scorecardresearch

सनातनी हिंदू गांधी का हिंदुत्व

महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती हमें यह अवसर देती है कि यदि हम चाहें तो अपने समय में गांधी की प्रासंगिकता और जरूरत पर नए सिरे से बात शुरू कर सकते हैं. इस कोशिश में जब हम अपने वर्तमान को देखते हैं, अपने देश, अपने समाज, अपनी राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं, इसकी दिशा और बनते हुए स्वरूप पर विचार करते हैं, तो हमें पूरी आक्रामकता और उन्माद के साथ 'हिंदू', 'हिंदुत्व', 'हिंदू धर्म' और 'हिंदू राष्ट्रवाद' के उग्र समर्थन के स्वर सबसे ऊपर सुनाई देते हैं. ठीक इसी जगह, हिंदू गांधी अचानक बेहद प्रासंगिक होते हुए हमारी आज की एक बड़ी जरूरत बन जाते हैं.

अलामी
अलामी
अपडेटेड 12 फ़रवरी , 2019

गांधी निष्ठावान, सनातनी हिंदू थे. गांधी के जीवन, धर्म, राजनीति, चिंतन में, स्वतंत्रता संघर्ष में या कह लें कहीं भी, उनका हर क्षण धर्म से प्रच्छन्न था. उसी से प्रेरित-निर्देशित था. उनके पास धर्मविहीन या धर्म से परे कुछ भी नहीं था. गांधी का यह धर्म, उनके व्यक्तिगत जीवन में असंदिग्ध रूप से हिंदू था और अन्य दूसरे धर्मों के प्रति पूरी तरह सहिष्णु और विनीत था. इस धर्म का 'ईश्वर', इसकी 'आध्यात्मिकता', 'आत्मा' और 'नैतिकता' उनकी अपनी गढ़ी हुई या चुनी गई परिभाषाओं से तय होती थी. उनकी व्यक्तिगत जीवन शैली और आचरण से परिभाषित होती थी.

गांधी के जीवन के आरंभिक संस्कार जैन धर्म के पांच सूत्रों अहिंसा, अस्तेय, सत्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य से बने थे. गांधी कमोबेश इन्हें अपने जीवन में, अपने कर्म और दर्शन में हमेशा उतारने की कोशिश करते रहे. गांधी के धार्मिक हिंदू का स्वरूप इतना स्पष्ट था कि देश में सब बिना किसी शंका के उन्हें 'हिंदू' मानते थे. मुस्लिम लीग और जिन्ना उन्हें हमेशा सिर्फ हिंदू मानते रहे. साम्यवादी उन्हें हमेशा सांप्रदायिक हिंदू मानते रहे. आंबेडकर उन्हें बुरा सवर्ण हिंदू मानते थे. गांधी ने जब 1920 में अपनी पहली बड़ी राजनैतिक लड़ाई शुरू की, तब तक वे देश के पारंपरिक और कट्टर हिंदुओं के लिए भी, राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता संघर्ष और अंग्रेजों के शासन से मुक्ति की आकांक्षा के साथ-साथ, उनकी हिंदू आस्था के रक्षक और हिंदू धर्म के पुनरुद्धार का प्रतीक भी बन चुके थे. नीरद सी. चौधरी ने अपनी आत्मकथा में एक रोचक प्रसंग का उल्लेख किया है. 1921 की शुरुआत में एक दिन वे किशोरगंज (बंगाल) के एक तालाब में नहाने गए.

"नहाने वालों की भीड़ में एक ब्राह्मण भी था जो मंत्र/'लोक बुदबुदा रहा था, अपना जनेऊ धो रहा था. उसी के पास नहाते हुए कुछ लोग गांधी के आंदोलन की बात कह रहे थे. मैं भी उनमें शामिल हो गया. अचानक एक सूखे हुए, बूढ़े प्राणी ने अपनी चमकती आंखों से मुझे देखा और ऐसी आवाज में, जो अपनी धर्मांधता, कर्कशता और आनंद में डूबी थी, कहा वह (गांधी) हिंदूवाद को पुनर्स्थापित करने आया है."

गांधी ने खुद भी, 12 अक्तूबर, 1921 के यंग इंडिया में घोषणा की थीः ''मैं अपने को सनातनी हिंदू कहता हूं क्योंकि

1. मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और समस्त हिंदू शास्त्रों में विश्वास करता हूं और इसीलिए अवतारों और पुनर्जन्मों में भी मेरा विश्वास है. 2. मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करता हूं. इसे मैं उन अर्थों में मानता हूं जो पूरी तरह वेद सम्मत हैं लेकिन उसके वर्तमान प्रचलित और भोंडे रूप को नहीं मानता.

3. मैं प्रचलित अर्थों से कहीं अधिक व्यापक अर्थ में गाय की रक्षा में विश्वास करता हूं.

4. मूर्तिपूजा में मेरा विश्वास नहीं है.

पर बावजूद इस सबके, गांधी का यह हिंदू धर्म या उनका हिंदुत्व, देश के तत्कालीन प्रमुख हिंदू संगठनों, 'हिंदू महासभा' और 'राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ' के हिंदुत्व से पूरी तरह अलग था. इन हिंदू संगठनों का प्रमुख या कि अंतिम लक्ष्य, 'हिंदू भारत' की स्थापना था. गांधी के विचारों, कर्म और उद्देश्यों में 'हिंदू भारत' कभी नहीं रहा. गांधी की प्रार्थना सभाओं में कुरआन का पाठ होता था. बाइबल और गीता उनके लिए बराबर का महत्व रखती थीं. गांधी का भारत हिंदू भारत न हो कर वह भारत था, जिसमें समस्त स्तरों पर समानता के साथ, देश के समस्त धर्मों, जीवन पद्धतियों, उपासना पद्धतियों, रीति-रिवाजों का समावेश हो. हिंदू संगठन गांधी के इस भारत को अस्वीकार करते थे. उनके पास 'हिंदू भारत' की अपनी कुछ धुंधलायी, अस्पष्ट व्याख्याएं थीं.

ये व्यावहारिकता की जमीन पर कभी परखी ही नहीं गईं थीं. उनका 'हिंदू भारत' का स्वप्न अपर्याप्त या अधूरे या अप्रामाणिक इतिहास के साथ, सदैव अवास्तविकताओं में विचरण करता रहा. कमोबेश उसी तरह, जिस तरह पाकिस्तान के समर्थकों और जिन्ना के पास, विभाजन तक भी पाकिस्तान के संपूर्ण ढांचे, स्वरूप, भविष्य आदि पर कोई स्पष्टता नहीं थी. इन हिंदू संगठनों का हिंदुत्व जिस हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति की महानता और गौरव से जन्म लेता था, जिससे प्रेरणा पाता था, उसका अंतिम सार्वभौम राज्य लगभग डेढ़ हजार साल पहले खत्म हो चुका था.

बाद के समय में, दूसरी सहस्राब्दी के आसपास एक नया, विदेशी और अपने आपमें बेहद मजबूत धर्म 'इस्लाम', इस देश में आया. यह दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में बहुत तेजी से फैला था. यह धर्म अनेक राजनैतिक विषमताओं से तो भरा ही था, अपने मूल इस्लामी चिंतन और धार्मिकता से भी पूरी तरह भटका हुआ था. पर राजनैतिक सत्ता हाथ में होने के कारण वह यहां अपना नियंत्रण और प्रभाव बढ़ाता गया. इस्लाम के लगभग पांच सौ वर्षों के शासन के बाद, फिर एक और नए, बाहरी और उतने ही बेहद मजबूत धर्म, 'ईसाई धर्म' ने देश की सीमाओं में प्रवेश किया.

इस्लाम के विषम और भटके रूप से बिल्कुल अलग, यह एक सुगठित, विकसित और आर्थिक रूप से संपन्न हो रही सभ्यता का धर्म था. विकसित इसलिए, कि इसमें नवजागरण लगभग चार सौ साल पहले शुरू हो गया था. इसमें सामाजिक, औद्योगिक, राजनैतिक क्रांतियां हो चुकी थीं. शिक्षा का आधारभूत चिंतन विकसित हो चुका था. इस धर्म के समस्त बाहरी और भीतरी ढांचे बेहद मजबूत थे. इंग्लैंड में इस धर्म की ऐसी विशाल राजनैतिक सत्ता थी, जो आधा विश्व नियंत्रित करती थी. इसके पास विज्ञान, पूंजी, आधुनिक हथियार, ज्ञान, नई चेतना और साहस था. इसने देश में 'हिंदू' और 'इस्लाम', दोनों धर्मों के समाजों, उनके राजनैतिक और आर्थिक ढांचों को प्रभावित या छिन्न-भिन्न करना शुरू कर दिया.

1857 ई. में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी और मुगल साम्राज्य, दोनों समाप्त हो गए. उस समय तक दुनिया में बहुत-से नए विचार, नई धारणाएं, नए आंदोलन जन्म ले चुके थे और फैल रहे थे. ये धर्म की जड़ता, रूढिग़त सामाजिक ढांचे, वर्चस्ववादी राजनीति से अलग थे. ये मनुष्य की समानता, समान अधिकारों और नई सामाजिक चेतना और आर्थिक समानता के संघर्षों से प्रेरित थे. ये विचार और आंदोलन 'धर्म की सत्ता' से अलग 'मनुष्य की सत्ता' पर केंद्रित थे. इस समय तक धार्मिक राष्ट्र एक बेहद पिछड़ी, मनुष्य विरोधी, शोषक अवधारणा मानी जा चुकी थी.

भारत भी इनसे अछूता या अलग नहीं था. मजदूर आंदोलन, दलित और दमितों के उत्थान के संघर्ष, आधुनिक शिक्षा, लोकतंत्र, उद्योगीकरण, वैज्ञानिक आविष्कार, अंतररराष्ट्रीय संपर्क आदि तत्वों ने भारत में भी, किसी भी तरह के धार्मिक राष्ट्र की अवधारणा या विचार को पूरी तरह अप्रासंगिक या निरर्थक बना दिया था. गांधी और उनके साथ के नेता इन तमाम सच्चाइयों को समझते थे. वे अपने देश को जानते, समझते थे. इसकी बुनावट, इतिहास, इसकी शक्ति के आधार को समझते थे. गांधी जानते थे कि देश की विविधता ही इसका प्राण है.

इस विविधता में एकता का होना और उसे अपने साथ ले चलना ही स्वतंत्रता संघर्ष की बुनियाद है. इस विविधता को साथ लेकर चलने और भविष्य के भारत को भी इसमें ही गढऩे के अलावा, आजादी की लड़ाई लडऩे और उसके द्वारा स्वतंत्रता पाने का दूसरा तरीका नहीं है. इसीलिए गांधी के सपनों के भारत का स्वरूप कभी हिंदू नही रहा. वे कभी हिंदू राष्ट्र के समर्थक नहीं रहे. उनका हिंदुत्व कभी गैर हिंदू धर्मों के प्रति आक्रामक या हिंसक नहीं हुआ.

उस समय कोई भी जरा-सा सचेत, संवेदनशील उदार व्यक्ति 'हिंदू राष्ट्र' के प्रवक्ताओं या इसके योद्धाओं की वैचारिक सीमाओं, और विसंगतियों को स्पष्ट देख सकता था. हिंदू भारत के पैरोकारों के  सामने कुछ स्पष्ट और वास्तविक चुनौतियां थीं जिनसे सीधे मुठभेड़ करने से वे बचते थे.

शायद इसलिए कि वे उन्हें विजित नहीं कर सकते थे. उनके सामने पहली और सबसे बड़ी चुनौती, देश की हजारों साल पुरानी शोषक और अमानवीय जाति व्यवस्था थी. हिंदू संगठनों के विचारों और भावनाओं का उभार पूरी तरह ऊंची जातियों के बीच केंद्रित था. इस हिंदू उभार के द्वारा सैकड़ों सालों बाद एक बार फिर भारत का उच्च वर्ण मुसलमानों के शासन में अपनी खोई या निष्प्रभावी हो चुकी अस्मिता, वर्चस्व और अपने अतीत के गौरव को पाने की संभावनाओं को तलाश रहा था. दिलचस्प है कि इनके मुकाबले में दलितों का अपने उत्थान का संघर्ष भी सक्रिय हो चुका था.

उनकी अस्मिता और सामाजिक चेतना और अधिकारों की लड़ाई शुरू हो चुकी थी. वे जाग्रत और संगठित हो रहे थे. देश की राजनीति में वे एक बड़ी शक्ति के रूप में जगह बना रहे थे. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में धीरे-धीरे उतरते जा रहे थे. उनके मतदान का अधिकार, उन्हें देश की राजनैतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण पक्ष, बल्कि एक हद तक निर्णायक पक्ष के रूप में जगह दे रहा था. फुले के बाद आंबेडकर इस सवर्ण हिंदू धर्म के सबसे कट्टर और उग्र विरोधी थे. उनके व्यक्तिगत और संपूर्ण राजनैतिक जीवन का एकमात्र लक्ष्य, उच्च वर्ण के हिंदुओं द्वारा निर्मित इस शोषक और दमनकारी जाति व्यवस्था को खत्म करना था.

जाहिर था, हिंदू भारत के प्रवक्ताओं या सवर्णों के सामने पहली सबसे बड़ी चुनौती जाति व्यवस्था में सैकड़ों सालों से कुचले जा रहे दलित थे. ये उन्हें स्वीकार नहीं कर रहे थे. 1935 में जब आंबेडकर ने धर्मांतरण की घोषणा की, तो पूरा सवर्ण हिंदू समाज बेचैन हो गया था. दलितों को हिंदुओं के साथ गिना जाता था. उनकी संख्या ही हिंदू को बहुमत में रखती थी. उनके अलग होने पर हिंदू अपना बहुसंख्यक होने का दावा खो देता था.

उस समय आंबेडकर ने स्वयं के लिए ईसाई धर्म या इस्लाम स्वीकार करने की संभावनाओं को भी खुला रख छोड़ा था. जाहिर था, देश की एक बहुत बड़ी संख्या का इस तरह ईसाई या इस्लाम धर्म में धर्मांतरित हो जाना, भविष्य के किसी 'हिंदू भारत' के सामाजिक और राजनैतिक स्वरूप के लिए बड़ा आघात था.

आंबेडकर को मनाने और समझाने की कोशिश की गई. सावरकर और मुंजे से इस संबंध में आंबेडकर का लंबा पत्र व्यवहार भी हुआ था. गांधी भी बेचैन थे. पूरे घटनाक्रम को सतर्कता से देख रहे थे. 'पूना पैक्ट' गांधी की इसी बेचैनी का परिणाम था. बाद में हरिजन आंदोलन के रूप में उन्होंने दलितों को हिंदुओं और कांग्रेस से छिटक कर टूट जाने से रोका था.

हिंदू संगठनों के सामने दूसरी बड़ी चुनौती थी कि वे अपनी कार्यशैली और उद्देश्यों के प्रति मध्य या उच्च मध्य वर्ग के हिंदुओं के अलावा, अन्य वर्गों, संप्रदायों और धर्मों के लोगों को आकर्षित नहीं कर पाए. मुसलमान, ईसाई, दलित तो हिंदू संगठनों से अलग थे ही, पर इन हिंदू संगठनों द्वारा हिंदू धर्म की छतरी में जैन, बौद्ध और सिखों को स्थान और मान्यता देने के बाद भी, इन धर्मों के लोगों पर उनका प्रभाव नगण्य रहा. 'हिंदू राष्ट्र' या 'हिंदू भारत' ऐसी किसी अवधारणा या इसको साकार करने के संघर्ष में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी.

हिंदू संगठनों के सामने तीसरी बड़ी चुनौती हिंदू धर्म के अनेक, विविधतापूर्ण और अंतर्विरोधों से भरे उप धर्म, उनकी मूल अवधारणाएं, व्याख्याएं, सिद्धांत और कर्मकांड थे. अपने आधार रूप में ईसाई या इस्लाम धर्म की तरह हिंदू धर्म किसी एक पुस्तक और एक ईश्वर का धर्म नहीं था. अपने अनेक विखंडित स्वरूपों में, अनेक उप धर्मों और वर्गों के कारण, हिंदुओं के पास एक तरह की जीवन शैली जीने वाला एक समान हिंदू समाज भी नहीं था.

संतरे की तरह इसके अंदर अनेक फांकें थीं. इन सबके अलावा हिंदू संगठनों को अपने लिए बहुत निकट के एक महान और भव्य अतीत की तलाश थी. पर गुप्त साम्राज्य के रूप में वह डेढ़ हजार वर्ष पूर्व नष्ट हो गया था. इसलिए बाद में पराजितों को नायक बना कर एक निष्प्रभावी हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदुओं का महान इतिहास गढऩे की उनकी व्यर्थ की चेष्टाएं थीं. उनके पास अतीत का वैसा कोई सशक्त सार्वभौम 'मॉडल' नहीं था, जैसा कि यूरोपीयों के पास रोम या ग्रीस के रूप में था. निकट का एक विकसित और जीवंत अतीत न होने के कारण, हिंदू संगठनों के हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना स्वयं में बहुत पिछड़ी, सीमित और किसी भी तरह की आधुनिक चेतना से रहित हो जाती थी. अतीत छोड़ भी दें, तो भी यह परिकल्पना भविष्य में भी किसी सार्वभौम, एकीकृत, आधुनिक, प्रगतिशील भारत को गढऩे में पूरी तरह असमर्थ थी.

वैसे भी, भारत के इतिहास में कोई भी वृहद सार्वभौम हिंदू राजा या राज्य, सिर्फ 'हिंदू भारत' की बात कह कर विकसित नहीं हुआ था. उसने कभी अपना सिर्फ हिंदू स्वरूप बना कर नहीं रखा था. इसलिए कि हिंदुओं में 'धर्म' और 'राष्ट्र' सदैव दो अलग, स्वतंत्र और समानांतर सत्ताओं के रूप में देखे गए थे. उनका धर्म और राष्ट्र का यह विभाजन ईसाई या इस्लामी साम्राज्यों से अलग था. वहां धर्म और राज्य सैकड़ों वर्षों तक एकरूप रहे.

इससे अलग, भारत के इतिहास में हिंदू राजाओं का व्यक्तिगत धर्म तो रहा, पर सामान्यतः कोई ऐसा घोषित राज्य धर्म नहीं रहा, जहां ''राष्ट्रयुद्ध' और 'धर्मयुद्ध' एक-दूसरे में समाहित हो जाते हों. अशोक, पुष्यमित्र, कनिष्क, गुप्त वंश, विजय नगर साम्राज्य आदि मिलेंगे जिनका व्यक्तिगत धर्म और रुझान स्पष्ट था, पर वह राष्ट्र का भी धर्म था या वह कोई धार्मिक भारत था, ऐसा घोषित रूप से तब भी नहीं मिलेगा. अजंता या नालंदा का वैभव तब था, जब 'परम भागवत' गुप्तों के मंदिरों में 'अवतारवाद' का स्वर्ण युग था. हिंदू सामाजिक संरचना और संस्कृति में, राष्ट्र की अवधारणा कभी धर्म से जुड़ कर घोषित नहीं हुई, जैसी कि ईसाई और इस्लाम, दो बड़े धर्मों के बड़े साम्राज्यों की रही थी.

यह हिंदू धर्म की अपनी बिल्कुल अलग या कि विशिष्ट तरह की महानता, विराटता, उदारता और सहिष्णुता थी, जो विश्व के अन्य धर्मों में दुर्लभ थी. समस्या यही थी कि देश के हिंदू संगठन भारत देश और हिंदू धर्म, दोनों की ही इस सच्चाई को नकार रहे थे. उनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'धर्म' और 'राष्ट्र' को एक गांठ में बांध रहा था. नतीजे में जो 'हिंदू' नहीं थे, उनको 'अन्य' की तरह देखा जा रहा था. उनकी अलग 'धर्मनिष्ठा' को शत्रुरूप दिया जा रहा था. भारत की विविधता में एकता के प्राणतत्व के लिए यह एक घातक सोच थी.

गांधी यह सब समझ रहे थे, इसलिए उन्होंने अपने हिंदू की परिभाषा 'हिंदू संगठनों' के 'हिंदू' की परिभाषा से बिल्कुल अलग कर ली थी. गांधी का लक्ष्य समाज का सबसे गरीब, कमजोर दिखता अंतिम मनुष्य था, न कि किसी 'हिंदू राष्ट्र' की स्थापना करना. इस कमजोर आदमी के सुख-दुख उनके सरोकार थे. देश की साझा संस्कृति थी. साझा इतिहास था. इसकी विविधता का संरक्षण और स्वतंत्रता थी, इसलिए वे कभी 'हिंदू भारत' की बात नहीं करते थे. इसके विपरीत, मुसलमानों का समर्थन और उनकी पक्षधरता करके वे इन संगठनों के सबसे बड़े शत्रु बने और अंततः 'सनातनी हिंदू' गांधी की हत्या, एक कट्टर हिंदू को ही करनी पड़ गई. गांधी ने जनवरी 1948 में दिल्ली का अनशन तोडऩे की जो शर्तें रखी थीं, वे सब मुसलमानों के लिए और उनके पक्ष में थीं.

’  ’  ’

जनवरी 1948 से पहले हिंदू संगठनों को गांधी से बहुत दिक्कत नहीं थी. गांधी 16 सितंबर, 1947 को दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक सभा में गए थे. प्यारेलाल और ब्रजकृष्ण चांदीवाला के विवरणों से पता चलता है कि उस समय तक गांधी और संघ के बीच सहज और सामान्य संबंध थे, बावजूद आपसी सैद्धांतिक असहमतियों और कार्यशैली के विरोधाभासी स्वरूप के. सभा में जो हुआ और गांधी ने जो कहा, उसके प्रासंगिक अंश देखते हैः

''सभा शुरू होने से पहले झंडा सलामी हुई. उसके पश्चात् 500 स्वयंसेवकों के मुखिया बसन्तराव ओक ने कहाः

'संघ का उद्देश्य आप जैसे महान् व्यक्ति को पैदा करने वाले हिंदू धर्म के सिद्धांतों के अनुसार चलकर उसकी रक्षा करना है. देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा ही हमारा एकमात्र ध्येय है. किसी तरह की टीका की परवाह किए बिना हम अपना काम किए जाते हैं."

ध्यान दें कि इस समय तक संघ में गांधी की हिंदू छवि असंदिग्ध थी. उनको गांधी से कोई शिकायत नहीं थी.

गांधी ने कहा...

''इंडियन यूनियन में ज्यादा संख्या हिंदुओं की है. इसमें कोई शर्म की बात नहीं. लेकिन अगर हम यह कहें कि यहां हिंदुओं के सिवा दूसरा कोई रह ही नहीं सकता और कोई रहे भी, तो उसे हिंदुओं का गुलाम बनकर रहना होगा, तो यह गलत बात है. हिंदू धर्म ऐसा नहीं सिखाता. मेरे हिंदू धर्म में सब धर्म आ जाते हैं. सब धर्मों का निचोड़ हिंदू धर्म में मिलता है. अगर हिंदू धर्म सबको हजम करने का काम न करता, तो यह उतना ऊंचा न उठ सकता. सब धर्मों में उतार-चढ़ाव तो आता ही है. जब से हिंदू धर्म में अस्पृश्यता को स्थान मिला, तब से हम गिरने लगे. इससे हमें कितना नुक्सान हुआ, उसे मैं यहां नहीं बताऊंगा. अगर हम कहें कि हिंदुस्तान में सिवाय हिंदुओं के सबको गुलाम होकर रहना है, या पाकिस्तान वाले यह कहें कि पाकिस्तान में सिवाय मुसलमानों के सबको गुलाम बनकर रहना है, तो यह चीज चलेगी नहीं. ऐसा कहकर दोनों अपना धर्म छोड़ते हैं और अपने-अपने धर्म का नाश करते हैं.

''...मुझसे कहा जाता है कि आप मुसलमान के दोस्त हैं और हिंदू और सिखों के दुश्मन. मुसलमानों का दोस्त तो मैं 12 बरस की उमर से रहा हूं और आज भी हूं. लेकिन जो मुझे हिंदुओं और सिखों का दुश्मन कहते हैं, वे मुझे पहचानते नहीं. मेरी रग-रग में हिंदू धर्म समाया हुआ है. मैं धर्म को जिस तरह समझता हूं, उसी तरह उसकी और हिंदुस्तान की सेवा पूरी ताकत से कर रहा हूं. मेरे दिल की बात मैंने आपको सुना दी है. हिंदुस्तान की रक्षा का, उसकी उन्नति का यह रास्ता नहीं कि जो बुराई पाकिस्तान में हुई उसका हम अनुकरण करें. अनुकरण हम सिर्फ भलाई का ही करें."

गांधी ने कहा...

''आपकी संख्या बड़ी है. आपकी ताकत हिंदुस्तान की बरबादी में लगे, तो वह बुरी बात होगी. आप पर जो इल्जाम लगाया जाता है, उसमें कुछ भी सच है या नहीं, यह मैं नहीं जानता. मैंने तो सिर्फ बता दिया कि किसी चीज का नतीजा क्या हो सकता है. यह संघ का काम है कि अपने सही कर्मों से इस इल्जाम को झूठ साबित कर दे."

संभवतः संघ के लोगों से गांधी का यह सीधा और अंतिम संवाद है. यह स्वयं में बहुत स्पष्ट है. इसमें हेडगेवार और गोलवलकर के प्रति गांधी के विचार मिलते हैं. भाषण में गांधी स्पष्ट रूप से संघ की मुसलमान विरोधी गतिविधियों की निंदा करते हैं पर संघ के अनुशासन आदि की प्रशंसा करते हैं. गांधी उसकी बहुत-सी बातों से असहमति जताते चलते हैं. गांधी हिंदू धर्म की अपनी व्याक्चया के आधार पर उन्हें स्पष्ट विनम्र और अपने खास तरीके से, बिल्कुल साफ शब्दों में समझाते हैं कि 'हिंदू धर्म' अनुमति नहीं देता कि भारत में गैर हिंदू को हिंदू का गुलाम बनकर रहना पड़ेगा.

यह देखना रोचक है कि अपने जीवन से तो गांधी ने हिंदू संगठनों का प्रभाव बढऩे को तो रोका ही, पर उससे अधिक अपनी मृत्यु से रोका. गोडसे द्वारा की गई गांधी की हत्या ने, भारत के 'हिंदू भारत' बनने की किसी संभावना को तत्काल पूरी तरह खत्म कर दिया. यह तीन तरीकों से हुआ. पहला यह कि जनमानस हिंदू संगठनों के विरुद्ध हो गया. उनका राष्ट्रवाद, उनका सांस्कृतिक गौरव, उनका हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य जो उनका आधार था, एक हिंसक संगठन के रूप में केंद्र में आ गया. स्वयं हिंदू संगठनों के भी लगभग 80 फीसदी लोग इस तरह गांधी की हत्या किए जाने के विरुद्ध थे.

दूसरा यह कि स्वयं सरदार पटेल के अंदर इस संगठन के अनुशासन, राष्ट्रवादी स्वर और निष्ठा के लिए जो थोड़ी बहुत सहानुभूति थी, और जिसके सदस्यों को वे 'अनुशासित, पर 'भटके हुए देशभक्त' मानते थे, वह भावना समाप्त हो गई. गांधी की हत्या के बाद उन्होंने इनका कठोर दमन किया. संघ को प्रतिबंधित कर दिया. गोलवलकर को जेल में बंद कर दिया गया. श्यामा प्रसाद मुकर्जी को छोड़ कर हिंदू महासभा की पूरी कार्यकारिणी गिरफ्तार कर ली गई. इसके बाद हिंदू महासभा मृत प्रायः संगठन ही रह गया. संघ भी नेपथ्य में चला गया. वह सार्वजनिक मंच पर वापस जे.पी. आंदोलन के समय ही लौटा जब उसने छात्र आंदोलन का समर्थन किया. बाद में आपातकाल का विरोध किया. इस विरोध ने उसकी राष्ट्रवादी छवि को फिर एक बार मजबूत किया. इस विरोध के बाद ही, वह उस नकारात्मक छवि से मुक्त हो सका जो गांधी की हत्या के बाद एक आम नागरिक के मन में उसके लिए बन गई थी.

तीसरा यह कि कांग्रेस के अंदर जो दक्षिणपंथी गुट था और जो हिंदू संगठनों के साथ शुरू से ही सहानुभूति और सामंजस्य रखता था, उसका स्वर कांग्रेस के अंदर बिल्कुल दब गया या कमजोर हो गया. कुल मिलाकर गांधी ने अपनी हत्या से अनायास ही देश के किसी भी तरह के हिंदुवादी स्वरूप की तरफ झुकने की संभावनाओं को बहुत लंबे समय के लिए या लगभग पूरी तरह खत्म कर दिया.

धार्मिक राष्ट्र एक अनिवार्य बुराई है. हमें भूलना नहीं चाहिए कि पाकिस्तान एक धार्मिक राष्ट्र बना था. उसके बनने का आधार सिर्फ 'धर्म' था. एक 'इस्लामिक देश' के रूप में जन्म लेने के बाद आज हम उसका परिणाम देख रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद भारत ने धार्मिक राष्ट्र का रास्ता नहीं चुना. वह लोकतांत्रिक, आधुनिक, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष और विविधता में एकता पर विश्वास करने वाले राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ा. गांधी इस बात का महत्व समझते थे, नेहरू समझते थे, आंबेडकर समझते थे, पटेल समझते थे, मौलाना आजाद समझते थे, वामपंथी और समाजवादी समझते थे. उदारवादी सहिष्णु हिंदू समझते थे. इसीलिए भारत तेजी से विकसित होता रहा. धार्मिक राष्ट्रों का रास्ता हमेशा एक अंधी गुफा में खत्म होता है. इस सच्चाई को देखना, परखना बहुत आसान है. दुनिया के किसी धार्मिक राष्ट्र ने मनुष्यता के हित में, विकास में, विज्ञान में कोई सहयोग नहीं दिया.

दुख और चिंता की बात है कि हमारे आज के समय के मुख्य स्वर फिर वही हैं. फिर 'हिंदू भारत' की फुसफुसाहटें हैं, 'अन्य' को शत्रु बनाने का उन्माद है. इसकी विविधता को खत्म करने की सोच और कोशिशें हैं. गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती हमें अवसर देती है कि हम गांधी के जीवन, कर्म और धर्म पर विचार करें और इस पक्ष को विशेष रूप से देखें कि उनका 'सनातनी हिंदू' किस तरह भारत को उसकी समग्रता में देखता और स्वीकार करता था.

गांधी का 'हिंदुत्व' दूसरे धर्मों को डराता नहीं था. गांधी का 'रामराज्य' एक यूटोपिया के रूप में अभिव्यक्त होता था, न कि हिंसक, आक्रामक तरीके से अयोध्या में राम की प्रतिष्ठा करने के लिए. गांधी का 'हिंदुत्व' कर्मकांडों का, प्रचार का, उन्मादी भक्ति का नहीं आध्यात्मिकता का था. मानवीयता, उदारता और नैतिकता की सरहदों में प्रवेश करता हुआ था. गांधी का 'हिंदुत्व' अन्य को समाहित करता था न कि संकीर्णता में घिरा हुआ उसे बहिष्कृत करता था. गांधी का 'हिंदुत्व' धर्म की उसी प्राण वायु से जन्मा था जो दुनिया के समस्त धर्मों के जन्म और अस्तित्व का वास्तविक मूल है. इसमें करुणा, उदारता, सहिष्णुता, प्रेम और दूसरे धर्मों का सम्मान था न कि हिंसक और उन्मादी भाषा में उन्हें चुनौती देना और उन्हें नष्ट करना. गांधी का 'हिंदुत्व' स्वतंत्रता की लड़ाई में इसीलिए सबको अपने साथ जोड़ सका था. देश की विविधता के साथ एकरूप हो कर स्वतंत्रता की लड़ाई को आगे ले जा सका था.

गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में नस्ल भेद, रंग भेद के खिलाफ लड़ाई लड़ी. भारत में चंपारण में किसान, अहमदाबाद में मजदूर और असहयोग आंदोलन में मुसलमानों को साथ जोड़ कर लड़ाई लड़ी. अपने 'हिंदुत्व' को इन सबके बीच अधिक व्यापक, स्वीकृत, मानवीय और प्रभावी बनाया. यदि हम आज के हिंदुवादी संगठनों की हिंदुत्व की परिभाषाएं और इसके विघटनकारी स्वरूप के घातक परिणामों की संभावनाओं या आहटों के बीच गांधी के 'हिंदू' व 'हिंदुत्व' को उसके सही अर्थों में समझ लें और उसे स्वीकार या अंगीकार करें, तो गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती पर उनका स्मरण हमारे और देश, दोनों के लिए सचमुच सार्थक, प्रांसगिक और लाभकारी होगा.

प्रियंवद हिंदी के मशहूर लेखक और कथाकार हैं.

संपर्कः 9839215236

***

Advertisement
Advertisement