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उत्कृष्टता के आधार स्थल

ये विश्वविद्यालय राजनैतिक वजहों से सुर्खियों में रहे, लेकिन इसे इन्होंने अपनी अकादमिक प्रतिष्ठा में रोड़ा नहीं बनने दिया

चद्रदीप कुमार
चद्रदीप कुमार
अपडेटेड 6 अगस्त , 2020

भारत में लगभग 1,000 विश्वविद्यालय हैं, जो हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली को दुनिया में सबसे बड़ी प्रणालियों में शामिल है. वर्तमान में 3.57 करोड़ छात्रों के दाखिले के साथ भारत, चीन के 4.18 करोड़ के बाद नामांकन के मामले में दूसरे स्थान पर है. उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (एआइएसएचई) के अनुसार, भारत का सकल नामांकन अनुपात (जीईआर), जो उच्च शिक्षा में नामांकित 16 से 23 वर्षीय बच्चों के अनुपात को संदर्भित करता है, 2001-02 में 8.1 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में 27.4 प्रतिशत हो गया. हालांकि, यह वैश्विक औसत 36.7 फीसद से कम है. केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 2022 तक इस जीईआर को 32 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा है.

छात्र नामांकन दर में वृद्धि मुख्य रूप से निजी स्वामित्व वाली संस्थाओं के कारण हुई है. हालांकि, अमेरिका के एक थिंकटैंक ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन ने 2019 की रिपोर्ट—'भारत में उच्च शिक्षा का पुनरुत्थान' में रेखांकित किया है कि भारत उच्च शिक्षा में 'बड़े स्तर' पर अग्रसर तो हुआ है, लेकिन इसके बावजूद यह उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और वितरण में पिछड़ गया है.

इस असमानता को देखते हुए, किसी महत्वाकांक्षी छात्र के लिए सही विश्वविद्यालय खोजना अनिवार्य हो जाता है जो न केवल उसे एक सार्थक शिक्षा प्रदान करे, बल्कि उसकी रोजगार क्षमता को भी बढ़ाए. इस मामले में सालाना इंडिया टुडे बेस्ट यूनिवर्सिटी सर्वेक्षण एक बड़ा अंतर पैदा करता है और राह दिखाता है. एक मजबूत कार्यप्रणाली के साथ, यह सर्वेक्षण चार धाराओं—सामान्य, चिकित्सा, तकनीकी और कानून में, देश के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग करता है. चूंकि निजी विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा के प्रसार में बड़ी भूमिका निभाना शुरू कर चुके हैं, इसलिए उन्हें सामान्य धारा के तहत अलग से स्थान दिया जाता है.

इस साल की रैंकिंग के बारे में जो सबसे अधिक उत्साहजनक बात है वह यह है कि जो विश्वविद्यालय राजनैतिक वजहों से पिछले साल सुर्खियों में रहे, उन्होंने अकादमिक रूप से खुद को कमजोर नहीं होने दिया. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जो पिछले साल छात्रों के बीच हिंसक झड़पों, राजनैतिक हस्तक्षेप, पुलिस के मूकदर्शक बने रहने और एकतरफा गिरफ्तारी के लिए बहुत ज्यादा खबरों में रहा, सामान्य श्रेणी में देश का सबसे अच्छा विश्वविद्यालय बना हुआ है. इस स्थान पर पिछली बार भी इसी का कब्जा था.

सामान्य धारा में शीर्ष 10 एक संतुलित भौगोलिक प्रसार को भी दर्शाते हैं: उत्तर में चार, दक्षिण में चार जबकि पूर्व और पश्चिम में एक-एक. सामान्य धारा के निजी विश्वविद्यालयों में यही प्रवृत्ति देखी गई है.

निजी विश्वविद्यालय, वास्तव में, चिकित्सा शिक्षा में रैंकिंग पर हावी हैं. शीर्ष 12 चिकित्सा विश्वविद्यालयों में से सात निजी क्षेत्र में हैं. हालांकि तकनीकी और कानून की धाराओं की रैंकिंग में ऐसा नहीं देखा गया—जिसके परिणाम पिछले सप्ताह के इंडिया टुडे के संस्करण में प्रकाशित हुए थे. शीर्ष 23 तकनीकी विश्वविद्यालयों में से केवल आठ निजी तौर पर वित्त पोषित हैं. हमारे सर्वेक्षण में कोई भी निजी विश्वविद्यालय शीर्ष नौ विधि विश्वविद्यालयों में शामिल नहीं हुआ.

निजी विश्वविद्यालय बड़ी संख्या में छात्रों को आकर्षित करने में असफल रहे, उसका एक प्रमुख कारण वहां पढ़ाई के खर्च का बहुत अधिक होना है. उच्च शिक्षा के निजी संस्थानों की ओर से लिया जाने वाला शुल्क, जहां अब कुल नामांकन का तीन-चौथाई देखा जा रहा है, तकनीकी संस्थानों के मामले में सरकारी संस्थानों की तुलना में लगभग 10 गुना अधिक है.

यह निम्न-आय वाले परिवारों के छात्रों के लिए निजी विश्वविद्यालयों में दाखिला लेना असंभव बनाता है, जो उच्च शिक्षा में समानतापूर्ण भागीदारी के राह की एक बड़ी बाधा है. जैसा कि ब्रूकिंग्स की रिपोर्ट बताती है कि अगर छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वित्त पोषण में कोई वृद्धि नहीं होती, तो भारत में शिक्षा के 'बड़े पैमाने पर विकास' में अड़चनें पैदा होंगी. पड़ोसी चीन के साथ तुलना करने पर भारत की चुनौती बेहतर समझी जा सकती है. 1996 और 2001 के बीच, भारत और चीन के जीईआर एक जैसे थे. हालांकि, अगले पांच वर्षों में, चीन ने अपनी नामांकन दर को 9.76 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया, जबकि भारत अपने जीआईआर को केवल 2 प्रतिशत ही बढ़ा पाया है. और चीन के जीईआर में नाटकीय वृद्धि का कारण पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए भारी मात्रा में धन का प्रबंध किया जाना रहा.

इसलिए, भारत को अपनी पहुंच क्षमता के साथ-साथ गुणवत्ता में सुधार के लिए, अपनी उच्च शिक्षा को सस्ती करने की आवश्यकता है. इसके पक्ष में जो काम करता है वह यह है कि निवेश पर रिटर्न (आरओआई), या कोर्स के लिए खर्च किए गए पैसे के बदले में मिलने वाला शुरुआती औसत वार्षिक वेतन—जो कि 12 और 15 प्रतिशत के बीच है, कई विकसित देशों की तुलना में अधिक है. कोविड-19 संकट, जिसने शिक्षा प्रणाली में गंभीर व्यवधान उत्पन्न किया है, को भारत एक अवसर के रूप में बदल सकता है बशर्ते विश्वविद्यालयों में छात्रों की भागीदारी को मजबूत करने की दिशा में काम किया जाए.

ऐसा करने का एक तरीका यह है कि जो छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के लिए जाते हैं उन्हें यहीं रहकर भारतीय परिसरों में अध्ययन के लिए राजी किया जाए. ब्रूकिंग्स की रिपोर्ट के अनुसार, ''भारत के विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर के लिए नामांकन की संख्या में कमी और अध्ययन के लिए भारी संख्या में भारतीय छात्रों का विदेशों को रुख करना बताता है कि भारत को अपने पोस्ट ग्रेजुएट प्रोग्राम की गुणवत्ता और क्षमता दोनों को बेहतर बनाने की जरूरत है.'' महामारी के कारण विदेशों में रह रहे छात्रों को हुई दिक्कतों को देखते हुए, मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने दिशानिर्देश तैयार करने और ज्यादा से ज्यादा छात्र को भारत में ही शिक्षा लेने को तैयार करने के उपाय सुझाने के लिए एक समिति का गठन किया है और कोविड-19 के कारण विदेश से लौटने वाले छात्र इसके लिए धीरे-धीरे तैयार हो रहे हैं. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष प्रोफेसर डी.पी. सिंह की अध्यक्षता वाली इस समिति को कहा गया है कि वे अच्छे प्रदर्शन वाले विश्वविद्यालयों में दाखिला बढ़ाने की व्यवस्था तैयार करे.

इस आयोग को कोविड-19 के कारण पैदा हुई नई वास्तविकता को स्वीकारते हुए उसमें समायोजित करना होगा. विश्वविद्यालय परिसरों में चहल-पहल के जल्द लौटने की संभावना नहीं है. संस्थानों को शारीरिक दूरी के मानदंडों का पालन करने के लिए सावधानीपूर्वक योजना बनाने की आवश्यकता होगी. इसके साथ ही, उन्हें शिक्षण-प्रशिक्षण प्रक्रिया, व्यवस्था प्रबंधन, अनुसंधान, कौशल विकास और हितधारकों के स्वास्थ्य की रक्षा भी करनी होगी. इस साल जब से मार्च में विश्वविद्यालय परिसर बंद हुए हैं, आमने-सामने का शिक्षण-प्रशिक्षण-मूल्यांकन और फील्ड-लैब-आधारित अनुसंधान गतिविधियां रुक गई हैं. इस वजह से प्रौद्योगिकी-सक्षम शैक्षणिक गतिविधियों का मार्ग प्रशस्त हुआ है. इंटरनेट और मोबाइल-फोन की पैठ में भारत के महत्वपूर्ण प्रगति करने के बावजूद, शहरी और ग्रामीण तथा अमीर और गरीबों के बीच का डिजिटल विभाजन समाज के सभी वर्गों के छात्रों के लिए शिक्षा को समान रूप से उपलब्ध कराने की राह में बहुत बड़ी चुनौती है.

भारत ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में एक वैश्विक पहचान बनाने की ओर अग्रसर है और विश्वविद्यालयों को एक समावेशी समाज के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभानी होगी जहां नवाचार, प्रौद्योगिकी और कार्यान्वयन चंद लोगों तक ही तक सीमित नहीं रहें. शोधकर्ताओं की उच्च संख्या का सीधा संबंध इससे है कि किसी देश में शिक्षा की गुणवत्ता और यह उद्योगों और इस प्रकार अर्थव्यवस्था को कैसे लाभ पहुंचाता है, से है. रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रति दस लाख आबादी पर 216 शोधकर्ता हैं, जबकि चीन में 1,200, अमेरिका में 4,300 और दक्षिण कोरिया में 7,100 हैं. फिर भी, भारत में अधिकतर शोध वास्तव में विश्वविद्यालय प्रणाली के बाहर, स्वतंत्र अनुसंधान संस्थानों में होते हैं. अपने शोध में स्थानीय संदर्भों की अनदेखी के लिए भारत के विश्वविद्यालयों की अक्सर आलोचना होती है. भारतीय विश्वविद्यालय अनुसंधान के बजाय शिक्षण पर ज्यादा जोर देते हैं क्योंकि उच्च कार्यभार के कारण शिक्षकों को अध्यापन कार्य में ज्यादा समय देना पड़ता है.

भारतीय विश्वविद्यालयों को प्रासंगिक बनाने और भारत की ज्ञान अर्थव्यवस्था के केंद्र में रखने के लिए, उन्हें दो तरीकों से उत्कृष्टता के लिए प्रयास करना होगा—व्यापक पैमाने पर समाज के लिए समाधान-उन्मुख योगदान देना और एक सक्षम, पारदर्शी तथा सहभागी संरचना के माध्यम से ज्ञान पैदा करना. विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक और प्रशासनिक प्रणालियों और प्रक्रियाओं में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है. जो विश्वविद्यालय लगातार विकसित हो रही वैश्विक और राष्ट्रीय आवश्यकताओं के साथ तालमेल बनाकर रखेंगे वे हमारी रैंकिंग में साल दर साल अपना परचम लहराते रहेंगे.

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