हाल में छह राज्यों में हुए विधानसभा उपचुनावों का एक प्रमुख निचोड़ यह है कि कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की धुरी होने की अपनी अहमियत लगातार गंवा रही है. पांच सीटों पर यथास्थिति कायम रही, जिनमें तीन—बिहार में गोपालगंज, ओडिशा में धामनगर और उत्तर प्रदेश में गोला गोकर्णनाथ—पर भाजपा ने कब्जा कायम रखा. दो सीटों पर उलटफेर हुए और दोनों कांग्रेस की थीं. वह हरियाणा में आदमपुर सीट भाजपा और तेलंगाना में मुनुगोड़े सीट तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) से हार गई.
मुनुगोड़े सीट 2018 में के. राजागोपाल रेड्डी ने कांग्रेस के टिकट पर टीआरएस के प्रभाकर रेड्डी को हराकर जीती थी. अगस्त में वे पाला बदलकर भाजपा में आ गए, जिससे उपचुनाव की नौबत आई. इस बार प्रभाकर ने राजागोपाल को 10,309 वोटों के अंतर से हराया. कांग्रेस उम्मीदवार पलवई श्रवंती की जमानत जब्त हो गई. यह साफ संकेत है कि राज्य की चुनावी राजनीति दो ध्रुवों में सिमट रही है और ये दो ध्रुव अब टीआरएस और भाजपा हैं, जबकि कांग्रेस हाशिये पर खिसक रही है. विश्लेषकों का कहना है कि टीआरएस की जीत में सीपीआइ और सीपीएम के समर्थन ने निर्णायक भूमिका अदा की, जिनके मुनुगोड़े में समर्थक वोटर 20,000 बताए जाते हैं.
मुनुगोड़े उपचुनाव भाजपा और टीआरएस दोनों के लिए अहम था. भाजपा तेलंगाना में हिंदुत्व के पदचिह्नों का विस्तार करने में जुटी है, तो टीआरएस के सुप्रीमो के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) भारतीय राष्ट्र समिति (बीआरएस) के नए नाम से अपनी पार्टी की राष्ट्रीय छाप कायम करने की आस में हैं. टीआरएस के मुख्य विकल्प के तौर पर उभरने के अपने फौरी लक्ष्य की तलाश में भाजपा मुनुगोड़े उपचुनाव को कड़े मुकाबले में बदलने में कामयाब रही.
भाजपा को यह कामयाबी तब मिली जब उसके उम्मीदवार राजागोपाल रेड्डी को टीआरएस और कांग्रेस की तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. दोनों पार्टियों ने आरोप लगाया कि कथित तौर पर केंद्र से उनके परिवार की मिल्कियत वाली कंपनी को 18,000 करोड़ रुपए का ठेका दिए जाने की एवज में वे पाला बदलकर भाजपा में गए. आरोपों को खारिज करते हुए राजागोपाल ने कहा कि उन्होंने इस्तीफा इसलिए दिया क्योंकि टीआरएस की सरकार मुनुगोड़े में विकास की अनदेखी कर रही थी.
मुनुगोड़े सीट जीतने के बाद 119 सदस्यों की विधानसभा में टीआरएस की ताकत बढ़कर 104 हो गई है. यह जीत केसीआर के लिए उत्साह बढ़ाने वाली है. खासकर जब वे तेलंगाना से बाहर अच्छी-खासी तेलुगु आबादी वाली सीटों पर उम्मीदवार उतारने का मंसूबा बना रहे हैं. मगर विश्लेषकों का मानना है कि अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं के लिए केसीआर को बहुत कुछ करना होगा. हैदराबाद स्थित एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले हरती वागीशन का कहना है कि मुनुगोड़े के नतीजे से केसीआर को सामाजिक गठबंधन बनाने की अहमियत समझ आनी चाहिए. वे कहते हैं, ''उनकी पार्टी खुद को 'दक्षिण की आम आदमी पार्टी' की स्थिति में रखते हुए कुछेक राजनैतिक तौर पर सजग ताकतों को भाजपा-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी दलबंदी में साथ आने के लिए मनाने की कोशिश कर रही है.''
विश्लेषकों का कहना है कि 2023 के विधानसभा चुनाव में टीएसआर का एकमात्र विकल्प बनने के लिए भाजपा को कई चुनौतियों से पार पाना होगा. हैदराबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के डी. वीराबाबू कहते हैं, ''टीआरएस और कांग्रेस के प्रभावशाली उम्मीदवारों को लाना एक अहम रणनीति होगी.'' वे बताते हैं कि कांग्रेस से राजागोपाल के दलबदल से ऐसे निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा की ताकत बढ़ी जहां उसकी मजबूत मौजूदगी नहीं थी. टीआरएस ने यही रणनीति अपनाते हुए 2014 और 2018 के चुनावों के बाद कांग्रेस विधायकों का दलबदल करवाया था. पर अब उसका मुकाबला भाजपा के रूप में ज्यादा ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से है.