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फुरसत-पाइरेसी से क्या लड़ना

बेहतर है पाइरेसी पर ध्यान न दिया जाए. आज कोई नकली किताब पढ़ रहा है, कल असली पढ़ेगा.

राजवंत रावत
राजवंत रावत

आपको पता है? रांगेय राघव जी (हिंदी के मूर्धन्य कथाकार) अपनी किसी नई किताब की पांडुलिपि कपड़े की एक गठरी की शक्ल में लेकर आते थे. (हरिवंश राय) बच्चन जी (मशहूर हिंदी कवि, गद्यकार) अपने लिखे हुए में दसियों बार करेक्शन किया करते थे. उनका जन्मदिन वर्षों तक हमारे घर पर मनाया गया. कमलेश्वर जी (नई कहानी आंदोलन के प्रमुख नाम) एक ही बैठक में कई-कई पन्ने लिख जाते थे, बिना कहीं काटछांट के, और राइटिंग ऐसी जैसे मोती पिरोए हों.' मीरा जौहरी राजपाल इसी तरह से एक के बाद एक वाकए/संस्मरण बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनाती जाती हैं, कुछ इस तरह डूबकर कि बाईं हथेली के बगल में रखी चाय ठंडी होते जाने का भी होश नहीं रहता. 2019 की अप्रैल की एक शाम, पुरानी दिल्ली के कश्मीरी गेट इलाके में राजपाल ऐंड संस के दफ्तर की कुर्सी पर होने के एहसास में वे एकाएक वापस लौटती हैं. अब उनके चेहरे पर उतरी उदासी पढ़ी जा सकती हैः ''काश! वे तमाम पांडुलिपियां आज हमारे पास होतीं तो हिंदी साहित्य की कितनी बड़ी पूंजी, एक धरोहर की शक्ल में हमारे हिस्से में होती."

तिरसठ वर्षीया मीरा भारत में हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित प्रकाशनों में से एक, 107 साल पुराने प्रकाशन समूह की मुखिया हैं, जिसे आर्यसमाजी महाशय राजपाल ने 1912 में लाहौर में शुरू किया था. एमबीए करने के बाद मीरा मार्केटिंग कंसल्टेंसी में रम गई थीं. और यह व्यवसाय उनकी पहली प्राथमिकता नहीं था. पर पिता विश्वनाथ की सीख पर धीरे-धीरे समझ आने लगा, और 2013 में उनके निधन के बाद विरासत का जिम्मा उन्हीं पर आ गया. खुद कुर्सी पर बैठने के बाद उन्हें पता चला कि चुनौतियां कितनी बड़ी हैं. वे बेबाकी से कहती हैं कि उन्हें ठीक-ठीक नहीं पता, उनके यहां से अब तक कितनी किताबें छपीं. ''बंटवारे के वक्त पापा ज्यादा चीजें नहीं ला पाए थे.

उन दिनों स्याही से मोटे-मोटे कागजों पर लिखी पांडुलिपियों की पोथियां होती थीं. एक ही किताब का बहुत सारा मटीरियल हो जाता था. अब तो कई बार किसी के पूछने और किताब का नाम बताने पर पता चलता है कि फलां किताब हमारे यहां से छपी थी." हां, नई-पुरानी करीब 800 किताबें अब भी आगे-पीछे छप रही हैं.

इसी बीच, वे मसूरी के पास लैंडोर के वासी, अंग्रेजी के मशहूर कथाकार रस्किन बांड से मोबाइल पर देर तक बतियाती हैं और उनकी चार किताबों के अनुवाद अगले महीने उनके 85वें जन्मदिन पर उन्हें भेंट करने का वादा करती हैं. अनुवाद के उपक्रमों में यह आर.के. नारायण और मुल्कराज आनंद सरीखे लेखकों की सूची की ताजा कड़ी है. ''राजपाल" शुरू से ही क्लासिक्स और पॉपुलर साहित्य के बीच संतुलन साधकर चलता आया है. पचास के दशक में उर्दू शायरी को लोकप्रिय बनाने के लिए मशहूर शायरों की रचनाएं देवनागरी में छापने की उसकी पहल बेहद कामयाब और चर्चित भी हुई. बच्चन, विष्णु प्रभाकर, महादेवी वर्मा और अमृतलाल नागर वगैरह के रचे क्लासिक्स तो थे ही उसके पास.

जानकार बताते हैं कि दूसरे कई बड़े प्रकाशकों के उलट, राजपाल की शुरू से ही सरकारी खरीद पर ज्यादा निर्भरता नहीं रही. इसीलिए उसने साहित्य के साथ-साथ धर्म-अध्यात्म, राजनीति, खानपान और दूसरी कई विधाओं में किताबें छापीं, जिनके जरिए वह पाठकों के एक बड़े दायरे तक पहुंच सके. इसीलिए हिंदी और उर्दू के स्वनामधन्य लेखकों की कृतियां छापने का अधिकार होने के बावजूद मीरा नए लेखकों की तलाश में खुद साहित्य उत्सवों और अनौपचारिक जमावड़ों में दिल्ली और देश भर में नियमित घूमती-फिरती हैं.

ओडिया की मशहूर लेखिका प्रतिभा रॉय के साथ वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में डिनर करते दिख जाती हैं तो अपने समूह के नए लेखक प्रवीण कुमार के उपन्यास रंगीला रंगबाज का शहर को दो पुरस्कार मिलने पर जश्न पार्टी में भी. वे कश्मीर पर आई अशोक कुमार पांडेय की गंभीर शोध पुस्तक कश्मीरनामा के 15 महीने में तीन संस्करण छपने का भी जिक्र करती हैं तो ममता सिंह, दिव्या विजय और नई जुडऩे जा रहीं लेखिका तराना परवीन और कई अन्य का भी उतनी ही शिद्दत से जिक्र करती हैं.

इसी समूह के लिए हिंदी और उर्दू कविता की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें कारवाने गजल और कविता सदी संपादित कर चुके सुपरिचित कवि, आलोचक सुरेश सलिल एक और दिलचस्प पहलू खोलते हैं, ''(अमृतलाल) नागर जी को लिखने में आसानी हो, इसके लिए विश्वनाथ जी ने सत्तर के दशक में उन्हें टेपरिकॉर्डर खरीदकर दिया, इस अनुरोध के साथ कि वे इसमें बोलकर रिकॉर्ड करवा दें, फिर उसे सुनकर उतार लिया जाएगा. नागर जी को पहले नियमित लिखने की उतनी आंतरिक प्रेरणा नहीं थी. लेकिन विश्वनाथ जी के संपर्क में आने के बाद तो उन्होंने मानस का हंस, नाच्यो बहुत गोपाल और खंजन नयन जैसे कई कालजयी उपन्यास दिए." विश्वनाथ के मित्र रहे और साहित्यिक प्रकाशन से जुड़ी किसी भी मुश्किल में मीरा के लिए एक फोन की दूर पर मौजूद सलिल अब विद्रोही कविताओं का एक संकलन तैयार कर रहे हैं.

फिर चुनौतियों की ओर लौटें. पाइरेसी! ''भूल जाइए. यह हारी हुई लड़ाई है. हमने हाथ खड़े कर दिए हैं. बेहतर है, उस ओर ध्यान न दिया जाए. हम यह सोचकर सुकून कर लेते हैं कि आज कोई पाठक हमारी नकली किताब खरीद रहा है, कल असली खरीदेगा. पढ़ तो रहा है. यह भी सच है कि हिंदी के पाठकों की तादाद फिर बढ़ रही है. मोबाइल पर ही सही, लोग पढ़ रहे हैं." इस पहलू पर मीरा को बेटे प्रणव की मदद मिल रही है, जो अपने समूह के साहित्य को ई-टेक्नोलॉजी पर शिफ्ट करने में जुटे हैं. मीरा एक बार फिर जोड़ती हैं, ''4-6 महीने में हमें विदेशों में किताब भेजनी नहीं पड़ेगी. कोई भी ऑर मिलने पर वहीं कहीं छापा और निकालकर दे दिया."

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