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थिएटरः बड़े विजन की बानो

दो पीढ़ी पहले राजस्थान में शेखावाटी के डूंडलोद से आए उनके परिवार में रिश्ते बैठाने वाली बुआ का संदेश आ पहुंचाः डॉक्टर लड़का देखा है, जल्दी गांव आ जाओ वरना हाथ से निकल जाएगा.

किस्तम बानो
किस्तम बानो

असम की रंगकर्मी किस्मत बानो के नाटकों में कल्पना कहां शुरू होती है और कहां उनकी खुद की जिंदगी के वाकए उसमें आ मिलते हैं, फर्क करना मुश्किल होता है. तथ्य और गल्प दूध और पानी या और नजदीक जाकर कहें तो हवा और नमी की तरह एकमेक होते हैं. और उनके नाटकों में भावनाओं की नब्ज कुछ इस तरह धड़कती है कि कोई दर्शक उससे तटस्थ होकर नहीं बैठ सकता. यही वजह थी कि ब्रिटिश लेखक माइकल मोरपुरगो के बाल उपन्यास वार हॉर्स को आधार बनाकर तैयार उनका नया नाटक द हॉर्स भी उसी तरह सांस लेता, धड़कता लगता है. पिछले हफ्ते बीसवें भारंगम के तहत दिल्ली के एलटीजी सभागार में इसके मंचन के बाद दिल्ली जैसे महानगर के ढीठ संवेदनाओं वाले दर्शकों के चित्त में भी हलचल थी.

जब तक कोई किस्सा, कोई कथा उनके जज्बात को न छुए, वे उसके मंचन के बारे में सोचती भी नहीं. यही वजह है कि रंगमंच की दुनिया में उतरने के बाद से पिछले पांच साल में उन्होंने सिर्फ तीन नाटक किए हैं, वह भी 1-1 घंटे के. और मंच पर कुल तीन घंटे की ही इन जज्बाती प्रस्तुतियों ने उन्हें भारतीय रंगमंच की दुनिया में चर्चा के केंद्र में ला खड़ा किया है. तीन साल पहले भारंगम के लिए नाटकों के चयन के दौरान चयन समिति के तीन सदस्यों में 25 वर्षीया किस्मत की अपनी जिंदगी पर तैयार नाटक बानो को देखने के बाद अच्छी-खासी बहस हो गई थी.

अपनी जिंदगी के किस्से को बुनने के लिए उन्होंने शेक्सपियर के नाटक किंग लियर के प्रसिद्ध संवाद को एक धागे के रूप में लिया थाः ''मेरी तीन बेटियों में से कौन मुझे सबसे ज्यादा प्रेम करती है."

अभिनय में कथा की मूल संवेदना को पकड़े रहना, बिलावजह फैलाव से बचना, मितव्ययी संगीत और सेट डिजाइन, साथ ही सौंदर्यबोध को उभारती प्रकाशसज्जा. उनका हस्ताक्षर इसी के आसपास बनता है. बानो में यह सब तो था ही, भोगा यथार्थ होने की वजह से अभिनय पूरे द्वंद्व को और भी उभार रहा था.

निर्णायक उलझ गए. रंगमंच के हलकों में तब तक उनका नाम कोई जाना-पहचाना नहीं था. उस साल वह नाटक भारंगम के लिए चुना न जा सका. लेकिन ''कौन है यह किस्मत बानो?" यह जिज्ञासा थिएटर के हलकों में तैर चुकी थी.

किस्मत के जीवन के कतरे जितना बानो में थे, पांच साल पहले तैयार उनके पहले ही नाटक हेलेन  में कम नहीं थे. मूक-बधिर-नेत्रहीन अमेरिकी लेखिका हेलेन केलर को मंच पर उतारते हुए उन्हें वह दिन याद आया जब निकाह के लिए लड़के वाले उन्हें देखने आए थे.

उस पूरे प्रकरण पर से परदा हटाने से पहले वे भारंगम के आयोजक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के चहल-पहल भरे परिसर को घूम-टहलकर देखती हैं.

थोड़ी सिमटी-सहमी सी, लिपस्टिक लगे होंठों पर हल्की मुस्कान के साथ. ''क्या डायरेक्टर साहब से मिल सकती हूं?" उनका भोला संकोच पकड़ा जाता है.

वह बात 2014 की थी. असम के शीर्ष रंगकर्मी युगल, सीगल थिएटर ग्रुप के बहरुल इस्लाम और भागीरथी के साथ उन्होंने काम शुरू किया ही था. तब तक पिता कुछ न बोले. गुवाहाटी से बाहर होने वाले नाटकों के मंचन के दौरान मम्मी-पापा किस्मत के साथ जाते.

नाते-रिश्तेदारों में खबर फैली कि 'लड़की बिगड़ गई'. दो पीढ़ी पहले राजस्थान में शेखावाटी के डूंडलोद से आए उनके परिवार में रिश्ते बैठाने वाली बुआ का संदेश आ पहुंचाः डॉक्टर लड़का देखा है, जल्दी गांव आ जाओ वरना हाथ से निकल जाएगा. अगले ही हफ्ते किस्मत डूंडलोद में.

भीतर से खौफजदा, सिसकती-कसमसाती, ऊपर से बनीठनी और नकली मुस्कान अतिरिक्त. ठुड्डी पर हाथ के इशारे से वे बताती हैं कि देखने वालों में मुल्ला-मौलवी भी थे. खड़ा कराओ, दांत देखें, घर के सब काम कर लेती है? 18-19 की जगती संवेदनाओं वाली एक अल्हड़ की सांसें बिरादरी की रूढिय़ों के नीचे घुटी जा रही थीं.

दूसरी सुबह उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी खुशखबरी लेकर आईः लड़की नाटी है. ''अपनी दिखाई के वक्त मैं जैसे अंधी हो गई थी और गूंगी-बहरी भी. हेलेन नाटक लिखने और मुख्य किरदार करने का फैसला मैंने इसीलिए लिया क्योंकि उस 'तजुर्बे' के बाद मैं भीतर से भरी हुई थी. पढऩे में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन अब सिर्फ थिएटर मेरी उम्मीद की खिड़की था, वह भी खुद कुछ ठोस कर दिखाने पर. एक बच्चे के कोर्स की किताब में हेलेन की आत्मकथा द स्टोरी ऑफ माइ लाइफ पढ़कर भीतर ही रो पड़ी. डायलॉग लिखती, काटती-छांटती, ऐक्टर ढूंढती." वे बताती जाती हैं.

हेलेन ने उनकी दुनिया बदल दी. हौसला और बढ़ा जब संगीत नाटक अकादमी ने इस नाटक के लिए 3 लाख रु. की ग्रांट दी. तब तक नाटक, रंगमंच, थिएटर से अनजान घर वालों को भी भरोसा होने लगा. हेलेन बंगाल में थिएटर का मक्का माने जाने वाले नांदिकार ग्रुप (कोलकाता) के फेस्टिवल में और ढाका (बांग्लादेश) में भी सराहा जा चुका है. मार्च के शुरू में यह नेपाल अंतरराष्ट्रीय थिएटर फेस्टिवल के तहत काठमांडो और जनकपुर में होने जा रहा है. फिर लौटकर ग्वालियर में.

छोटी, दुबली-सी किस्मत अब दर्जन भर लोगों की टीम के साथ देश और दुनिया भर में घूमती हैं. हिंदी, अंग्रेजी और असमिया में वे दक्ष हैं पर उर्दू में 'दिक्कत' होती है. ''3-4 मौलवी बदले थे तब कुरान पढ़ पाई थी." पूरी तरह से पिघल चुके, आर्मी कॉन्ट्रैक्टर पिता ने अब गुवाहाटी के धीरेनपाड़ा इलाके में अपने घर के ऊपर ही बिटिया के लिए स्टुडियो बना दिया है, जहां पिछले साल किस्मत ने बाकायदा अपने ग्रुप विंग्स थिएटर का पहला फेस्टिवल किया. बड़े हो चुके पंखों के साथ अब उडऩे लगी थीं किस्मत.

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