
कोविड की वजह से मॉनसून सत्र छोटा हुआ और शीत सत्र की संभावना धूमिल दिखाई देती है. सो, संसद खामोश है. मगर हाल के दिनों में ऐतिहासिक संसद परिसर निर्माण श्रमिकों, लॉरियों और कटते पेड़ों के कोलाहल से गूंज रहा था, जिससे विवाद, बहस और कुछ तीखी बोलियां भी उठीं. बेशक, यह सब संसद में या किसी सार्वजनिक जगह नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के एक ऑनलाइन सत्र में हो रहा था, जिसमें सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता को घुड़की मिली कि ''पांच मिनट में जवाब दें वरना ऑर्डर पास कर देंगे!'' एसजी ने 'सच्चे मन से क्षमायाचना' की और भरोसा दिलाया कि उस स्थल पर कोई 'निर्माण, तोड़-फोड़ या पेड़ों की कटाई' नहीं होगी.
यह अदालती ड्रामा उस घटनाक्रम का ताजातरीन हिस्सा था जो केंद्र सरकार—और लोकतंत्र—के प्रतीकों से गुलजार इलाका यानी नई दिल्ली के बीचोबीच तथाकथित सेंट्रल विस्टा को लेकर शानदार और लंबी लड़ाई में बदलने की संभावना से भरपूर है. मोदी सरकार ने पिछले सितंबर में ऐलान किया कि इस ऐतिहासिक अहाते को नई संसद, पीएमओ और प्रधानमंत्री आवास और 'साझा केंद्रीय सचिवालय' के विशाल खंडों के साथ नए सिरे से विकसित करने का ठेका अहमदाबाद के वास्तुकार बिमल पटेल को दे दिया गया है. इससे एक्टिविस्टों के एक समूह में अच्छा-खासा विरोध भड़क उठा, जो खासकर शहर के पर्यावरण और स्थापित धरोहर को होने वाले नुक्सान पर केंद्रित था.
सरकार ने इस योजना का बचाव यह कहकर किया कि प्रशासनिक दक्षता बढ़ाने के लिए यह जरूरी है, जबकि इसकी भारी-भरकम लागत (करीब 20,000 करोड़ रु.) ने महामारी की दौर में आई मंदी में और भीषण शक्ल अख्तियार कर ली. अप्रैल में जब खबरें आने लगीं कि पर्यावरण से जुड़ी मंजूरियां देने के लिए अहम सरकारी समितियां लॉकडाउन के बावजूद बैठकें कर रही हैं, तो योजना के विरोधियों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया. स्थगन आदेश तो नहीं मिला, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 5 नवंबर को पुनर्विकास परियोजना के विरोध वाली याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रख लिया.
इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट की भौंहें तन गईं, शायद निर्माण कार्य की रिपोर्टों और ट्रकों पर ले जाए जाते उखाड़े गए पेड़ों की नाटकीय तस्वीरों की वजह से, 7 दिसंबर को स्वत: संज्ञान लेकर सत्र बुलाया गया और सरकारी नुमाइंदे को घुड़की पिलाई गई. न्यायमूर्ति खानविलकर ने एसजी से कहा, ''हमने सोचा... संयम दिखाया जाएगा. केवल इसलिए कि स्थगन नहीं है, इसका यह मतलब नहीं कि आप काम आगे बढ़ा सकते हैं.'' घटना दिलचस्प इसलिए हो गई क्योंकि यह भूमि पूजन की तैयारियों के बीच हुई जिसमें प्रधानमंत्री को नई संसद की आधारशिला रखनी थी. अदालत ने साफ किया कि वह इसमें दखल नहीं देगी क्योंकि इससे 'स्थान में बदलाव' नहीं हो रहा.

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की कांचि कोहली कहती हैं, ''सुप्रीम कोर्ट की स्वत:संज्ञान लेकर दी गई हिदायतें अहम हैं क्योंकि सरकार और परियोजना के ठेकेदारों के 'आक्रामक' तौर-तरीकों पर लगाम कस दी गई है.'' वे इस विडंबना की तरफ इशारा करती हैं कि नई संसद के निर्माण की योजना को लेकर कोई संसदीय बहस या संयुक्त संसदीय समिति की बैठक नहीं हुई.
हालांकि भाजपा सांसद तथा लोकसभा के स्पीकर ओम बिड़ला कहते हैं कि ''संसद के दोनों सदनों ने प्रधानमंत्री और सरकार से लोकतंत्र के एक नए मंदिर के निर्माण का आग्रह किया'' और ''सरकार ने नए संसद भवन का हमारा अनुरोध स्वीकार किया.'' कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश नई प्रस्तावित इमारत के लिए कोई चीख-पुकार मचने की बात से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ''अंग्रेजों की बनाई मौजूदा संसदीय इमारत मध्य प्रदेश में मुरैना के चौसठ योगिनी मंदिर से अद्भुत रूप से मिलती-जुलती है, जबकि नया 'आत्मनिर्भर' संसद भवन वाशिंगटन डीसी के पेंटागन की नकल जैसा है.''
सेंट्रल विस्टा के पुनर्विकास पर जोर देने के अपने मंसूबे के तहत सरकार ने संसद परियोजना को साफ तौर पर प्राथमिकता दी है. मगर नए मोर्चे भी खुले हैं, क्योंकि सरकार धरोहर इलाके में कई भूखंडों का भू-उपयोग बदलने में लगी है. कई रिपोर्टें ऐसी हैं कि लगभग 2001 में वजूद में आई इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स की इमारत और बमुश्किल एक दशक पहले बने विदेश मंत्रालय के जवाहरलाल नेहरू भवन का गिराया जाना अब तय है. दिल्ली के एक प्रमुख वास्तुकार कहते हैं कि संभव है, इन अच्छी डिजाइन वाली आधुनिक इमारतों को कामकाजी वजहों के बजाए राजनैतिक वजहों से खारिज किया जा रहा है.
वैसे, इस परियोजना की व्यापकता और अमल पर तीखी आलोचनाओं और न्यायिक तवज्जो का भी असर हो रहा है. पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति ने 25 नवंबर को सीपीडब्ल्यूडी की वह अर्जी खारिज कर दी जिसमें साझा केंद्रीय सचिवालय के संदर्भ शर्तों में संशोधन की मांग की गई थी और उसे मंजूरियां मांगने में 'टुकड़ा-टुकड़ा तरीका' अपनाने का दोषी ठहराया—यही अक्सर परियोजना के विरोधियों की आलोचना का भी नुक्ता रहा है. अफवाहें ये भी हैं कि इमारतों की ऊंचाई घटाने के लिए उनके डिजाइन बदले जा रहे हैं, जो याचिकाओं में उठाया गया एक और मुद्दा है. संसद हो या न हो, अदालतें इस विवादास्पद मुद्दे की जांच-पड़ताल का असरदार फोरम हो सकती हैं.