सर्दियां हर साल अपने साथ कई जाने-पहचाने त्योहार और उत्सव लेकर आती है. पूरे भारत में यह त्योहारों के मौसम की शुरुआत होता है. दशहरा के बाद अब दीवाली आने को है. किसानों के लिए यह खरीफ की फसल काटने और रबी बोने का समय है. और जो लोग एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) में रहते हैं, उनके लिए एक बार फिर वायु प्रदूषण की समस्या से जूझने का समय है. लोग माथापच्ची करेंगे कि दिल्ली को गैस चैंबर में तब्दील करने में वाहनों, बिजली कारखानों, उद्योगों और पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने आदि का कितना योगदान है.
एनसीआर की भयावह वायु गुणवत्ता (एयर क्वालिटी इंडेक्स/एक्यूआइ) के आंकड़े अभी से सुर्खियां बनने लगे हैं. 26 अक्तूबर को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का दिल्ली का एक्यूआइ 353 था. फरीदाबाद का 323, गाजियाबाद का 365, ग्रेटर नोएडा का 384 और गुरुग्राम का 258. (यह सूचकांक 400 तक जाता है, कम संख्या का मतलब है स्वच्छ हवा). वेंटिलेशन सूचकांक जैसे दूसरे आंकड़े—प्रदूषण करने वाले कण हवा की औसत गति के आधार पर कितनी जल्दी तितर-बितर हो जाते हैं—भी चिंता पैदा करने वाले हैं क्योंकि बोर्ड के अधिकारियों का कहना है कि इस साल सितंबर-अक्तूबर में यह सूचकांक प्रति सेकंड 1,334 वर्ग मीटर है जबकि पिछले साल इस अवधि में यह 1,850 वर्ग मीटर था. मौसम में कोई बड़ा चमत्कार न हुआ तो ये आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय राजधानी में एक बार फिर दमघोंटू सर्दियां दस्तक देने वाली हैं.
इसका मतलब यह नहीं कि इस दिशा में प्रयास नहीं किए जा रहे. 2016 और 2017 में इस वार्षिक त्रासदी के जवाब में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पर्यावरण प्रदूषण (बचाव और नियंत्रण) पंचाट ने ग्रेडेड रेस्पांस ऐक्शन प्लान (जीआरएपी) के नाम से एक योजना तैयार की थी, जिसमें वायु गुणवत्ता के आंकड़े बिगड़ने पर स्वत: ही कई प्रतिबंध लागू हो जाने का प्रावधान था. यह योजना एनसीआर में 15 अक्तूबर को सक्रिय हो गई. इसमें अगले नोटिस तक डीजल जेनरेटर और कचरा जलाने पर प्रतिबंध शामिल है. फिर भी जीआरएपी मुख्य रूप से एक आपातकालीन कदम है, न कि दीर्घकालिक समाधान. आइआइटी दिल्ली में सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर रिसर्च ऑन क्लीन एयर में सहायक प्रोफेसर सच्चिदानंद त्रिपाठी कहते हैं कि कोई स्थायी समाधान निकालने के लिए विभिन्न राज्य सरकारों और उत्तरदायी विभागों की ओर से ठोस और निरंतर चलने वाला कदम उठाना होगा. वे कहते हैं, ''यह दुख की बात है कि ज्यादातर राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देती हैं.''
पिछले दो वर्षों में कुछ और कदम उठाने के प्रयास किए गए हैं. मसलन, वाहनों के उत्सर्जन को घटाने के लिए दिल्ली में उन ट्रकों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई है जिनका गंतव्य एनसीआर नहीं है—उन्हें दिल्ली से होकर गुजरने को ईस्टर्न और वेस्टर्न पेरीफेरल एक्सप्रेसवे का उपयोग करना होगा. इलाके में तेल परिशोधन कारखानों को भारत स्टेज VI ईंधन मानक लागू करने होंगे. दिल्ली सरकार ने सीएनजी बसों की संख्या 4,352 से बढ़ाकर 6,248 कर दी है. पर अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है, ढांचागत और जमीनी दोनों स्तरों पर.
वायु प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत थर्मल पावर प्लांट हैं. ये बड़ी मात्रा में सल्फर डाइ-आक्साइड छोड़ते हैं जिसे बोर्ड के एक्यूआइ में मापा जाता है. 2015 में पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्रालय ने नए नियम बनाए थे जिसमें इन संयंत्रों को 2022 तक फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (एफजीडी) सिस्टम लगाने का निर्देश दिया गया था ताकि सल्फर डाइ-आक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सके. पर लगता नहीं है कि भारत के बहुत-से थर्मल प्लांट इस समय-सीमा का पालन कर पाएंगे.
इस देरी का एक कारण ऊर्जा मंत्रालय का यह निर्देश है कि बिजली संयंत्रों को देश में ही तैयार एफजीडी सिस्टमों का इस्तेमाल करना होगा. एक सर्वोच्च उद्योग संस्था एपीपी (एसोसिएशन ऑफ पावर प्रोड्यूसर्स) के महानिदेशक अशोक खुराना कहते हैं, ''बिजली मंत्रालय के नए निर्देश के अनुसार बिजली संयंत्रों को अब चीनी उपकरणों की जगह घरेलू उपकरणों का इस्तेमाल करना होगा. इसमें कुछ समय लगेगा.'' पिछले साल एपीपी ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करके इसके लिए दो साल का समय मांगा था. 19 जून को यह मांग खारिज कर दी गई. जिन बिजली संयंत्रों ने अभी तक एफजीडी सिस्टम लागू नहीं लगाया है उनमें से एक एनसीआर में दादरी का एनटीसीपी भी है.
यह मामला इस बात से भी जटिल हो गया है कि राज्य की सीमाएं अपने यहां वायु प्रदूषण को नहीं रोक सकतीं. एनसीआर की सीमाएं तीन बड़े कृषि राज्यों—पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश—से लगती हैं. सर्दियां आने से पहले किसान रबी की फसल उगाने के लिए अपने खेतों में पड़ी पराली हटाते हैं और उनके लिए इसका सबसे आसान तरीका यही होता है कि उसे खेतों में ही जला दिया जाए. इससे बहुत बड़ी मात्रा में कणों के युक्त धुआं पैदा होता है, जो सर्दी की ठंडी हवा से मिलकर हफ्तों तक दिल्ली के ऊपर कोहरे की एक मोटी चादर का रूप लिए रहता है. यह एक जानी-पहचानी समस्या है. इससे निजात पाने के लिए कई तरह के सुझाव प्रस्तावित किए गए हैं जिनमें पराली को मशीनों से खेतों से निकालने पर किसानों को पैसा देना और पराली का बायोगैस, एथेनाल या कार्डबोर्ड के लिए इस्तेमाल करना.
लेकिन इन प्रस्तावों का अपेक्षित लाभ नहीं दिख रहा—इस साल 21 सितंबर से 18 अक्तूबर के बीच लुधियाना के पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में पंजाब रिमोट सेंसिंग सेंटर ने पराली जलाने के 5,700 से ज्यादा मामले रिकॉर्ड किए. यह हाल के रुझान का एक चिंताजनक संकेत है—2017, 2018 और 2019 में इस अवधि में यह संख्या क्रमश: 3,822, 1,533 और 1,695 थी. विशेषज्ञ इसके लिए कई वजहों की पहचान करते हैं. पराली निबटान मशीनों की उपलब्धता बेहतर बनाने की राज्य सरकारों की कोशिशों—किराए की मशीनों के सेंटरों की संख्या बढ़ाने और छोटे किसानों के लिए किराया माफ करने—के बावजूद प्रति एकड़ जमीन साफ करने पर 3,000 रु. का खर्च आता है.
पिछले साल तक सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि राज्य सरकारें किसानों से 100 रु. क्विंटल की दर से पराली खरीदें. वह अब लागू नहीं होता. इससे अब किसानों को मशीन इस्तेमाल करने औरपराली इकट्ठा करने का कोई आकर्षण नहीं बचा. तीसरा तर्क है कि केंद्र सरकार की ओर से संसद में पारित हाल के कृषि कानूनों से कुछ किसान अब भी नाराज हैं और शायद विरोध के तौर पर पराली जला रहे हैं. यह जताते हुए कि अगर सरकार किसानों की जरूरतों की उपेक्षा करती है तो किसान भी उसकी बात क्यों मानें?
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने 26 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि पराली जलाने को लेकर केंद्र नवंबर के पहले हफ्ते में अध्यादेश की शक्ल में एक कानून ला रहा है. पर कइयों का मानना है कि समाधान नए कानून में नहीं बल्कि पराली काटने के लिए किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन देने में है.