भाजपा के जून 2018 में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ अपने अवसरवादी गठजोड़ से अलग हुए लगभग एक साल का समय बीत चुका है. फिर भी राज्य में राजनैतिक शून्यता बरकरार है.
शोपियां की वाची सीट से पीडीपी के पूर्व विधायक एजाज अहमद मीर की तरह कई लोग इस 'राजनैतिक सूखे' को समाप्त करने के लिए जल्द विधानसभा चुनावों की बात कर रहे हैं. मीर जो कह रहे हैं, उसके बड़े मायने हैं. वे कहते हैं, ''लोग घुटन महसूस कर रहे हैं. राज्यपाल शासन लोकप्रिय सरकार की जगह नहीं ले सकता है.''
चुनावों में देरी से नई दिल्ली और राज्य में भारत समर्थक मुख्यधारा की पार्टियों के बीच अविश्वास गहरा ही रहा है, जिसकी जगह 2014 में वैचारिक रूप से अलग पीडीपी-भाजपा गठबंधन के सत्ता में आने के बाद पहले से ही काफी सिकुड़ गई थी.
लोकसभा सांसद हसनैन मसूदी 1996 के चुनाव की ओर इशारा करते हैं जो छह साल लंबे केंद्रीय शासन के बाद चरम उग्रवाद के बीच कराया गया था. वे कहते हैं, ''आज स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है, फिर भी चुनाव नहीं हुए. इससे नीयत पर सवाल उठते हैं.''
जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुसार, राज्यपाल शासन के छह महीने बाद राष्ट्रपति शासन लग जाता है जो 19 दिसंबर, 2018 को प्रभावी हो गया था. इसे आगे बढ़ाने की प्रक्रिया चल रही है.
विधानसभा भंग होने के छह महीने के अंदर अगर चुनाव नहीं कराए जाते तो चुनाव आयोग को स्पष्टीकरण देना पड़ता है. नेशनल कॉन्फ्रेंस सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर चुनाव आयोग से जवाब मांग रहा है. एनसी के घाटी प्रमुख नसीर असलम वानी पूछते हैं कि अगर लोकसभा चुनाव हो सकते हैं तो विधानसभा क्यों नहीं?
चुनाव आयोग ने संसदीय चुनाव के बाद अपनी रिपोर्ट में विधानसभा चुनाव की बात की लेकिन सूत्रों के मुताबिक दिल्ली और श्रीनगर नवंबर से पहले चुनाव कराने के पक्ष में नहीं हैं. अमरनाथ यात्रा के अलावा, यह पर्यटन का मौसम है और घुमंतू बकरवाल जनजातियां गर्मियों में पहाड़ों पर चली जाती हैं. सब सामान्य रहा, तो चुनाव महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश के साथ हो सकते हैं.
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