लगता है कि अखिल भारतीय द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एआइएडीएमके) ने आखिरकार जे. जयललिता की आत्मा को चिर शांति में लिटा दिया है. वे 5 दिसंबर, 2016 को निधन के लगभग छह साल बाद भी पार्टी की 'शाश्वत महासचिव' बनी रहीं. यह स्थिति बीती 11 जुलाई को बदल गई जब अन्नाद्रमुक महापरिषद ने दोहरे नेतृत्व के सिद्धांत को नकारते हुए 68 वर्षीय ई. पलानीस्वामी (ईपीएस) को पार्टी का अंतरिम महासचिव चुन लिया. अन्नाद्रमुक विरासत के एकमात्र उत्तराधिकारी के रूप में उभरते हुए पूर्व मुख्यमंत्री ने प्रतिद्वंद्वी दावेदारों ओ. पनीरसेल्वम (ओपीएस) और जयललिता की सहयोगी रहीं वी. शशिकला को ऐसे समय में हराया है जब पार्टी सत्ता से बाहर है, राज्य की 234 सदस्यीय विधानसभा में उसके केवल 66 विधायक हैं और सहयोगी दल भाजपा को राज्य में अधिक प्रभावी विपक्ष के रूप में देखा जा रहा है.
इस दौरान ओपीएस सहित कई लोगों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया. इसे रोकने में 71 वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री हर तरह से असफल रहे. उन्होंने इसके लिए हाइकोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया, लेकिन अदालत ने यह कहकर इस विवाद में पड़ने से मना कर दिया कि ऐसे मामलों में जनता की राय सबसे ऊपर होती है. पिछले साल अपनी रिहाई के बाद से ही पार्टी में वापसी करने की कोशिश कर रहीं शशिकला को पार्टी के संविधान में एक संशोधन के माध्यम से किनारे कर दिया गया.
फिलहाल, ईपीएस ने खुद को सुरक्षित कर लिया है. अन्नाद्रमुक विधायकों और जिला सचिवों के पास उनका समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है क्योंकि पार्टी का समापन उनके राजनैतिक भविष्य पर भी पर्दा गिरा देगा. अगला विधानसभा चुनाव 2024 से पहले नहीं होगा. इस झड़प में ओपीएस भले ही हार गए हों, पर युद्ध जीतने के लिए दृढ़ हैं. उनका दावा है कि पार्टी से उनका निष्कासन अवैध है और वे आगे इसे अदालत में चुनौती देंगे. वे काडर के बीच अपनी ताकत भी परखना चाहते हैं. उनका कहना है, ''मुझे हमारी पार्टी के 1.5 करोड़ कार्यकर्ताओं ने चुना है. मैं उनसे मिलूंगा और न्याय मांगूंगा.''
इससे अलग, एक और युद्ध 'अम्मा' की विश्वासपात्र रहीं शशिकला ने छेड़ रखा है. विडंबना यह है कि 2017 में शशिकला पर दोष सिद्ध होने के बाद उनके खिलाफ बगावत की शुरुआत ओपीएस ने ही की थी और उन्हें पार्टी से बाहर करने के लिए ईपीएस से हाथ मिलाया था. सजा की अवधि समाप्त होने के बाद जेल से बाहर आईं शशिकला अन्नाद्रमुक में अपना दबदबा बनाने की उम्मीद में बड़े पैमाने पर राज्य का दौरा कर रही हैं. उनका दावा है कि ''केवल काडर के जरिए चुना गया व्यक्ति ही महासचिव होगा....और, काडर तथा लोगों की इच्छा है कि मैं महासचिव बनूं.'' उनका तर्क है कि महापरिषद की बैठक अमान्य है क्योंकि खुद को महासचिव पद से हटाए जाने के खिलाफ उन्होंने जो वाद दायर किया था, वह हाइकोर्ट में लंबित है.
तेजी से कार्रवाई करते हुए ईपीएस ने पार्टी के संविधान में संशोधन किया है जिसके मुताबिक महासचिव पद का चुनाव केवल वह व्यक्ति लड़ सकेगा जो 10 साल तक पार्टी का सदस्य रहा हो या पार्टी मुख्यालय में पांच साल तक पदाधिकारी रहा हो. उन्होंने जल्दी से इस संशोधन के दस्तावेज चुनाव आयोग में भी जमा करा दिए हैं. लेकिन सभी आधारों पर पकड़ बनाने के लिए उन्हें कानून से आगे भी सोचने की जरूरत थी. जयललिता या एमजीआर जैसे लोकप्रिय व्यक्तित्वों पर आधारित समर्थक-समूहों की अनुपस्थिति में, राजनीति जाति आधारित समीकरणों पर लौट जाती है. इसीलिए ईपीएस ने शशिकला और ओपीएस के मुक्कुलाथोर-थेवर जातिगत गुट को शांत रखने का ध्यान रखा है. यह जाति समूह दक्षिण तमिलनाडु में प्रभावी है. राज्य के पश्चिमी जिले सलेम की गौंडर जाति से संबंध रखने वाले ईपीएस खुद को जाति तटस्थ नेता के रूप में पेश करते हुए इस बारूदी सुरंग भरे रास्ते पर सावधानी से आगे बढ़ रहे हैं. महापरिषद की बैठक में प्रस्तावों को रखने के लिए उन्होंने थेवर जाति के ही आर.बी. उदयकुमार और ओ.एस. मणियन को चुना और इसी समुदाय के सहयोगी सी. श्रीनिवासन को ओपीएस के स्थान पर नया कोषाध्यक्ष बनाया है.
चिन्नम्मा, यानी शशिकला के पक्ष में बहुत लोग नहीं हैं. वे जयललिता रूपी सूर्य से ताकत पाती रही उपग्रह जैसी समझी जाती हैं—जो उस सूर्य से अलग होने के बाद प्रकाशहीन हो गया है. जानकारों को नहीं लगता कि उनका कोई बड़ा प्रभाव पार्टी पर पड़ेगा और अन्नाद्रमुक की बागडोर संभालने की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है. विरोधियों की ओर से ईपीएस के लिए खतरा पैदा करने की एकमात्र संभावना यह है कि वे आपसी रंजिश खत्म करके हाथ मिला लें. अन्नाद्रमुक से टूटे गुट के रूप में अम्मा मक्कल मुनेत्र कझगम (एएमएमके) का गठन करने वाले शशिकला के भतीजे टी.टी.वी. दिनाकरन का कहना है कि वे सभी गुटों को फिर से एकसाथ लाने के लिए काम करेंगे. इस तरह की व्यूह रचना से दक्षिण तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक का आधार डगमगा सकता है.
लेकिन, समस्या यह है कि उनमें से किसी के भी पास जयललिता जैसा करिश्माई व्यक्तित्व नहीं है जो काडर की अटूट निष्ठा हासिल कर सके. फिलहाल पार्टी का नेतृत्व हासिल करने वाले ईपीएस के पास भी ऐसा कोई करिश्मा नहीं है जिससे वे लंबे समय तक पार्टी के शीर्ष पर बने रह सकें. यह द्रमुक के लिए अच्छी खबर हो सकती है और, शायद भाजपा के लिए भी, जो अपने सहयोगी दल के भीतर की उठापटक का लाभ भुनाने की उम्मीद कर रही है. हो सकता है कि इस क्रम में वह एक प्रमुख द्रविड़ दल का सहयोग सीमित करते हुए 2024 के चुनाव में कुछ सीटों पर काबिज होने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर काम करे.