
पर्यावरण बनाम विकास की बहस के बीच केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव की ओर से जारी द्ववार्षिक भारत वन स्थिति रिपोर्ट, 2021 खुशी की वजह होनी चाहिए. इसके मुताबिक, देश के वन क्षेत्र में 2019 की पिछली रिपोर्ट के मुकाबले 1,540 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है. यादव ने गर्व से कहा, ''नरेंद्र मोदी सरकार का जोर सिर्फ जंगलों के दायरे के संरक्षण का नहीं, बल्कि उन्हें गुणात्मक रूप से भी समृद्ध करने पर है.''
लेकिन इस कवायद के 17वें संस्करण की इस रिपोर्ट को गहराई से पढ़ने पर आपको इसमें चालाकी से की गई बाजीगरी का पता चलेगा. मोटे तौर पर, देश में वन और वृक्ष आवरण कुल भौगोलिक क्षेत्र का अनुमानित 24.62 फीसद या 8.09 लाख हेक्टेयर है. पिछले दो साल में वन आवरण में कुल 1,540 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि अति सघन वन (वीडीएफ) या सर्वोत्तम 'गुणवत्ता' वाले वन में 501 वर्ग किलोमीटर जुड़ने के कारण हुआ है, लेकिन मध्यम सघन वन (एमडीएफ) में 1,582 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है और खुले वन (ओएफ) में 2,621 वर्ग किलोमीटर का विस्तार हुआ है. पहली बार रिपोर्ट में बाघ संरक्षित क्षेत्र (अभयारण्य), बाघ कॉरिडोर और शेर संरक्षित क्षेत्रों में वनों की स्थिति को शामिल किया गया है.

इसके अलावा, तेजी से बढ़ने वाले वृक्षों की किस्मों के रोपण के सौजन्य से खुले वन श्रेणी में विस्तार हुआ है. विशेषज्ञों के मुताबिक, एकल पौधारोपण (वनस्पति की एक ही किस्म को उगाना) जैविक रूप से विविध प्राकृतिक वनों का बेहतर विकल्प नहीं है.
मध्यम सघन वनों के क्षेत्र में कमी की वजहों में आसपास रहने वाली आबादी की आवाजाही और विकास परियोजनाओं के कारण हुई क्षति शामिल है. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 से 2021 के बीच 830 वर्ग किलोमीटर वन भूमि को गैर-वानिकी उपयोग में बदल दिया गया.
कम से कम 17 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का उनके भौगोलिक क्षेत्र का एक-तिहाई से अधिक हिस्सा वन से आच्छादित है. पूर्वोत्तर के राज्यों में उनके कुल क्षेत्र के फीसद के हिसाब से सबसे अधिक वन आवरण क्षेत्र हैं. जहां आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा के वन आवरण में वृद्धि हुई है, वहीं 11 राज्यों में पिछली रिपोर्ट की तुलना में वन क्षेत्र में कमी आई है. इन 11 राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय, दिल्ली, पंजाब, सिक्किम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल शामिल हैं.
इस मामूली बढ़त को देखते हुए क्या देश, राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के मुताबिक वन आवरण का अपने कुल क्षेत्र के एक-तिहाई तक विस्तार करने की प्रतिबद्धता पूरी करने में सक्षम होगा? हां, लेकिन निजी भूमि पर वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने के साथ इस तरह के नीतिगत लक्ष्यों को हासिल करने के लिए एक बार फिर वन संरक्षण कानून, 1980 में संशोधन करना होगा.
वर्तमान रिपोर्ट की आलोचना में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की वरिष्ठ शोधकर्ता कांची कोहली याद दिलाती हैं, ''आइएसएफआर की कसरत का मकसद वन आवरण की गणना करना है, न कि वनों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करना. ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि इसमें ऐसी पद्धति अपनाई गई है जिससे दिखाया जा सके कि हम राष्ट्रीय वन नीति के लक्ष्यों या देश के जलवायु संतुलन लक्ष्यों को हासिल करने के करीब हैं. आइएसएफआर 2021 में भी ऐसा ही है.''
हाल की आइएसएफआर 2021 में टाइगर रिजर्व क्षेत्र (अभयारण्यों) तथा कॉरिडोर और शेर संरक्षण क्षेत्रों में वन आवरण को शामिल करके एक और चालाकी की गई है. देश में 52 बाघ अभयारण्य हैं, जिनका कुल क्षेत्रफल 74,710 वर्ग किलोमीटर है. इनमें से 74.51 फीसद या 55,666 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र हैं. अरुणाचल प्रदेश में पक्के, छत्तीसगढ़ में अचानकमार और ओडिशा में सिंपलीपाल सबसे अधिक सघन जंगली बाघ अभयारण्य हैं.
उनके क्रमश: 96.83, 95.63 और 94.17 फीसद क्षेत्र में पेड़ हैं. पिछले एक दशक के दौरान 52 अभयारण्यों में से 20 अभयारण्यों के वन क्षेत्र में वृद्धि दर्ज की गई है और 32 अभयारण्यों में कुल 22.62 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई है. इन बाघ अभयारण्यों को कानून के तहत बेहतर सुरक्षा मिली हुई है और सुरक्षा के लिए सबसे अधिक संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में इनके वन आवरण में गिरावट आश्चर्यजनक है.
बाघ कॉरिडोर में बाघ और आबादी की आवाजाही की अनुमति है. यह भी आइएफएसआर 2021 का हिस्सा है. ऐसे 32 चिन्हित कॉरिडोर हैं. इनमें मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में फैला कान्हा-नवेगांव-नागजीरा-तडोबा-इंद्रावती कॉरिडोर 86.5 फीसद के साथ सबसे संपन्न वृक्ष आवरण के रूप में उभर रहा है. एक अन्य कॉरिडोर—मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में एक पेच-सतपुड़ा-मेलघाट—में 83.21 फीसद पेड़ हैं, वहीं ओडिशा के सिमलीपाल-सतकोसिया कॉरिडोर में 83.05 फीसद पेड़ हैं.
आंकड़े बाघ अभयारण्यों और गलियारों का आकलन करने में मदद करते हैं, लेकिन यह बहस का विषय है कि वन आवरण में शुद्ध वृद्धि को कितना सही ढंग से दर्शाया जाता है. पारिस्थितिक बेईमानी से अच्छे नतीजे की संभावना नहीं है.