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असमः सीएए का वोट गणित

भाजपा नए नागरिकता कानून से गैर-असमी भाषी हिंदुओं को शायद कुछ खुश कर पाए, मगर पार्टी को 2021 के चुनाव में असमी भाषियों की नाराजगी दूर करने के उपाय करने होंगे.

 महिला मोर्चा गुवाहाटी में 19 जनवरी को सीएए विरोधी महिला प्रदर्शन
महिला मोर्चा गुवाहाटी में 19 जनवरी को सीएए विरोधी महिला प्रदर्शन
अपडेटेड 5 मार्च , 2020

असम के वित्त, शिक्षा और स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्वा सरमा ने 25 जनवरी को घोषणा की कि राज्य सरकार एक विधेयक पेश करेगी जिससे दसवीं कक्षा तक असमी भाषा की पढ़ाई न करने वाला असम में सरकारी नौकरी के लिए अयोग्य हो जाएगा, चाहे वह अंग्रेजी माध्यम स्कूल से क्यों न पढ़ा हो. यह मानदंड सरकारी मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश के लिए भी लागू होगा. असमी भाषा की पढ़ाई 10वीं कक्षा तक अनिवार्य कर दी जाएगी.

सरमा कबूल करते हैं कि विधेयक के पास हो जाने के बाद, उनके अपने बच्चे भी राज्य में सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य हो जाएंगे, क्योंकि वे राज्य के बाहर पढ़ते हैं और उन्होंने स्कूल में असमी भाषा नहीं पढ़ी है. हालांकि, लगभग दो महीने से नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 के खिलाफ आंदोलन कर रहे असमी भाषी लोगों का चुनावों में समर्थन हासिल करने की एवज में यह तो मामूली कुर्बानी ही होगी. बाकी देश के विपरीत, असम में प्रदर्शनकारी इससे चिंतित नहीं हैं कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र और राज्य सरकार के जोर से बने सीएए में मुसलमानों को बाहर रखा है, बल्कि उनका डर तो यह है कि यह कानून बांग्लादेश से आए अवैध हिंदू बांग्लाभाषी आप्रवासियों को नागरिकता प्रदान करेगा और असम के मुस्लिम बांग्लाभाषियों के साथ मिलकर बांग्ला बोलने वालों की संख्या उनके अपने ही राज्य में असमी बोलने वालों से अधिक हो जाएगी.

अपनी भाषा और संस्कृति को खोने का यह डर असमी बोलने वालों की घटती संख्या और राज्य में बांग्ला बोलने वालों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण उपजा है. असम में असमी भाषी लोगों का फीसद 1991 में 58 फीसद से घटकर 2011 में 48 फीसद रह गया, जबकि इसी अवधि में राज्य में बांग्लाभाषियों की संख्या 22 फीसद से बढ़कर 30 फीसद हो गई. असमीभाषियों की संख्या और भी कम हो सकती है क्योंकि माना जाता है कि बांग्लादेश से बड़ी संख्या में आए मुस्लिम आप्रवासी बांग्लाभाषी होने के बावजूद किसी भय या पहचान छुपाए रखने के लिए जनगणना में अपनी भाषा असमी लिखवा देते हैं.

मसलन, धुबरी में आप्रवासी मुसलमानों की बहुलता है, वहां आमतौर पर लोग घरों में बांग्ला ही बोलते हैं लेकिन 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, वहां 98,526 लोग असमीभाषी थे जबकि 78,000 लोग ही बांग्ला बोलते थे. अभिजित सरमा की सुप्रीम कोर्ट में 2009 में दायर जनहित याचिका से असम में एनआरसी तैयार करने का मार्ग प्रशस्त हुआ. वे कहते हैं, ''पिछले साल बने एनआरसी ने अधिकांश मुस्लिम आप्रवासियों को वैध घोषित कर दिया है, इसलिए वे अगली जनगणना में बांग्ला को मातृभाषा के रूप में दर्ज करा सकते हैं, जिससे असमीभाषी अल्पसंख्यक हो सकते हैं.''

यही कारण है कि असम और मूल निवासियों के अन्य समूहों ने 2016 से ही भाजपा के खिलाफ अपना आंदोलन जारी रखा है, जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने पहली बार अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख और पारसी आप्रवासियों को नागरिकता देने के लिए एक विधेयक संसद में पेश किया था. हालांकि मोदी सरकार ने असम के विरोध प्रदर्शनों को नजरअंदाज किया, लेकिन यह विधेयक तब राज्यसभा में पास नहीं हो सका था. राज्य में जारी विरोध प्रदर्शन के बावजूद, 2019 के लोकसभा चुनावों में एक रैली में मोदी ने कहा कि सत्ता में लौटने के बाद उनकी सरकार निश्चित रूप से इस विधेयक को पारित कराने का फिर प्रयास करेगी. उन्होंने अपना वादा निभाया और दिसंबर 2019 में सीएए अस्तित्व में आ गया.

स्कूलों में असमी भाषा की पढ़ाई अनिवार्य करने जैसी पहल 2021 के विधानसभा चुनावों में सीएए से संभावित प्रतिकूल माहौल का मुकाबला करने के लिए है. इसके अलावा मूल निवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए अगले विधानसभा सत्र में एक नया विधेयक लाने जैसी कुछ अन्य घोषणाएं भी हुई हैं. हालांकि मूल निवासियों की परिभाषा भी फिलहाल विवादास्पद है. असमिया लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान और विरासत की रक्षा के लिए सुरक्षा उपायों का प्रावधान करने वाले असम समझौते के खंड 6 पर बनी 14-सदस्यीय समिति ने अपनी 91 पन्ने की रिपोर्ट राज्य सरकार के असम समझौता क्रियान्वयन विभाग को सौंप दी है. सूत्रों के मुताबिक, समिति 1951 के पहले असम में आए सभी लोगों (या उनके वारिसों) को 'असमी' करार देगी.

समिति ने राज्य की लोकसभा और विधानसभा सीटों के साथ केंद्र और राज्य सरकार, बैंक, रेलवे और सार्वजनिक उपक्रमों की नौकरियों में असमी लोगों के लिए 80 फीसद आरक्षण की सिफारिश की है. अगर केंद्र सरकार इसे मंजूर कर लेती है तो इससे सीएए को लेकर उभरने वाली आशंकाएं शायद दूर हो जाएं. हालांकि भाजपा सूत्रों के मुताबिक, केंद्र सरकार असमी लोगों की इस परिभाषा को लेकर सहज नहीं है क्योंकि इससे गैर-असमीभाषी एक बड़ा तबका बाहर हो जाएगा, जिसमें हिंदू बंगाली, बिहारी और मारवाड़ी हैं जो भाजपा के वोट बैंक का हिस्सा हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 फरवरी को कोकराझार की एक सभा में असम के लोगों से वादा किया कि खंड 6 पर जल्दी ही अमल होगा लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने खंड 6 समिति की सिफारिश सौंपने दिल्ली आए उसके सदस्यों से मिलने का समय नहीं दिया.

अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा-असम गण परिषद-बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) गठबंधन का मुकाबला कांग्रेस-ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट गठबंधन के साथ होगा. भाजपा नेताओं का मानना है कि सीएए के विरोध के बावजूद, राज्य में जनसंख्या का गणित उसके पक्ष में दिखता है, जैसा आम चुनाव में था. भाजपा ने 2019 में नौ सीटें जीतीं जो पिछले आम चुनाव की तुलना में चार अधिक हैं. असम में पिछले पांच दशकों से अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों का विरोध हो रहा है. इन आप्रवासियों में अधिकांश मुस्लिम हैं और राज्य की कुल आबादी में उनका 35 फीसद देश में सबसे अधिक है, जिससे भाजपा के लिए असम धार्मिक ध्रुवीकरण की उर्वर जमीन है.

मुख्य रूप से आप्रवासी मुस्लिमों के समर्थन आधार पर खड़ी बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व वाले एआइयूडीएफ ने ध्रुवीकरण के लिए भाजपा की जमीन और मजबूत ही की है. सरमा की सीएए के पक्ष में दलीलों में यह भी है कि अजमल को मुख्यमंत्री बनने से रोकना है. गुवाहाटी विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर विकास त्रिपाठी कहते हैं, ''चुनाव-पूर्व गठबंधन कांग्रेस-एआइयूडीएफ को सभी मुस्लिम बहुल सीटों पर आसान जीत दिला सकता है, लेकिन उनके हाथ मिलाने की संभावना नहीं है क्योंकि इससे हिंदू वोटों का भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण हो सकता है.''

भाजपा यह भी अच्छी तरह जानती है कि सीएए का विरोध ब्रह्मपुत्र घाटी तक ही सीमित है, जहां असमीभाषी और अन्य मूल निवासी समूहों का दबदबा है और वे हिंदू तथा मुसलमान सभी अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों का विरोध करते हैं. बड़े पैमाने पर बांग्लाभाषी लोगों वाली बराक घाटी में सीएए का स्वागत हुआ है. वहीं नया कानून छठी अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट्स (बीटीएडी), कार्बी आंगलोंग और दिमा हसाओ में लागू ही नहीं होता. ब्रह्मपुत्र घाटी में भी चाय उगाने वाली जनजातियों, गैर-असमिया और गैर-मुस्लिम समूहों—जिनमें बंगाली, बिहारी, मारवाड़ी, पंजाबी और नेपाली शामिल हैं, ने सीएए को लेकर ज्यादा विरोध नहीं किया है.

राज्य के 126 विधानसभा क्षेत्रों में से 17 सीटें सीएए के दायरे से बाहर हैं. इनमें बीटीएडी की 12 और दो पहाड़ी जिलों की पांच सीटें शामिल हैं. 33 मुस्लिम बहुल सीटों पर, जहां भाजपा अब तक अपनी पैठ नहीं बना पाई है, सीएए उन्हें लड़ाई में आने का मौका दे सकता है. सरमा ने खुलकर कहा है कि हिंदू बांग्लादेशियों को नागरिकता मिल जाती है, तो वे इन 17 निर्वाचन क्षेत्रों के मुसलमानों के खिलाफ मजबूत ताकत बनेंगे.

भाजपा को उन चार असमीभाषी मुस्लिम समुदायों की जनगणना से उनका समर्थन पा जाने की भी उम्मीद है, जो सदियों से असम के रहवासी हैं और बांग्लादेशी मूल के नहीं हैं. इन गोरिया, मोरिया, देसी और जुल्हा की गणना के जरिए आश्वस्त करना है कि मूल निवासियों को मिलने वाली सुविधाएं उन्हें मिलें. पिछले साल राज्य बजट में इन समुदायों के ''समग्र विकास'' के लिए मूलवासी मुसलमान विकास निगम का प्रावधान किया गया.

भाजपा को सीएए को लेकर धार्मिक ध्रुवीकरण से उन्हें छह सीटों पर मदद मिलने की उम्मीद है, जहां हिंदू और मुस्लिम आप्रवासी मतदाताओं की संख्या लगभग बराबर है. आठ बंगाली-हिंदू बहुल सीटें पहले से ही भाजपा का गढ़ हैं, सीएए से वहां भाजपा की स्थिति और मजबूत होगी. नौ सीटों पर चाय उगाने वाली जनजातियों और गैर-असमी समूहों का वर्चस्व है, जिन्हें सीएए बहुत प्रभावित नहीं करता और 2016 में, भाजपा ने उनमें से छह सीटें जीती थीं. छठवीं अनुसूची के क्षेत्रों के बाहर की पांच आदिवासी सीटों में से सोनोवाल के निर्वाचन क्षेत्र माजुली को छोड़कर, शेष पर सीएए को लेकर बहुत विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ है. 2016 में भाजपा ने इनमें से चार सीटें जीती थीं.

फिर, 12 सीटें ऐसी हैं जहां आबादी मिली-जुली है और उनमें सीएए का खास असर होने की उम्मीद नहीं है. भाजपा और उसकी सहयोगी अगप ने 2016 में ये सभी 12 सीटें जीती थीं, हालांकि तीन सीटों पर जीत का अंतर बहुत कम था. नाराज असमिया मतदाता कुछ नुक्सान पहुंचा सकता है. लेकिन मोदी और सोनोवाल के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनेंगी वे 36 सीटें, जहां असमी भाषी ही हार-जीत तय करेंगे. भाजपा-अगप ने 2016 में इनमें 32 सीटें जीती थीं. यहां सीएए का विरोध सबसे ज्यादा है.

प्रदर्शनकारियों का एक वर्ग भाजपा और कांग्रेस की वोट बैंक राजनीति का मुकाबला करने के लिए नई क्षेत्रीय राजनैतिक ताकत खड़ी करने की बात कर रहा है. राज्य में सांस्कृतिक नायक जैसी छवि रखने वाले गायक जुबिन गर्ग कहते हैं, ''कांग्रेस ने वोट की खातिर राज्य में मुस्लिम आप्रवासियों को बसाया. भाजपा अब हिंदू आप्रवासियों को वैध नागरिक बनाना चाहती है. किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने यहां के मूल निवासियों की परवाह नहीं की है और अगप भी हमारी आवाज को मुखर करने में नाकाम रही है. हमें निश्चित रूप से एक नई राजनैतिक ताकत की जरूरत है.'' ऑल असम स्टुडेंट्स यूनियन (आसू) ने भी एक राजनैतिक पार्टी बनाने का विचार उछाला है. सरकार में शामिल वर्तमान अगप, आसू से ही निकली है और सोनोवाल तथा सरमा, दोनों ने आसू से ही अपना राजनैतिक सफर शुरू किया था.

अन्य वैकल्पिक ताकत आरटीआइ कार्यकर्ता अखिल गोगोई के नेतृत्व वाली कृषक मुक्ति संग्राम समिति है, जो राजनैतिक मोर्चा खोलने की बात कर रही है. पुलिस ने पिछले साल 12 दिसंबर को गोगोई को जोरहाट में सीएए विरोधी प्रदर्शन का नेतृत्व करने के बाद गिरफ्तार कर लिया था. बाद में उन्हें राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) को सौंप दिया गया, जिसने उन पर गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत मामले दर्ज किए. वे फिलहाल जेल में बंद हैं. गुवाहाटी विश्वविद्यालय में संचार और पत्रकारिता विभाग के प्रमुख अंकुरन दत्ता कहते हैं, ''कोई नेता न होने से सीएए के विरोध प्रदर्शन की तीव्रता धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है.''

कुछ जानकारों का मानना है कि क्षेत्रीय ताकत की अनुपस्थिति में, भाजपा के खिलाफ गुस्सा कांग्रेस के समर्थन में बदल सकता है. 2016 में मुख्यमंत्री के रूप में सोनोवाल का पक्ष लेऌने वाले लोकप्रिय कवि प्रणब कुमार बर्मन कहते हैं, ''सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान जब मैंने ऊपरी असम की यात्रा की, तो मुझे कांग्रेस के लिए समर्थन बढ़ता दिखा. हालांकि निचले असम में, जहां मुस्लिम आप्रवासी बड़े पैमाने पर हैं, धार्मिक ध्रुवीकरण अभी भी असम के मूल बाशिंदों को भाजपा-अगप के समर्थन के लिए मजबूर कर सकता है.'' ऊपरी असम में 24 असमिया बहुल सीटें हैं. 2016 में, कांग्रेस ने चार सीटें जीती थीं जबकि छह अन्य सीटें भाजपा-अगप गंठबंधन 10 फीसद से कम अंतर से जीता.

परदे के पीछे उल्फा के दोनों गुटों के साथ वार्ता भी जारी है और चुनाव से पहले एक समझौता होने की उम्मीद है जो असम के कुछ क्षेत्रों में उन्हें संवैधानिक संरक्षण दे सकता है. यह ऊपरी असम में सीएए की नाराजगी घटा सकता है. भाजपा को ताई-अहोम, चुटिया, मोटोक, मोरन, कोच-राजबंसी समुदायों और चाय जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का अपना चुनावी वादा पूरा करना अभी बाकी है.

राज्य में अपनी चुनावी जमीन मजबूत करने के लिए भाजपा के पास कुछ अन्य दांव भी हैं. इसके दूसरी सहयोगी बीपीएफ का बीटैड में दबदबा है, जहां इसने 2016 में सभी 12 सीटें जीती थी. हालांकि, बीपीएफ अविश्वसनीय सहयोगी है क्योंकि यह 2006 के बाद से ही कांग्रेस और भाजपा सरकारों का हिस्सा रही है. बीपीएफ पर निर्भरता को कम करने के लिए भाजपा ने 27 जनवरी को अलगाववादी नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड, ऑल बोडो स्टुडेंट्स यूनियन और यूनाइटेड बोडो पीपुल्स ऑर्गेनाइजेशन के साथ तीसरे बोडो समझौते पर हस्ताक्षर किए. इससे बीटीएडी में एक और बोडो राजनैतिक पार्टी बीपीएफ को चुनौती देगी.

इससे न केवल बीपीएफ की सौदेबाजी की ताकत कम होगी बल्कि भाजपा के लिए गैर-बोडो वोट को एकजुट करके बीटीएडी में कुछ सीटें जीतने में भी मदद मिल सकती है. भाजपा के लिए, यह प्रयोग महत्वपूर्ण है क्योंकि 33 सीटों पर मुसलमानों की संख्या अच्छी-खासी है और बीटीएडी की 12 सीटों को देखते हुए भाजपा के लिए मुकाबले के लिए केवल 81 सीटें ही रह जाती हैं. अगर सीएए के विरोध के कारण इन सीटों पर कांग्रेस को फायदा हुआ तो भाजपा मुश्किल में पड़ सकती है.

भाजपा के लिए नेतृत्व का मुद्दा भी मुश्किल पैदा कर सकता है. भाजपा की चुनावी कामयाबियां सरमा के जोड़तोड़ पर निर्भर हैं, जो पूर्वोत्तर में उसके सूत्रधार हैं लेकिन उन्हें इसके बदले में कोई पद नहीं मिला है. पार्टी उन्हें न केंद्र में ला सकी है, न मुख्यमंत्री बनने का उनका सपना पूरा कर पाई है. सरमा आगे भी क्या सोनोवाल के तहत बने रहेंगे, असली सवाल यही है. सरमा पहले ही संकेत दे चुके हैं कि वे 2021 का चुनाव नहीं लडऩा चाहते. यह भाजपा के लिए अच्छी खबर तो नहीं है क्योंकि पांच साल पहले जो सोनोवाल ''जातीय नायक'' कहे जा रहे थे, अब ''जातीय खलनायक'' बताए जाने लगे हैं. ठ्ठ

स्कूलों में असमी भाषा की पढ़ाई अनिवार्य करने जैसे कदमों से उम्मीद की जा रही है कि राज्य में सीएए विरोधी भावनाएं शांत हो जाएंगी और भाजपा को मदद मिलेगी

सीएए से भाजपा पर कैसा असर

भाजपा ने सहयोगी अगप के साथ मिलकर असमी भाषियों के दबदबे वाली 36 में से 32 सीटें जीतीं, जिनमें से नौ सीटों पर जीत का अंतर बहुत कम था. अब सीएए के कारण इन इलाकों में भाजपा का भारी विरोध है. भाजपा की चुनौती इन सीटों पर नुक्सान को संभालने और गैर-मुस्लिमों के वर्चस्व वाली 45 सीटों पर यथास्थिति बनाए रखने की भी है, जहां असमी भाषियों का असर कम है. भाजपा-अगप ने पिछली बार 38 सीटें जीती थीं. गठबंधन उन 12 सीटों को जीतने का लक्ष्य भी रखेगा, जहां 10 फीसद से भी कम मतों के अंतर से उसकी हार हुई थी

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