scorecardresearch

लद्दाख टकरावः हिमालय में अशांति

लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी की घुसपैठ से देश के नवीनतम केंद्रशासित प्रदेश की नाजुक स्थिति की नई कसौटी उजागर हुई

आमना-सामना गलवान घाटी में भारतीय जवानों और पीएलए सैनिकों के बीच तनातनी के दृश्य
आमना-सामना गलवान घाटी में भारतीय जवानों और पीएलए सैनिकों के बीच तनातनी के दृश्य
अपडेटेड 12 जून , 2020

कुछ साल पहले सेना की उत्तरी कमान के आला अफसरों ने युद्ध अभ्यास में बदलाव लाने का फैसला किया. उधमपुर स्थित यह कमान जम्मू के मैदानों से लेकर उत्तराखंड की सरहद के पास दुर्गम बर्फीले रेगिस्तान तक फैले घोड़े की नाल सरीखे 2,000 किमी लंबे भूभाग की रखवाली करती है. तब पाकिस्तान के साथ युद्ध की संभावना की पड़ताल चल रही थी. उस साल इस समीकरण में चीन को भी शामिल करने का फैसला किया. यानी अगर दो देशों से एक साथ जंग लडऩा पड़े तो क्या होगा? युद्ध अभ्यास किया गया, जिसमें चीन पहले दो दिन आक्रामक रहा और उसके साथ पाकिस्तान भी आ मिला. नतीजे चिंताजनक थे.

एक योजनाकार बुझे स्वर में कहते हैं कि वायु सेना की मदद से भी सेना के लिए निपट पाना बेहद मुश्किल होगा. कुछ साल पहले मीडिया के साथ अनाधिकारिक बातचीत में मौजूदा सुरक्षा प्रतिष्ठान के एक बड़े सदस्य ने दो मोर्चों पर जंग के परिदृश्य को 'असंभव' कहकर खारिज कर दिया क्योंकि इसमें भारत के कूटनीतिक वजन और कौशल पर गौर नहीं किया गया है, जो कम अहम नहीं है.

युद्ध अभ्यास निश्चित नहीं होते—उनमें अक्सर बदतरीन परिदृश्य रचे जाते हैं और जमीन पर लडऩे वाले कमांडरों के सामने बेहद सख्त और मुश्किल हकीकतों के नजारे पेश किए जाते हैं. ऐसी ही एक हकीकत इन दिनों उस भूभाग में खुल गई है जिसे सरकार 'पश्चिमी क्षेत्र' कहती है, यानी नए निर्मित केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख का पूर्वी किनारा. यहां भारतीय सेना चीन की पीएलए (पीपल्स लिबरेशन आर्मी) के खिलाफ आमने-सामने डटी है. पीएलए ने इस साल मई में दशकों की अपनी सबसे पक्की घुसपैठों में से एक को अंजाम दिया है.

पूर्वी लद्दाख में 800 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तीन जगहों पर घुसपैठ हाल के वर्षों में सबसे बड़ी है. एलएसी के इर्दगिर्द विभिन्न जगहों पर डेरा डालकर बैठे चीनी सैनिकों की संख्या एक हजार से ज्यादा हो सकती है और उनके पीछे फौजी दस्ते, बख्तरबंद और तोपखाने भी हो सकते हैं. उतनी ही तादाद में भारतीय सैनिक भी आमने-सामने डटे हुए हैं, जैसा गलवां नदी घाटी और पैंगोंग त्सो पर टकराव के मोबाइल वीडियो में देखा गया, जो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ.

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 2 जून को एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि पीएलए 'अच्छी-खासी तादाद' में आ घुसी है, लेकिन टकराव खत्म करने के लिए बातचीत चल रही है. लद्दाख में भारतीय सीमा बिंदु चुशुल-मोल्दो में दोनों सेना के लेफ्टिनेंट जनरलों के बीच 6 जून की बैठक में यथास्थिति बहाल होने की उम्मीद है. दोनों तरफ के कोर कमांडरों की यह पहली बैठक है. सेना के अफसरों का कहना है कि पीएलए के 5 मई से पहले की स्थिति में वापस जाने से कम किसी बात पर सुलह नहीं होगी.

अधिकारियों का कहना है कि बैठक सीमा बिंदु के चीन वाले हिस्से में होगी, क्योंकि यह पीएलए ने बुलाई थी. टकराव कम करने में दो और चीजों ने बड़ी भूमिका अदा की. वे थीं: दोनों देशों के बीच मध्यस्थता के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की 27 मई की पेशकश—जिसे भारत ने नामंजूर कर दिया—और अमेरिकी विदेशी मंत्री माइक पॉम्पियो का 2 जून का अहम बयान, जिसमें उन्होंने कहा कि 'चीन एलएसी के ईर्दगिर्द अपनी फौजों को आगे ले आया है.'

नतीजा चाहे जो हो, सेना को उस अकेले भूभाग में, जहां उसका अपने दोनों दुश्मनों से आमना-सामना है, अपनी संवेदनशीलताएं और कमजोरियां हमेशा याद दिलाई जाती रहेंगी. पूर्वी लद्दाख में गलवां घाटी, जहां चीनी सैनिक फिलहाल आ धमके हैं, बमुश्किल 100 किलोमीटर की दूरी पर है और वॉचटॉवर सरीखी साल्तोरो पर्वतमाला से कौए उड़ते हैं जो सियाचिन हिमनद के ठीक सामने है जहां से भारतीय सैन्य टुकड़ियां पाकिस्तानी चौकियों पर निगाह रखती हैं.

पीएलए की टुकडिय़ां तिब्बती पठार पर सालाना सैन्य अभ्यास में शामिल थीं, जिन्हें युद्धाभ्यास खत्म होने पर रास्ता बदलकर एलएसी पर घुसपैठ के लिए भेज दिया गया. भारतीय सैन्य विशेषज्ञों को लगता है कि योजना तीन महीनों से बनाई जा रही हो सकती है. राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सलाहकार बोर्ड के सदस्य और चीन पर गहरी नजर रखने वाले लेफ्टि. जन. एस.एल. नरसिंहन (सेवानिवृत्त) कहते हैं, ''ये (घुसपैठें) स्थानीय कमांडर का फैसला नहीं थीं. योजना (चेंग्दु स्थिति) पश्चिमी थिएटर कमान में बनी होगी.''

सरकारी अफसर मानते हैं कि यह चीनी घुसपैठ 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के दो केंद्रशासित प्रदेशों के गठन का सीधा नतीजा है. इस समीकरण में लद्दाख, खासकर जमीन का वह तिकोना टुकड़ा जिसे भारतीय सेना 'सब सेक्टर नॉर्थ' कहती है, बेहद अहम हो जाता है. यह पाकिस्तान के कब्जे वाले गिलगित-बल्तिस्तान और अक्साई चिन—यानी लद्दाख के धुर-पूर्वी किनारे के बंजर—के बीच है. विश्लेषकों को कहना है कि चीनी घुसपैठ भारत को विचलित और असंतुलित करने की कहीं ज्यादा बड़ी रणनीति का हिस्सा है, वह भी उस इलाके में जिसकी भू-रणनीतिक अहमियत बढ़ना तय है, क्योंकि सरकार यहां अपने हवाई और सड़क बुनियादी ढांचे का विस्तार कर रही है, जिसके बूते सैन्य टुकडिय़ां अब तक पहुंच से बाहर रहे सरहदी इलाकों में भी गश्त कर सकेंगी.

किर्गिजस्तान में भारत के पूर्व राजदूत पी. स्तोब्दन आगाह करते हैं, ''लद्दाख भारत के लिए लक्ष्मण रेखा है. हम यहां चीनियों को आने देना गवारा नहीं कर सकते. वे यहां आ गए तो वे ऐसे इलाके में दाखिल हो जाएंगे जो तीन नदियों—श्योक, गलवान और चंग-चेन्मो की बदौलत पानी से भरपूर इलाका है.''

हिम योद्धा

नई दिल्ली स्थित छावनी इलाके में भारतीय सेना के कन्वेंशन हॉल, मानेकशॉ सेंटर की दीवार पर दाढ़ी और पगड़ी वाले एक रौबदार जनरल की बड़ी-सी ऑयल पेंटिंग सजी है. ये हैं जनरल जोरावर सिंह, जिन्होंने 1840 में जम्मू-कश्मीर के डोगरा शासकों के लिए लद्दाख पर कब्जा किया था. वे ऊंचे पहाड़ों पर युद्ध के नायक माने जाते हैं और इसी कारण भारतीय सेना के महान योद्धाओं की आकाशगंगा में शामिल हैं. चित्र में एक नक्शा भी दर्ज है जो उस महान जनरल के आकर्षक हिमालयी अभियान का मार्ग दर्शाता है.

इसी रास्ते से उनकी सेना ने जम्मू के मैदानों से निकलकर हिमालय को पार किया और अंत में हाड़ कंपाने वाली ठंड में 1841 में तिब्बत के पठार पर तिब्बत और चीन की संयुक्त सेना से लोहा लिया और परास्त किया. अंग्रेजों ने लद्दाख को स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता दी लेकिन वह जम्मू-कश्मीर के साथ तब भी बना रहा, जब कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर 1947 को भारत के साथ विलय के समझौते पर हस्ताक्षर किए और यह पूरा क्षेत्र आजाद भारत का हिस्सा हो गया.

चीन ने 1962 में भारत के साथ युद्ध के बाद अक्साई चिन पर कब्जा जमा लिया और फिर 1963 में पाकिस्तान से शक्सगाम घाटी हासिल कर लिया. इन दो घटनाओं के बाद सीमा रेखा में बड़ी तब्दीली 2019 में ही हुई. 6 अगस्त, 2019 को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह अनुच्छेद 370 को बेमानी बनाने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने का प्रस्ताव संसद में ले आए और उसे पारित करवा लिया. शाह ने कहा, ''जब मैं जम्मू-कश्मीर की बात करता हूं, तो उसमें पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर, गिलगित-बल्तिस्तान और अक्साई चिन भी शामिल हैं.'' अक्साई चिन लद्दाख के पूर्व में 37,000 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र है. शाह ने यह भी कहा कि वे अपनी जान देकर भी अक्साई चिन क्षेत्र को वापस लाना चाहेंगे.

हालांकि एक हफ्ते बाद, 13 अगस्त को विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कश्मीर के विभाजन के कारण चीनी नेतृत्व के मन में उपजी आशंकाओं को दूर करने के लिए बीजिंग के लिए उड़ान भरी. जयशंकर ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी को आश्वस्त किया कि लद्दाख की नई स्थिति का ''भारत की बाहरी सीमाओं या चीन के साथ वास्तिवक नियंत्रण रेखा पर कोई फर्क नहीं पड़ा है'' और न ही ''भारत किसी अतिरिक्त क्षेत्र पर कोई नया दावा करने की मंशा रखता है.'' वांग ने कहा कि लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश बनाने से ''सीमा क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के दोनों देशों के समझौते का उल्लंघन हुआ है, जिसमें चीन का क्षेत्र शामिल है, इसलिए यह चीन की संप्रभुता को चुनौती है.'' लद्दाख के नए नक्शे में बीजिंग ने अपने लिए खतरे की घंटी बजती देखी. इस नक्शे में दिखाया गया था कि लद्दाख एक विशालकाय क्षेत्र है, जिसमें अफगानिस्तान के बदख्शान प्रांत से लेकर गिलगित-बाल्तिस्तान के प्रांत और, अक्साई चिन के सभी हिस्से शामिल हैं.

स्तोब्दन जैसे विश्लेषकों का मानना है कि जम्मू-कश्मीर के बंटवारे से भू-राजनैतिक स्थितियां बदल गई हैं. पहली बार भारत ने अपने दावे पर खुलकर आवाज उठाई है, इससे हालात बदले हैं. वे कहते हैं, ''जब तक लद्दाख जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था, तब तक चीन खास तवज्जो नहीं दे रहा था. 6 अगस्त को 370 के निरस्त होने के बाद, चीनी कह रहे हैं कि अब लद्दाख एक अलग इकाई है और हमारी उसमें हिस्सेदारी है. इससे पहले कि भारत अक्साई चिन का अंतरराष्ट्रीयकरण करे, चीन कुछ कदम उठाना चाहता है.''

पीएलए ने 2019 में अपनी सक्रियता बढ़ाई और अधिकांश घटनाएं पश्चिमी क्षेत्र में हुईं. इससे पहले के वर्षों में ही तिब्बती पठार पर तैनाती के पैटर्न में बदलाव शुरू हो गया था. 2017 के मध्य में 73 दिवसीय डोकलाम गतिरोध के बाद से, भारतीय सैन्य योजनाकारों ने तिब्बती पठार पर पीएलए की वार्षिक अभ्यास की संख्या और तीव्रता में बदलाव की सूचनाएं देनी शुरू कर दी थीं. इसमें टैंक, लड़ाकू जहाज और स्वचालित तोपखाने शामिल हुए थे. अभ्यास का समय भी दिलचस्प था—सबसे ज्यादा अभ्यास तब हुए जब सर्दी अपने चरम पर होती है और तिब्बती पठार काफी हद तक अप्रभावित रहता है लेकिन 15 फुट ऊंची बर्फ जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के पर्वतीय दर्रों को भारत से काट देती है.

सर्दी ही वह समय है जब लद्दाख का मोर्चा, जिसकी 800 किलोमीटर लंबी एलएसी की रखवाली का जिम्मा लेह स्थित 14 कोर के पास है, अपनी सबसे कमजोर स्थिति में होता है. सितंबर से मार्च के बीच बर्फबारी से श्रीनगर-लेह और मनाली-लेह राजमार्ग कट जाते हैं जो 14 कोर की आपूर्ति के लिए महत्वपूर्ण हैं.

लेकिन श्योक नदी को पार करना पीएलए के लिए पूर्ण युद्ध से कम तैयारी वाला नहीं होगा. सैन्य रणनीतिकारों का कहना है कि यह फिलहाल दूर की कौड़ी है. सेना के उत्तरी कमान के पूर्व कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल डी.एस. हुड्डा कहते हैं, ''एलएसी के बारे में हमारी धारणा उनके लिए कोई मायने नहीं रखती. एलएसी को लेकर पीएलए की अब अपनी धारणा है. हम न्गारी प्रांत के नक्शे (तिब्बत के पूर्वी भाग) को देखें तो सारा खेल स्पष्ट हो जाता है.''

सैन्य सुधारों पर 2016 की रक्षा मंत्रालय की समिति की अध्यक्षता करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल डी.बी. शेकतकर, चीनी सेना की घुसपैठ को भारतीय सेना का संतुलन बिगाडऩे और भारत तथा अक्साई चिन के बीच कुछ फासला बढ़ाने की एक चाल के रूप में देखते हैं. वे कहते हैं, ''वे हमारे संकल्प को परखना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि हमारी ओर से कैसी प्रतिक्रिया होगी.''

हालांकि स्थानीय लोगों की चिंता कुछ और है. वे पिछले कुछ वर्षों में लद्दाख को धीरे-धीरे भारतीय क्षेत्र से निकलता मानने लगे हैं. यहां भारतीय सेना की कम उपस्थिति पर वे कहते हैं कि लद्दाख के कई क्षेत्रों को अब सचमुच चीनी क्षेत्र के रूप में देखा जाने लगा है. इससे एलएसी की स्थिति बदल-सी जाती है. एलएसी में फेरबदल को लेकर वे बहुत डरे हुए हैं. लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद के पूर्व अध्यक्ष रिगजिन स्पालबर कहते हैं, ''एलएसी क्या है? यह एक स्थायी रेखा नहीं है, यह हमेशा चीन के पक्ष में बदलती रही है.

हर घुसपैठ के साथ, एलएसी बदल जाती है और वे (चीनी) हमारी चारागाह भूमि को बेकार कर देते हैं. इस बार भी, उन्होंने ऐसा ही किया है.'' भारतीय सेना भी लद्दाखी खानाबदोशों को एलएसी के पास अपने पशुओं को चराने से हतोत्साहित करती है क्योंकि वह पैंगोंग झील के पास मध्य लद्दाख में टकराव से बचना चाहती है. वे कहते हैं कि इस समझौतावादी रवैये ने झील के पार के क्षेत्र में भारत के प्रभाव को कम किया है. ''दूसरी तरफ से तिब्बती खानाबदोश अपने पशुधन के साथ आते हैं और निरपवाद रूप से पीएलए उनके पीछे-पीछे पहुंच जाती है.''

सेना के अधिकारियों का कहना है कि सीमा या वास्तविक नियंत्रण रेखा में किसी तरह की तब्दीली संभव नहीं है. उनका यह भी कहना है कि पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं है, न ही इस गतिरोध के बीच वे पीएलए को बढ़त हासिल करने दे सकते हैं. संभव है कि इन तमाम पहल का नतीजा यह हो कि पीएलए क जवान फिलहाल के लिए लौट जाएं. मगर यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि चीन की सेना कब फिर अपना डेरा-डंडा लेकर लौट आए और फिर से वही सब शुरू हो जाए.

***

Advertisement
Advertisement