा, ''प्रधानमंत्री मुद्दे से वाकिफ हैं. वे हमारी आशंकाओं को भी समझते हैं. हमें यकीन है कि वे देश, किसानों और खाद्य सुरक्षा को प्राथमिकता देने वाला फैसला लेंगे.''

इस बीच बीकेएस ने इस मुद्दे पर किसानों को लामबंद करने का फैसला किया है. 19 दिसंबर को राष्ट्रीय राजधानी में होने वाली उसकी विशाल रैली के एजेंडे में अब यह मुद्दा भी जुड़ गया है. रैली अन्य मांगों के अलावा पीएम किसान योजना के तहत वित्तीय सहायता बढ़ाने की मांग पर जोर देने के लिए की जा रही है. केंद्र सरकार उन किसानों के बचे-खुचे गुस्से को अब भी महसूस कर रही है जिन्होंने अब रद्द कर दिए गए कृषि कानूनों के खिलाफ 2020-21 में दिल्ली की सरहदों पर साल भर लंबा आंदोलन किया था. वह नहीं चाहेगी कि ऐसा फिर हो, वह भी आरएसएस से जुड़े संगठनों की ओर से. अब जब मामला अदालत में विचाराधीन है, अपने 'वैचारिक बंधु-बांधवों' का दबाव सत्तारूढ़ पार्टी और उसके नेताओं को सांसत में डाले रखेगा.

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