करीब आठ महीने बाद, अगले साल फरवरी में पंजाब के विधानसभा चुनाव होंगे लेकिन राजनैतिक दलों, दिग्गज नेताओं के साथ चुनावी पंडितों ने भी कयासों और अनुमानों का अपना पिटारा खोल दिया है. 12 जून को चंडीगढ़ में शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर बादल ने घोषणा की कि उनकी पार्टी एक बार फिर मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ गठबंधन करेगी. बादल ने वादा किया कि अगर अकाली दल सत्ता में आया तो एक दलित उपमुख्यमंत्री बनाया जाएगा. बादल को उम्मीद है कि इससे दलित वोट उनकी पार्टी की ओर मोड़ने में मदद मिलेगी और भाजपा के साथ उसके रिश्ते टूटने के कारण जो नुक्सान हुआ है, उसकी भरपाई भी होगी.
इस घोषणा से अकाली दल के कट्टरपंथी भी प्रसन्न हैं. केंद्र के कृषि कानूनों को लेकर भाजपा से अलग होने के बाद, ग्रामीण किसानों और धार्मिक मतदाताओं के बीच अपने राजनैतिक नुक्सान को कम करने के उद्देश्य से, सुखबीर पार्टी के पुराने पंथिक एजेंडे की ओर लौटते दिख रहे हैं. हालांकि सवाल यह भी है कि आखिर बसपा की संकटग्रस्त पंजाब इकाई उनके लिए कितने काम की साबित हो पाएगी. पिछले 25 वर्षों से बसपा राज्य में कभी भी पांच प्रतिशत से अधिक वोट नहीं हासिल कर पाई है. दरअसल, यह बड़े दलों के लिए राजनैतिक शिकारगाह जैसी हो गई है जिसके नेताओं को बड़ी पार्टियां जब चाहें अपनी ओर मिला लेती हैं और बसपा नेता भी अपनी किस्मत तलाशने के लिए बेहिचक चले जाते हैं.
यह चलन पंजाब में 2002 के विधानसभा चुनावों से पहले बसपा के तब के शीर्ष नेता सतनाम कैंथ और वर्तमान मंत्री चरणजीत चन्नी के कांग्रेस में शामिल होने के साथ शुरू हुआ. बाद में, सुखबीर ने पवन कुमार टीनू, अविनाश चंदर और देस राज धुग्गा सहित बसपा के कई नेताओं को अपने खेमे में शामिल किया. दोआबा जिलों में बहुत से दलित कार्यकर्ताओं को साथ मिलाकर भाजपा ने भी काफी फायदा उठाया है.
अकाली दल के अधिकांश नेता मानते हैं कि बसपा पंजाब में एक चूकी हुई ताकत है, और दलित समूहों में अब उसका बड़ा प्रभाव भी नहीं है. जानकारों का कहना है कि 12 जून को घोषित गठबंधन दिखावे का मामला ही था. पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले आशुतोष कुमार कहते हैं, ''बसपा का असर पंजाब के दोआबा क्षेत्र की कुछ सीटों तक सीमित है. सभी दलित समूहों में इसका काडर भी नहीं है और गैर-दलितों के बीच इसकी अपील सीमित है.'' मजहबी सिखों में भी पार्टी का असर लगभग नहीं है, जो पंजाब के दलितों का एक-तिहाई हिस्सा हैं.
पंजाब में सभी दल खुद को 'दलित-हितैषी' साबित करना चाहते हैं. कांग्रेस भी अब राज्य के उपमुख्यमंत्री के रूप में एक दलित उम्मीदवार पर विचार कर रही है. राज्यसभा सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में एक सुलह समिति ने 12 जून को पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी से इसकी सिफारिश की, जिसके बाकी सदस्य पंजाब मामलों के पार्टी प्रभारी हरीश रावत और जे.पी. अग्रवाल हैं. इसके लिए रामदासी दलित मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और वाल्मीकि नेता तथा मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के करीबी राजकुमार वेरका के नाम की सबसे ज्यादा चर्चा है.
पंजाब में किसान आंदोलन जारी है और इसके कारण दलितों और अन्य समुदायों के बीच जट सिखों के खिलाफ एक ध्रुवीकरण के भी संकेत हैं. राज्य में जट सिख मतदाताओं की संख्या सिर्फ 18 प्रतिशत है लेकिन राजनीति में उनका दबदबा सबसे ज्यादा है. 1972-77 में ज्ञानी जैल सिंह को छोड़कर राज्य के सभी मुख्यमंत्री जट समुदाय से ही हुए हैं. जेएनयू के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम्स के प्रोफेसर सुरिंदर सिंह जोधका कहते हैं, ''दलित जट सिखों को हटाकर सत्ता का केंद्र बनने की इच्छा नहीं रखते, फिलहाल वे सत्ता में थोड़ा बड़ा हिस्सा मांग रहे हैं.''
अकाली दल के अलग होने के बाद भाजपा दो प्रमुख शहरी दलित समूहों, रविदास और वाल्मीकि समुदायों के बीच अपनी पैठ को मजबूत कर रही है. दोनों समूह मिलकर पंजाब में कुल दलित मतदाताओं का 37 प्रतिशत हैं और राज्य के कुल मतदाताओं में दोनों की 7-7 प्रतिशत हिस्सेदारी है. पंजाब के दोआबा क्षेत्र के जलंधर, कपूरथला, नवाशहर और होशियारपुर जिलों में उनका दबदबा है (इन जिलों में बसपा की भी मौजूदगी है). भाजपा के दो प्रमुख नेता—केंद्रीय मंत्री सोम प्रकाश और हाल ही में नियुक्त राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष विजय सांपला—रविदास समुदाय से हैं और इसी क्षेत्र से आते हैं. इसी तरह, सूफी गायक से उत्तरी दिल्ली से सांसद बने हंसराज हंस जालंधर के वाल्मीकि समुदाय से हैं. पिछले छह महीनों में आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के सदस्य अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए चंदा मांगने पंजाब के 12,500 गांवों में से करीब 7,000 में गए हैं. इनमें कई दलित समुदायों के संपर्क में रहे हैं.
बादल को मजहबी सिखों को लुभाने की कोशिश भी करनी पड़ सकती है, जो कांग्रेस और अकाली दल दोनों से नाखुश हैं. यह समुदाय राज्य के कुल मतदाताओं का 10 प्रतिशत से अधिक है, फिर भी इस समुदाय का कोई न तो राज्य में मंत्री है, न ही कोई सांसद. 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब की बेहुरतमी की घटनाओं के बाद एसजीपीसी और कुछ सिख धार्मिक नेताओं ने इस समुदाय के कुछ लोगों—जैसे डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों—को कथित रूप से निशाना बनाया तो इसको लेकर मजहबी सिख अकाली दल से नाराज हैं.
मजहबी सिख, व्यवसायिक ताकत के लिए बड़े दलित संघर्ष में भी उलझ गए हैं. पंजाब में, जट सिखों के पास 93 प्रतिशत से अधिक कृषि भूमि है, जबकि दलितों के पास केवल तीन प्रतिशत है. मजहबी सिख अक्सर पंजाब के दक्षिण-पश्चिमी जिलों (बठिंडा, फरीदकोट, मनसा, मोगा, बरनाला, संगरूर, मलेरकोटला और पटियाला) में खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते हैं. ये जिले किसान संघों के विरोध का गढ़ भी हैं.
पिछले दो दशकों में इन दोनों समुदायों के बीच खेती योग्य जमीन और दलितों की संपत्ति पर कब्जा करने के प्रयासों के खिलाफ संघर्ष देखा गया है. 2009 के बाद से जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति, ग्राम-स्तरीय समितियों के माध्यम से दलितों को पंचायत भूमि की जुताई करने के लिए लामबंद कर रही है. हजारों दलित परिवारों ने पूरे दक्षिणी पंजाब में भूमि अधिकार आंदोलनों में भाग लिया है, जिससे जट सिख किसानों और दलित मजदूरों के बीच समीकरण बिगड़ गए हैं. अब तक, जट सिख किसान दलितों के बहाने 'पंचायत की जमीन' पर खेती करते आ रहे थे. पिछले विधानसभा चुनाव में, समुदाय ने बड़े पैमाने पर या तो कांग्रेस या फिर आप को वोट दिया था.
दलित समुदाय राज्य के मतदाताओं का लगभग 31.8 प्रतिशत हिस्सा है. उसने एक नकली शराब मामले की जांच को लेकर अमरिंदर सिंह सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था, जिसमें 120 से अधिक लोग मारे गए थे. वे अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए छात्रवृत्ति में कैबिनेट मंत्री साधु सिंह धर्मसोत के खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों और पंजाब के गुरदासपुर, अमृतसर और तरनतारन जिलों में दलित सिखों को धर्मांतरित करने वाले ईसाई समूहों को सरकार के 'मौन समर्थन' से भी नाखुश हैं. पंजाब कांग्रेस के एक शीर्ष नेता का कहना है कि कैप्टन की कैबिनेट के तीन दलित मंत्री उन समुदायों से हैं जिनकी आबादी एक प्रतिशत से भी कम है. वे कहते हैं, ''मंत्रिमंडल में तीन दलित कैबिनेट मंत्री हैं और आठ जट सिख समुदाय से हैं.''
बादल को कांग्रेस का प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनने के लिए, पंजाब के दक्षिण-पश्चिमी इलाकों में आप के साथ भी कड़ी होड़ करनी होगी. फिर बसपा के साथ नए गठबंधन सहित कट्टरपंथी एजेंडे की ओर झुकाव उच्च जाति के हिंदू और उदार सिख मतदाताओं को अकाली दल से अलग कर सकती है. परंपरा से अकाली दल के साथ जट सिख रहे हैं और कभी-कभी दलित वोटों की कांग्रेस के साथ होड़ भी रही है. सो, बादल का बसपा के साथ गठजोड़ का पासा काम नहीं करता है तो उनका राजनैतिक गणित बिगड़ जाएगा.