अजय सुकुमारन
आप मानें या नहीं, पिछले कुछेक वर्षों तक शादियों में फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी वाला ड्रोन न केवल रिसेप्शन बल्कि भारत में उड़ने वाले मानव रहित वाहनों का एक लोकप्रिय किस्म का नवाचार और सबसे प्रसिद्ध अवतार भी हुआ करता था. लेकिन अब अधिकांश ड्रोन बस शादी के फोटो खींचने तक सीमित नहीं रह गए हैं. मुंबई की ड्रोन निर्माता कंपनी आइडियाफोर्ज के हर छह मिनट में एक ड्रोन भारत के गांवों में कहीं न कहीं मंडराने को उड़ान भर रहे हैं और मैपिंग कर रहे हैं.
गुरुग्राम की स्काइ एयर मोबिलिटी को लें, जिसने पिछले छह महीनों में 1,500 उड़ानें भरी हैं. इनमें से ज्यादातर उड़ानें विभिन्न परिस्थितियों में माल ढुलाई के लिए ट्रायल-रन के रूप में हुई हैं और यह प्रयोग जिन चीजों की ढुलाई के लिए हो रहा है उसमें पैथोलॉजी के नमूने, सूखी हल्दी और किराने का सामान शामिल हैं.
हवा में मंडराते ये ड्रोन अक्सर अलग-अलग वजहों से सुर्खियां बनते हैं. जैसे इंडिया पोस्ट ने कुछ महीने पहले गुजरात के कच्छ जिले के दो गांवों के बीच 46 किलोमीटर की दूरी में मेल डिस्पैच के लिए ड्रोन की मदद ली थी. जून में नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने पहली बार एक स्टार्ट-अप आइओटेकवर्ल्ड एविगेशन के, खेतों में छिड़काव के लिए डिजाइन किए गए भारत के पहले हेक्साकॉप्टर ड्रोन मॉडल को फर्स्ट टाइप सर्टिफिकेट या उड़ान योग्यता अनुमोदन प्रदान किया.
मानचित्रण और सर्वेक्षण जैसे दूसरे कामों में ड्रोन का इस्तेमाल तो एक साल पहले ही शुरू हो चुका था. एक साल पहले, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने सड़क निर्माण की प्रगति रिपोर्ट और रखरखाव की निगरानी के लिए मासिक ड्रोन सर्वेक्षण अनिवार्य कर दिया था. भारतीय रेलवे भी सर्वेक्षण और पुल निरीक्षण के लिए ड्रोन तैनात कर रहा है.
देश में 200 कंपनियों और 2,000 ड्रोन पायलटों का प्रतिनिधित्व करने वाले ड्रोन फेडरेशन ऑफ इंडिया (डीएफआइ) के अध्यक्ष स्मित शाह कहते हैं, ''आप कोई भी सेक्टर चुन लें, ड्रोन वहां असर डाल सकते हैं.’’ बेशक, इसकी जटिलता उसके उपयोग पर निर्भर करेगी और अलग-अलग काम के लिए अलग हो सकती है. एयर स्पेस मैनेजमेंट या ड्रोन का हवा में प्रबंधन उसी का एक अहम हिस्सा है.
शाह नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और झज्जर के एम्स के बीच 50 किलोमीटर की दूरी, जिसे सड़क मार्ग से तय करने में डेढ़ से दो घंटे लगते हैं, के बीच एक फ्लाइट कॉरिडोर तैयार करने के लिए चल रहे एक पायलट प्रोजेक्ट संजीवनी की ओर इशारा करते हैं. किसी ड्रोन को दोनों एम्स के बीच के हवाई मार्ग में पड़ने वाले दो हवाईअड्डों-इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे और सफदरजंग हवाई अड्डे और उनके बीच बसे शहरी क्षेत्र को बचाने के लिए घुमावदार मार्ग लेना पड़ता है, फिर भी ड्रोन सड़क मार्ग की तुलना में आधे से भी कम समय लेता है.
निश्चित रूप से इस उड़ान की हवाई अड्डे के हवाई यातायात नियंत्रण (एयर ट्रैफिक कंट्रोल) के साथ सक्रिय समन्वय की आवश्यकता होगी और इसके लिए उसे कई प्रकार की स्वीकृतियां भी लेनी होंगी. ड्रोन लॉजिस्टिक्स स्टार्ट-अप टेकईगल इसका परीक्षण अगले महीने शुरू करेगा. शाह कहते हैं कि शुरुआती मकसद जटिल हालात में ड्रोन उड़ाने का खाका तैयार करना है. इस पूरी कवायद का मकसद है झज्जर के एम्स से जांच के लिए रक्त और दूसरे नमूनों को दिल्ली एम्स में आसानी से पहुंचाना जहां रोबोट परीक्षण प्रयोगशाला है.
उदार नीति
स्काइ एयर मोबिलिटी के सीईओ अंकित कुमार कहते हैं, ''सितंबर, 2021 से पहले, ड्रोन डिलीवरी की बात केवल एक अवधारणा तक सीमित थी, हालांकि इसके लिए शोध और विकास कार्य (आरएंडडी) चल रहा था.’’ एक साल से भी कम समय में ड्रोन के वाणिज्यिक इस्तेमाल की संभावनाएं तलाशती गतिविधियों की बाढ़ आ गई है. यह कैसे हुआ, उस लंबी कहानी को संक्षेप में बताना हो तो कुछ इस तरह बताया जा सकता है—सैन्य उपयोग और एयरोमॉडलिंग के लिए हवा में उड़ने वाले मानव रहित वाहन काफी समय से प्रयोग में हैं.
लेकिन उपभोक्ता जरूरतों के लिए ड्रोन का इस्तेमाल 2010 के आसपास तेजी से शुरू हुआ जब बाजार में चीन निर्मित ड्रोन की भरमार हो गई. 2014 में मुंबई में एक पिज्जा डिलीवरी की घटना के बाद, भारत के विमानन नियामक ने ड्रोन पर प्रतिबंध लगा दिया और यह प्रतिबंध जारी रहा जब तक कि सरकार ने इसके लिए एक नीति नहीं बनाई. नीति अंतत: 2018 में आई. इसने ड्रोन के निर्माण और बिक्री की अनुमति तो दे दी लेकिन उड़ान के नियम बहुत हद तक अपरिभाषित ही रहे.
'पहले मुर्गी आई कि अंडा’ जैसी यह स्थिति मार्च, 2021 में नए नियमों की अधिसूचना जारी किए जाने तक बनी रही. लेकिन इसमें भी अनिवार्य अनुमतियों और लाइसेंसों के लिए नियमों की सूची और बढ़ गई. अंतत: अगस्त 2021 में प्रधानमंत्री कार्यालय ने गहरी दिलचस्पी लेते हुए एक नई उदार नीति बनाई जिसमें अधिकांश प्रतिबंधों में ढील दी गई. उसके बाद से भारत के ड्रोन परिचालन को पंख लग गए.
इसके तुरंत बाद कई नीतियां बनीं—इनमें 400 फुट की ऊंचाई तक भारतीय हवाई क्षेत्र के 90 प्रतिशत को उड़ान संचालन के लिए ग्रीन जोन के रूप में खोलना, ड्रोन प्रबंधन के लिए डिजिटलस्काई नामक एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की शुरुआत जहां इसके लिए ऑनलाइन आवेदन दिए जा सकते हैं, मानव रहित विमान सिस्टम ट्रैफिक मैनेजमेंट (यूटीएम) पर दिशानिर्देश, आयातित ड्रोन पर प्रतिबंध, कृषि क्षेत्र के लिए उपयोगी ड्रोन निर्माताओं के वास्ते उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना और सब्सिडी शामिल हैं. सरकार का घोषित लक्ष्य, भारत को 2030 तक वैश्विक ड्रोन हब बनाना है.
आइडियाफोर्ज के सह-संस्थापक अंकित मेहता कहते हैं, ''इनका संचालन कैसे किया जाए, इसके निर्धारण के मामले में भारत दुनिया के बाकी देशों से कभी बहुत पीछे था. पर अब हमने तेजी से कदम बढ़ाते हुए उन सारी बाधाओं को पार कर लिया है और आज भारत के पास औरों से कहीं बेहतर संचालन दिशा-निर्देश हैं.’’ उनका इशारा कई देशों के नीतिगत कदमों की तरफ है.
फिर भी, भारत की तुलना में विश्व स्तर पर ड्रोन का प्रयोग और विशिष्ट संचालन लंबे समय से होता आ रहा है. अमेरिकी ड्रोन निर्माता जिपलाइन का कहना है कि उसने 3,00,000 से अधिक वाणिज्यिक डिलीवरी पूरी कर ली है. उनमें से बहुत-सी रवांडा और घाना जैसे अफ्रीकी देशों में चिकित्सा सुविधाएं प्रदान करने के लिए थीं. जहां तक ड्रोन के लिए प्रमुख घटकों की बात है, भारतीय निर्माता आयात पर भरोसा करते हैं. हालांकि ऐसी उम्मीद की जा रही है कि पीएलआइ योजना से यह परिदृश्य बदल जाएगा और हम इस मामले में आत्मनिर्भर बन जाएंगे.
उभरते क्षेत्र
मेहता कहते हैं कि महामारी के कारण पैदा हुए व्यवधान ने ड्रोन का उपयोग बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है. चाहे कोरोना के दौरान नियंत्रण क्षेत्रों की निगरानी करना हो या दूरदराज के स्थानों तक दवाएं पहुंचाना, यहां तक कि टिड्डियों के झुंड से निबटने की समस्या हो, ड्रोन अचानक बहुत उपयोगी बन गए हैं.
वे कहते हैं, ''महामारी ने खेल को पूरी तरह से बदल दिया. ड्रोन एक ऐसी कारगर तकनीक बन गया जिसके लाखों इस्तेमाल देखे जा रहे थे.’’ लगभग उसी समय, ग्रामीण आबादी का सर्वेक्षण और ग्रामीण क्षेत्रों में उन्नत प्रौद्योगिकी के साथ मानचित्रण (स्वामित्व) योजना की घोषणा की गई थी. अब तक 160,000 गांवों का ड्रोन सर्वेक्षण पूरा किया जा चुका है.
मानचित्रण और सर्वेक्षण जैसे कार्य ड्रोन के लिए एक तैयार वाणिज्यिक बाजार मुहैया करते हैं. इनका उपयोग खनन कंपनियां करती हैं और हाल ही में इंडियन ऑयल ने अपनी 120 किलोमीटर लंबी दिल्ली-पानीपत पाइपलाइन की निगरानी के लिए ड्रोन तैनात किए हैं. शाह कहते हैं, ''जहां कुछ सरकारी योजनाएं ड्रोन के सबसे बड़े उपयोगकर्ताओं में शामिल हैं, वहीं निजी क्षेत्र में भी उपयोग तेजी से बढ़ रहा है.’’
ड्रोन फेडरेशन ऑफ इंडिया ने अगले पांच वर्षों में ड्रोन इकोसिस्टम के लिए 50,000 करोड़ रुपए की राजस्व क्षमता का अनुमान लगाया है. शुरुआती संकेत दिखने भी लगे हैं. 2019 में, रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने एस्टेरिया एयरोस्पेस में एक रणनीतिक हिस्सेदारी प्राप्त की, जबकि इसी मई में अडानी डिफेंस सिस्टम्स ऐंड टेक्नोलॉजीज लिमिटेड ने कृषि कार्यों के लिए ड्रोन सेवा प्रदाता जनरल एरोनॉटिक्स में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी हासिल की.
कहने की जरूरत नहीं कि ड्रोन कहां तैनात होंगे, इसके निर्धारण में लागत और व्यवहार्यता दो बड़े कारकों की भूमिका रहेगी. इसीलिए यह उम्मीद करना कि ड्रोन आपकी छत पर पिज्जा पहुंचाने लगेंगे, कम से कम निकट भविष्य में तो नहीं होने जा रहा. पर ऐसा भी नहीं कि लोग प्रयोग बंद करने जा रहे हैं. स्काई एयर के अंकित कुमार का कहना है कि उनकी फर्म शहरी क्षेत्रों में ऑर्डर पहुंचाने के तरीके ढूंढने के लिए स्विगी जैसी क्विक-कॉमर्स कंपनियों के साथ मिलकर काम कर रही है.
पर शहरों में तारों, टावरों और इमारतों का घना जाल देखते हुए यह चुनौतीपूर्ण काम होगा. वे कहते हैं, ''शहरों में उड़ान भरना, ग्रामीण या अर्ध-शहरी वातावरण में उड़ान भरने से 50 गुना अधिक कठिन है.’’ वे जिस हाइपरलोकल डिलीवरी का अनुसरण कर रहे हैं, वह ग्राहकों को उनके दरवाजे तक सामान पहुंचाने पर केंद्रित नहीं है, बल्कि किराने के सामान को किसी गोदाम से उठाकर ग्राहक के निकटतम संभव बिंदु तक ले जाना है, ताकि वहां से डिलीवरी बॉय इसे ग्राहक के घर तक पहुंचा सकें.
शहरी क्षेत्रों में ड्रोन उड़ाने की तैयारी से पहले वहां मौजूद बाधाओं और कचरे के ऐसे ढेर चिह्नित करने, जहां पक्षियों से टकराने की पूरी संभावना रहती है, के लिए एक विस्तृत रेकी की भी जरूरत होती है. वे कहते हैं कि स्काई एयर की 1,500 उड़ानों में से 80 प्रतिशत से अधिक शहरी केंद्रों जैसे गुरुग्राम, नोएडा और बेंगलूरू में हैं. कुमार का मानना है कि मेडिकल डायग्नोस्टिक्स क्षेत्र इसे जल्द से जल्द अपनाने वाला क्षेत्र हो सकता है विभिन्न क्षेत्रों में फैली अपनी लेबोरेट्री फ्रैंचाइजी से जुड़ने के लिए किसी द्रुत तरीके की तलाश है.
फिलहाल सबसे ज्यादा जोर कृषि पर नजर आ रहा है. यहां भी, लागत एक अहम कारक हो सकती है. सब्सिडी के साथ एक किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) अब लगभग 6 लाख रुपए में 10 लाख रुपए का ड्रोन खरीद सकता है. एग्रो-टेक कंपनियों के एक संघ, क्रॉपलाइफ इंडिया के सीईओ असित्वा सेन कहते हैं, ''छोटी जोत वाले अन्य एशियाई देशों में ड्रोन तकनीक कारगर साबित हुई है.’’ वे बताते हैं कि उनमें से कई ने अपने उत्पाद अनुमोदन के लिए नियामक से संपर्क किया है, जबकि स्टार्ट-अप, कृषि विश्वविद्यालयों और एफपीओ द्वारा परीक्षण किए जा रहे हैं. वे कहते हैं, ''यह सबसे सही समय है क्योंकि नीतिगत ढांचा मौजूद है.’’
आईओटेकवर्ल्ड के दीपक भारद्वाज बताते हैं कि फसलों पर छिड़काव में ड्रोन, इंसान के मुकाबले अधिक नियंत्रण और गति प्रदान करते हैं. ड्रोन आमतौर पर पानी बचाते हैं क्योंकि इससे पानी को जरूरत के अनुसार बहुत छोटी बूंदों के आकार में समायोजित किया जा सकता है और स्प्रे को पौधों की छतरियों या तनों की ओर लक्षित किया जाता है जिससे इसका असर बढ़ता है.
उनका कहना है कि किसान ड्रोन का व्यापक रूप से इस्तेमाल इस बात पर निर्भर करेगा कि सेवा प्रदाताओं का नेटवर्क कितना बड़ा है और कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से इसको लेकर कितनी जागरूकता फैलाई जाती है. वे कहते हैं, ''पहले उन्हें तकनीक का मजा लेने और उसका फायदा देखने दें, वे स्वयं रुचि दिखाएंगे.’’ वे कहते हैं कि उनके कृषि-ड्रोन को 14 जून को टाइप सर्टिफिकेशन मिला और उसके बाद आईओटेकवर्ल्ड ने लगभग 100 विशिष्ट पहचान संख्याएं (यूआइएन) तैयार की हैं.
भारत में ड्रोन इकोसिस्टम अभी भी शुरुआती चरण में है लेकिन उसमें वृद्धि हो रही है. डीएफआइ के शाह के मुताबिक, नीतिगत दृष्टिकोण से बात की जाए तो भारत में भी स्थिति वैसी ही है जैसी वैश्विक स्तर पर है. वे कहते हैं, ''बीवीएलओएस (बियॉन्ड विजुअल लाइन ऑफ साइट) और एयर स्पेस इंटीग्रेशन के लिए हो रहे प्रयोगों के साथ हम जल्द बहुत तेजी से नई प्रौद्योगिकियों की ओर तेज गति पकड़ लेंगे.’’ यानी ड्रोन हमारी जिंदगी में तेजी से शामिल होने जा रहे हैं.