यह पहले भी हुआ है. व्यवसायी और उद्यमी आत्महत्या करते रहे हैं. व्यक्तिगत कारणों के साथ-साथ व्यवसाय की विफलता भी आत्महत्या की वजहें बनती रही हैं. मुकेश अग्रवाल, जिन्होंने एक बिजली उपकरण कंपनी चलाई और फिल्म स्टार रेखा से शादी के एक साल बाद ही 1991 में जाने ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने खुदकुशी कर ली; कारण कभी सामने नहीं आए. उस घटना के काफी बाद में, लगभग एक दशक पहले, दादू भाई, जिन्होंने पीसीएल लिमिटेड को 1,000 करोड़ रुपए के कंप्यूटर साम्राज्य में विकसित किया ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी विपणन योजनाओं में से एक की विफलता के बाद आत्महत्या कर ली, जिससे कंपनी गंभीर वित्तीय संकट में आ गई.
लेकिन वी.जी. सिद्धार्थ की मृत्यु ने ज्यादा बड़ा सदमा दिया है. उनके सूचीबद्ध कारोबार ने वित्तीय वर्ष 2019 में करीब 4,500 करोड़ रुपए का बिजनेस किया था. उनकी मौत के कारण संभवत: पैसा और राज दोनों के मिश्रण हैं—ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जो अभी अनुत्तरित हैं. जैसे-जैसे अधिक तथ्य सामने आते रहेंगे, कारण शायद स्पष्ट हो जाएंगे, लेकिन इस रिपोर्ट के छपने के लिए प्रेस में जाने के समय तक इस मामले के लेकर तथ्यात्मक जानकारियों की तुलना में कल्पित सिद्धांत ज्यादा सामने आ रहे थे.
सिद्धार्थ ने अपने बूते भारत की पहली और सबसे बड़ा कॉफी चेन—कैफे कॉफी डे खड़ी की. उन्हें प्रसिद्धि दिलाने वाली यही एकमात्र उपलब्धि नहीं थी. वे सबसे सफल प्रौद्योगिकी निवेशकों में से एक थे, जिन्होंने इन्फोसिस और फिर बाद में माइंडट्री दोनों में निवेश किया था. जबकि उनकी कंपनी ने भारी कर्ज लिया था, ऐसा लगता था कि इसे चुकाने की योजना भी बन रही थी. यह समेकित स्तर पर एक लाभदायक कंपनी थी और एलऐंडटी को माइंडट्री के शेयरों की बिक्री का उद्देश्य कर्ज को चुकाने योग्य स्तरों तक लेकर जाना था.
इसके अलावा उनकी संपत्ति उनके कर्ज से कई गुना अधिक थी. जो लोग उन्हें अच्छी तरह से जानते थे, उन्होंने आत्महत्या पत्र की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए हैं. वे उस पत्र पर हस्ताक्षर को संदिग्ध मानते हैं. रहस्य के बादलों के बीच कुछ सवाल आत्महत्या के समय को लेकर भी उठे हैं—उन्होंने वास्तव में आत्महत्या करने से दो दिन पहले उस चिट्ठी पर हस्ताक्षर क्यों किए और इसे रख छोड़ा? क्या उन्होंने इसकी योजना पहले ही बनाई थी?
पत्र में दबाव के दो कारणों का उल्लेख है—आयकर विभाग और एक निजी इक्विटी शेयरधारक—और इससे जुड़े प्रश्न भी अनुत्तरित हैं. पहली बात कि आयकर छापे तो कुछ साल पहले पड़े थे; यह स्पष्ट नहीं है कि वे पहले के छापों का जिक्र कर रहे हैं या कुछ और नए छापों का. अगर एक पीई फर्म उन पर बहुत दबाव बना रही थी तो बेंगलूरू में उनके कुछ करीबी दोस्त हैं जो शायद उनकी सहायता कर सकते थे. उदाहरण के लिए इन्फोसिस के सह-संस्थापक और वर्तमान में गैर-कार्यकारी अध्यक्ष नंदन नीलेकणि उनके प्रमुख शेयरधारकों में से एक थे. अपने पीई साझेदारों के साथ समझौते की प्रकृति—उदाहरण के लिए एक निश्चित समयावधि में फिर से खरीद जैसी बात कहती थी—भी स्पष्ट नहीं है.
बेंगलूरू के कॉर्पोरेट हलके में यह भी चर्चा है कि सिद्धार्थ एक राजनैतिक खींचतान में फंस गए. वे आखिरकार, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस.एम. कृष्णा—जो हाल ही में भाजपा में शामिल हुए थे- के बड़े दामाद थे और कर्नाटक कांग्रेस के दिग्गज डी.के. शिवकुमार के बहुत करीबी थे.
क्या यह केवल व्यावसायिक दबाव था, जिसने सिद्धार्थ को ऐसी निराशा में धकेल दिया या और भी बहुत कुछ है जो सामने आना बाकी है? कर्नाटक के बिजनेस सर्किल में उनका बड़ा सम्मान था और वे निष्कलंक थे. कर्नाटक के एक प्रमुख कॉफी उगाने वाले परिवार में जन्मे सिद्धार्थ मीडिया से दूरी बनाए रखते थे. मितव्ययी थे, उनमें कोई अवगुण नहीं दिखता था, और उन्होंने अपने दम पर कंपनी को बहुत नीचे से उठाकर चोटी पर पहुंचाया था. हां, वह कर्ज में थे, लेकिन उन्हें इससे बाहर आने के रास्ते भी पता थे. तो फिर क्यों? क्या हम कभी इस सचाई को जान पाएंगे कि वी.जी. सिद्धार्थ ने क्यों दी अपनी जान?
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