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मोहन भागवतः मुखर मुखिया

मोहन भागवत, 66 वर्ष आरएसएस के मौजूदा सरसंघचालक ने संगठन को कुछ कम संकीर्ण और ज्यादा स्वीकार्य बनाने की कोशिश की. पर राम मंदिर सरीखे बुनियादी विचारों पर वे अडिग हैं.

मोहन भागवत
मोहन भागवत

आरएसएस के तमाम प्रमुख अलग-थलग और एकांत में रहने के लिए जाने जाते हैं. वे आम तौर पर बस नागपुर मुख्यालय में विजयादशमी पर सालाना रैली में बोलते हैं. यहीं वे विभिन्न मुद्दों पर अपने संगठन की नीति और रुख सामने रखते हैं. मगर संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने इस साल इससे कहीं ज्यादा किया. वे दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिनों की एक व्याख्यानमाला में लोगों से मुखातिब हुए. यहां संघ प्रमुख न केवल प्रतिनिधियों से खुलकर घुले-मिले, बल्कि मुकम्मल राय बनाने से पहले संघ का अध्ययन करने के लिए उन्होंने लोगों को आमंत्रित भी किया.

यहां तक कि उन्होंने आजादी के आंदोलन में भूमिका के लिए कांग्रेस की तारीफ भी की. सबसे ज्यादा दिलचस्पी उनकी जिस बात ने जगाई, वह एम.एस. गोलवलकर की 1966 की किताब बंच ऑफ थॉट्स के बारे में कही गई. उन्होंने कहा कि हिंदुस्तानी अल्पसंख्यकों के बारे में विवादित विचार कोई 'शाश्वत नहीं थे' और ऐसे कई विचारों को आरएसएस के साहित्य से छांटकर हटा दिया गया है.

भागवत ने संकीर्ण विचारों वाले संघ को बदलने का रुझान भी जाहिर किया. दो साल पहले उन्होंने संघ की खाकी निकर को तिलांजलि देकर पतलून अपनाई थी. अलबत्ता पहनावे के इस बदलाव से कहीं ज्यादा असरदार ज्यादा स्वीकार्य संघ का सूत्रपात करना हो सकता है.

भागवत मार्च 2019 में पचास लाख सदस्यों वाले संघ के सबसे ऊंचे ओहदे पर एक दशक पूरा करेंगे. प्रधानमंत्री के साथ उनके सौहार्द भरे रिश्ते हैं. अलबत्ता, भागवत ने सरकार की अंतरात्मा जगाने की भूमिका जारी रखी है. 2014 में उन्होंने कहा था कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत 'वन मैन शो' नहीं थी. इस साल की व्याख्यानमाला में भी उन्होंने अमित शाह के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के अभियान को उलट दिया, जब उन्होंने कहा, ''हम युक्त भारत चाहते हैं, मुक्त भारत नहीं.''

भागवत मंदिर मुद्दे पर भी मुखर रहे और नवंबर में उन्होंने मंदिर मामले की सुस्त प्रगति पर मायूसी जाहिर की. राजधानी में विहिप की एक रैली में उन्होंने कहा, ''एक साल पहले मैंने कहा था कि धैर्य रखो. अब मैं कहता हूं कि धैर्य काम नहीं आएगा. हमें लोगों को लामबंद करना होगा. हमें कानून की मांग करनी ही चाहिए.'' वे जानते हैं कि चुनाव के साल में अधीर सरसंघचालक कोई ऐसे शख्स नहीं हैं जिन्हें हल्के में लिया जाए.

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