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मध्य प्रदेशः खदबदाती खदानें

भारत में डोलोमाइट के करीब एक-तिहाई (27 फीसद) भंडार मध्य प्रदेश में है. प्रदेश में डोलोमाइट के भंडार मंडला, बालाघाट, छतरपुर, सागर, जबलपुर, कटनी, सीधी, नरसिंहपुर, सिवनी, झाबुआ, खंडवा और देवास जिलों में पाए गए हैं

खुला विचरण मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ राष्ट्रीय पार्क में बाघ
खुला विचरण मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ राष्ट्रीय पार्क में बाघ
अपडेटेड 2 मार्च , 2021

मध्य प्रदेश सरकार ने 22 जनवरी को मध्य प्रदेश गौण खनिज नियम, 1996 में एक संशोधन को अधिसूचित कर दिया. इस संशोधन के जरिए राज्य के इस्पात तथा अन्य उद्योगों में इस्तेमाल किए जाने वाले डोलोमाइट सरीखे 'गौण खनिजों' की खुदाई के लिए परमिट जारी करने की प्रक्रिया में फेरबदल कर दिया गया. मंडला की जिला मजिस्ट्रेट हर्शिका सिंह ने 30 जनवरी को सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट, जिला पंचायतों के सीईओ और जिले के डिविजनल वन अधिकारियों को पत्र लिखकर कान्हा और बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के कुछ निश्चित इलाकों में डोलोमाइट की खुदाई के परमिट देने के प्रस्ताव पर स्थानीय ग्राम सभाओं की राय और आपत्तियां मांगीं.

इस कदम का स्थानीय लोगों और पर्यावरणवादियों ने तीखा विरोध किया. यह विरोध न केवल खुदाई के पारिस्थितिकीय प्रभाव को लेकर था, बल्कि स्थानीय आदिवासी समुदायों के 'निस्तार' अधिकारों पर पड़ने वाले खुदाई की लीज के नतीजों को लेकर भी था. उनका कहना था कि यह ताजातरीन संशोधन पहले के कानूनों की भावना के खिलाफ है.

राज्य सरकार का यह संशोधन केंद्र सरकार के 2015 के उस फैसले के बाद आया जिसमें केंद्र ने 31 'बड़े खनिजों' (डोलोमाइट सहित) को 'गौण खनिजों' के तौर पर नए सिरे से वर्गीकृत कर दिया था. यह फैसला एक तकनीकी बदलाव था जो राज्यों के लिए खुदाई की लीज की अनुमति देना कहीं ज्यादा आसान बना देता है. मध्य प्रदेश सरकार के 22 जनवरी के संशोधन में खुदाई के ऐसे अधिकार के लिए ई-निविदा का प्रावधान भी शामिल है.

इस संशोधन के विरोधियों का कहना है कि इसका सबसे विवादास्पद प्रावधान धारा 18 ए(2) है, जिसका एक हिस्सा कहता है, ''(ऐसे खुदाई के प्रस्तावों) के संबंध में राय (या आपत्तियां) प्रस्तुत करने की सूचना... अधिसूचित क्षेत्रों के लिए संबंधित ग्रामसभा को और गैर-अधिसूचित क्षेत्रों के लिए ग्राम पंचायत को दी जाएगी. अगर संबंधित ग्रामसभा या ग्राम पंचायत से आपत्तियां 15 दिनों की अवधि के भीतर प्राप्त हो जाती हैं, तो आपत्तियों का निराकरण गुण-दोष के आधार पर किया जाएगा...अगर निर्धारित अवधि के भीतर कोई आपत्ति प्राप्त नहीं होती है, तो यह माना जाएगा कि ग्रामसभा/ग्राम पंचायत को (प्रस्ताव पर) कोई आपत्ति नहीं है.''

विभिन्न पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह संशोधन मौजूदा केंद्रीय कानूनों का उल्लंघन करता है. वरिष्ठ वकील और ऐक्टिविस्ट विभूति झा कहते हैं, ''पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार) अधिनियम, 1996 (पीईएसए या पेसा कानून) ऐसे मुद्दों पर निर्णय का अधिकार ग्रामसभाओं को देता है. यह कहकर कि खुदाई के प्रस्तावों पर ग्रामसभाओं की आपत्तियों का 'निराकरण गुण-दोष के आधार पर' किया जाएगा, सरकार का संशोधन साफ तौर पर उनके अधिकार को कमजोर कर रहा है.''

मुद्दा तब और पेचीदा हो जाता है जब केंद्र की तरफ से करीब तीन दशक पहले पारित किया गया पेसा कानून इस संबंध में ग्रामसभाओं को अधिकार संपन्न बनाने की कोशिश करता है, वहीं राज्य सरकारें इसके अमल के लिए नियम बनाने में हीला-हवाला करती रही हैं. अभी तक केवल पांच राज्यों—आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान—ने ये नियम बनाए हैं, जबकि मध्य प्रदेश सरकार के आदिवासी कल्याण विभाग ने इसकी प्रक्रिया अभी पिछले हफ्ते ही शुरू की है.

विभूति झा यह भी कहते हैं, ''राज्य में ग्रामसभाओं की भूमिका मध्य प्रदेश पंचायती राज और ग्राम स्वराज कानून 1993 में परिभाषित की गई है और नियम भले न बनाए गए हों लेकिन पेसा कानून राज्य में लागू है. सरकार का संशोधन इसके खिलाफ जाता है.'' इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 251 और 254 कहते हैं कि अगर राज्य और केंद्र के कानूनों के बीच कोई 'असंगति' पैदा होती है तो केंद्रीय कानून प्रभावी होगा. इस मामले में केंद्रीय कानून पेसा कानून ही है. हालांकि मध्य प्रदेश सरकार के भूविज्ञान और खनन के डायरेक्टर विनीत कुमार ऑस्टिन जोर देकर कहते हैं कि इनमें आपस में कोई अंतर्विरोध नहीं है और ''गौण खनिजों से जुड़े नियम अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभाओं के अधिकारों को कमजोर नहीं करते हैं.''

इस 22 जनवरी के संशोधन में आपत्तियां दर्ज करवाने के लिए जो वक्त दिया गया है, वह भी विवादास्पद मुद्दा है. विभूति झा का कहना है, ''ऐसे प्रस्तावों पर राय और आपत्तियां पेश करने के लिए ग्राम सभाओं को दिया गया 15 दिन का वक्त बहुत ही कम है. यहां तक कि कुछ इलाकों में तो (राय और आपत्तियां मांगने वाले) नोटिस के ग्रामसभाओं को समय से मिलने तक की कोई संभावना नहीं है.''

एक और परेशानी यह है कि डोलोमाइट की खुदाई के लिए जिन क्षेत्रों पर विचार किया जा रहा है, उनमें से कुछ कान्हा और बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व को जोड़ने वाले पारिस्थितिकी गलियारे में आते हैं, जो संरक्षित वनों के रूप में वर्गीकृत हैं. इसकी वजह से राज्य सरकार के संशोधन का एक और मौजूदा कानून के साथ टकराव पैदा हो रहा है और वह है वन्यजीव (संरक्षण) कानून, 1972 का एक सांविधिक प्रावधान. इस कानून की धारा 38-ओ(जी) कहती है कि 'एक संरक्षित क्षेत्र या टाइगर रिजर्व को दूसरे संरक्षित क्षेत्र या टाइगर रिजर्व के साथ जोड़ने वाले इलाकों को पारिस्थितिकीय रूप से अरक्षणीय इस्तेमालों के लिए बदला (नहीं) जाएगा, केवल जन हित में और टाइगर संरक्षण प्राधिकरण की सलाह पर तथा राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्वीकृति से ही ऐसा किया जा सकेगा'. खुदाई की कुछ जगहें इस प्रावधान का उल्लंघन करती हैं, वहीं राज्य सरकार के प्रस्तावित नए नियमों में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड या टाइगर संरक्षण प्राधिकरण की स्वीकृति लेने का कोई प्रावधान नहीं है.

अभी तक मंडला जिले की एक ग्रामसभा—भंवरताल—ने अपने पास-पड़ोस के इलाके में डोलोमाइट की खुदाई के संभावित स्थलों के रूप में पहचाने गए जमीन के सात टुकड़ों को लेकर आपत्ति दर्ज की है. इस ग्रामसभा ने अपनी आपत्ति में कहा है कि अगर इन इलाकों में डोलोमाइट की खुदाई होने दी जाती है, तो इसके नतीजतन यहां रहने वाले लोगों के लिए कोई साझा जमीन नहीं बचेगी, इस इलाके के संरक्षित वनों को हानि होगी और स्थानीय वन्यजीवन को भी नुक्सान पहुंचेगा.

इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस के मुताबिक, भारत में डोलोमाइट के करीब एक-तिहाई (27 फीसद) भंडार मध्य प्रदेश में है. प्रदेश में डोलोमाइट के भंडार मंडला, बालाघाट, छतरपुर, सागर, जबलपुर, कटनी, सीधी, नरसिंहपुर, सिवनी, झाबुआ, खंडवा और देवास जिलों में पाए गए हैं. डोलोमाइट राज्य सरकार के राजस्व में दूसरा सबसे ज्यादा योगदान देने वाला गौण खनिज है.

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