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रंगमंचः प्रतिरोध का प्रवक्ता

दिल्ली के रंगमंच पर रैना कहते हैं, ‘‘क्वालिटी थिएटर का ठेका क्या एनएसडी के ही पास है? मेरी कोशिश है कि उसके समानांतर अच्छे ऐक्टर्स के ग्रुप तैयार हों.ʼʼ

एम.के. रैना
एम.के. रैना

अभी पिछली जुलाई में वे 70 के हो गए. लेकिन इसी पांच जनवरी की शाम दिल्ली के श्रीराम सेंटर में राहुल सेठ का नाटक अंतर्ध्वनि खत्म होने पर लॉबी में कॉफी पीते दर्शकों के बीच वे किसी युवा रंगकर्मी से ज्यादा सक्रिय और इन्वाल्व थे. करीब 300 दर्शकों में से ज्यादातर असल में बतौर निर्देशक एम.के. रैना का नाम देखकर आए थे. इतनी उम्र और बाहर 8-9 डिग्री की ठंड! वे संकेत समझ जाते हैं, ‘‘देखो भइया, हम कश्मीरी हैं और कश्मीर में जब बर्फ गिरती है तो उससे हमारे भीतर और एनर्जी पैदा होती है.ʼʼ दो दिन बाद वे तड़के तीन बजे निकलकर गुवाहाटी की फ्लाइट पकड़ते हैं, फिर वहां से सड़क के रास्ते चार घंटे चलकर एक फेस्टिवल में कफन-कफनचोर नाटक करने तेजपुर पहुंच जाते हैं.

थक गए होंगे आप, ‘‘अरे नहीं, अभी तो मैं घंटों बात कर सकता हूं यार!ʼʼ वहां से लौटते हुए वे रांची विश्वविद्यालय में एक लोकप्रिय व्याख्यानमाला के तहत ‘‘रचनात्मकता में प्रतिरोधʼʼ विषय पर अपने लेक्चर में कालिदास से लेकर कठोपनिषद के नचिकेता तक की मिसालें देते हैं. दिल्ली लौटकर उन्हें कुछ समय से, गांधी पर चल रहे अपने नाटक हत्या एक आकार की को अगले शो के लिए तैयार करना है. गांधी के डेढ़ सौवें जयंती वर्ष पर पिछले अक्तूबर में थ्री आर्ट्स क्लब के बैनर पर इसके दो शो हुए और तीसरी प्रस्तुति बापू की पुण्यतिथि 30 जनवरी के अगले दिन दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में होनी है. उनकी सक्रियता और बुद्धिजीवी तबके के बीच फैलाव की कुछ टोह उनके फेसबुक पेज से भी मिलती है. उस पर आपको गांवों-कस्बों के फक्कड़-फकीर गायकों से लेकर सत्यजीत रे और पं. रविशंकर तक के वीडियो मिल जाएंगे.

पिछले करीब 50 साल से हर दौर में प्रतिरोध की आवाज रहे रैना किसी भी मायने में सुस्त पडऩे को तैयार नहीं. उन्हें 1976 का वह वाकया याद दिलाइए, जब बर्तोल्त ब्रेष्ट के चर्चित नाटक कॉकेशियन चाक सर्कल को खुद ही पंजाबी में रूपांतरित करके पंजाब के शहर-शहर में वे कर रहे थे (इसमें एक खेतिहर समाज की युवती अपने बेटे के लिए घर से विद्रोह करती है). स्थानीय लोग ही उस नाटक के लिए जरूरी प्रॉप्स, लाइटें और खाना-पीना मुहैया करा रहे थे. कहानी में छिपे प्रतिरोध के स्वर दूर तक गूंजे. वे बताते हैं, ‘‘जैल सिंह (उस समय के मुख्यमंत्री) ने नाटक पर बैन लगा दिया था. हमको वहां से भागना पड़ा था.ʼʼ आज वे गांधी के चरित्र से प्रतिरोध का रूपक गढ़ रहे हैं.

और इसमें भी एकांगी होने से परहेज करते हुए. गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर और गांधी के बीच खतो-किताबत से तैयार नाटक स्टे यट अ ह्वाइल में ठाकुर बार-बार गांधी के बयानों और उनकी पहल पर उंगली उठाते हैं लेकिन दोनों के बीच स्वस्थ संवाद जारी रहता है. इसी कड़ी में वे एक तीसरा नाटक तैयार कर रहे हैं बावला ऐंड बापू ऐट सत्याग्रह आश्रम, जिसमें एक बच्चे के नजरिए से गांधी की दृष्टि को पकड़ा गया है.

1970 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से निकलकर कुछ समय मुंबई में सार्थक सिनेमा करने के बाद जल्द ही वे दिल्ली और रंगमंच की दुनिया में लौट आए. हालांकि नाटकों के वास्ते ही पैसा जुटाने की खातिर बीच-बीच में वे लक्ष्य, तारे जमीं पर, रब ने बना दी जोड़ी, आयशा और नूर जैसी फिल्मों में पिता वगैरह के किरदार करते रहे. कुछ समय पहले उन्होंने संजय दत्त और जैकी श्रॉफ के साथ प्रस्थानम फिल्म पूरी की है. सुभाषचंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी के एक सैनिक पर कबीर खान निर्देशित वेब सीरीज फॉरगॉटेन आर्मी में वे मुख्य किरदार में हैं, जिसका युवावस्था का रोल विकी कौशल ने किया है. बकौल खान, ‘‘यह अगस्त के बाद रिलीज होगीʼʼ. एक सीमेंट कंपनी के नए विज्ञापन में भी वे आ रहे हैं.

लेकिन उनकी मुख्य चिंता थिएटर है, जिसमें वे प्रतिरोध के स्वर को बुलंद रखना चाहते हैं. सेठ का नाटक अंतर्ध्वनि उसी प्रयास का हिस्सा है, जिसका विषय बहुत नया न होने के अलावा उसकी गति सुस्त होने के बावजूद उसमें छिपी प्रतिरोध की खदबदाहट को पकडऩे के लिए उन्होंने इसे किया. हालांकि इसके लिए उन्हें इसमें कतरब्योंत करनी पड़ी. लेकिन अंत में कथ्य को तराशने और अंतर्द्वंद्व को अनुशासन के साथ उभारने के उनके कौशल ने उसे कमोवेश दर्शनीय बना दिया. पर वे तो ब्रेख्त, बादल सरकार, भीष्म साहनी, मंटो, असगर वजाहत जैसे लेखकों के सशक्त कथानक वाले उम्दा लिखे नाटकों को पूरे सौंदर्यबोध के साथ करने के लिए जाने जाते हैं. इस तरह का नाटक? ‘‘देखो, एक तो यह नए लेखक का नया नाटक है, दूसरे कुछ सीरियस मसले होते हैं, जिन्हें बड़ी संजीदगी से पेश करना होता है.ʼʼ फिर वे अपने चिर-परिचित चुटीले अंदाज में जोड़ते हैं, ‘‘...और अब अगर यहां ब्रेष्ट जैसे लिखने वाले नहीं हैं तो कहां से लाएं यार!ʼʼ

हाल के वर्षों में दिल्ली के रंगमंच को लेकर उनकी फिक्र बढ़ी है. संजीदा अभिनेताओं के मुंबई निकल जाने और अच्छे नाटकों के लिए एनएसडी की ओर ताकने की बनी अवधारणा उन्हें परेशान कर रही है. ‘दिल्ली अच्छे ऐक्टर्स से खाली हो रही है. मैं अच्छे ऐक्टर्स की एक मजबूत टीम बनाकर काम करने की कोशिश कर रहा हूं और इसमें कामयाबी भी मिल रही है. राकेश (सिंह), भूपेश (पंड्या) और दुर्गेश अब टिक गए हैं. और चौधराहट एनएसडी की हो या और किसी की, थिएटर की सेहत के लिए अच्छी नहीं.ʼʼ उन्हें दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार से उम्मीद है. उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया से मिलकर वे जिला स्तर पर ऑडिटोरियम बनवाने के लिए कहना चाहते हैं. ‘‘अगर ऐसा हो गया तो दिल्ली में थिएटर की क्वालिटी में जबरदस्त इजाफा होगा.ʼʼ

मुश्किल पहल से भी रैना ने परहेज नहीं किया है. नौटंकी और सांग की तरह की, कश्मीर की लोकनाट्य शैली भांड पाथेर आतंक के दौर में दम तोड़ चुकी थी. दसेक साल पहले अनंतनाग में कार्यशालाएं करके उन्होंने अपनी कला छोड़ घर बैठ चुके भांडों को बुलाया और वह हुनर नई पीढ़ी को देने के लिए राजी किया. अनंतनाग के ही कोकरनाग में उन्होंने जनता के बीच खुले में शेक्सपियर के किंग लियर का बादशाह पाथेर नाम से उसी शैली में कश्मीरी में मंचन किया. बाद में वह प्रस्तुति एनएसडी के प्रतिष्ठित भारत रंग महोत्सव में भी बुलाई गई. हालांकि कश्मीर में इस तरह के प्रयोगों के लिए रैना ने एनएसडी और संगीत नाटक अकादमी के पास भी प्रस्ताव भेजे पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी.

और अब! वे लंबे अरसे बाद स्टेज पर उतरने का मन बना रहे हैं. हेरॉल्ड प्रिंटर के डंबवेटर से शायद. अपने प्रयोग ग्रुप में उम्दा कलाकारों के जमने से उन्हें उम्मीद बंधी हैः ‘‘दाएं-बाएं जरा अच्छे एक्टर हों तो मजा आता है.ʼʼ उम्मीद है, दर्शकों को भी आनंद आएगा.

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