छह साल तक पाकिस्तान की जेल में बंद रहे हामिद अंसारी आजाद होकर भारत लौटे. खुशमिजाज हामिद ने मजाकिया अंदाज में कहा, "मैं हामिद अंसारी हूं और मैं जासूस नहीं हूं.'' वे मोहब्बत की तलाश में पाकिस्तान गए थे लेकिन भारत-पाकिस्तान के बीच की आपसी तल्खियों में उलझकर रह गए. उन्होंने गीता मोहन से बातचीत की. मुख्य अंशः
रिहाई के बारे में कब पता चला?
मुझे रिहाई की खबर मंगलवार सुबह मिली. मैं इतना खुश था कि एक पल भी जाया नहीं करना चाहता था.
आपकी पहली प्रतिक्रिया थी?
जब मैंने सरहद के दूसरी तरफ अपने वालदैन को इंतजार करते देखा तो मैंने पाकिस्तानी अफसरों से गुजारिश की कि वे कागजी कार्रवाई जल्द पूरी करें. मैं दौड़कर अपनी अम्मी के पास चले जाना चाहता था, उनके गले लग जाना चाहता था.
आप पाकिस्तान क्यों गए थे?
सोशल मीडिया पर मेरी मुलाकात एक लड़की से हुई. हम दोनों के दिलों में एक दूसरे के लिए मोहब्बत पैदा हुई. उसका जबरन किसी और के साथ निकाह कराया जा रहा था और उसने मुझसे मदद मांगी. मैंने पाकिस्तान हाइ कमीशन में वीजा की अर्जी लगाई लेकिन गृह मंत्रालय से इसे मंजूरी न मिली. पाकिस्तान में मेरा एक दोस्त था, उससे भी मेरी पहचान ऑनलाइन ही हुई थी, उसने मदद का वादा किया.
उसने मुझे अफगानिस्तान के रास्ते पाकिस्तान में दाखिल होने के तरीके बताए. मैं तोरखाम के रास्ते पेशावर में दाखिल हुआ. मेरे दोस्त ने मेरे साथ धोखा किया. उसने मेरी पीठ में छुरा भोंका. पहले तो उसी ने मुझे एक फर्जी पहचान पत्र मुहैया कराया और फिर पाकिस्तानी पुलिस को खबर भी कर दी. यह एक फंदा था और लोग वहां मुझे दबोचने के लिए इंतजार में बैठे थे.
पाकिस्तान में शुरुआती तीन साल कैसे रहे?
जैसे ही मुझे हिरासत में लिया गया, मुझे लगा मानों मुझे किसी खाई में धकेल दिया गया है. मुझे लगता था कि अब मैं कभी अपने वतन नहीं जा पाऊंगा.
जेल में आपका अनुभव कैसा रहा?
वहां तो बस अंधेरा पसरा था. मुझे 24 घंटे में बस एक बार शौचालय जाने दिया जाता और वह भी बस एक मिनट के लिए. कई दिनों तक मुझे खाने को कुछ भी न दिया गया. मुझे इस कदर टॉर्चर किया गया कि मेरी बाईं आंख का रेटिना खराब हो गया. मैं बेहोश हो जाता था और खून की उल्टियां करता था.
आपको वहां एक जासूस कहा गया.
मैं जासूस नहीं हूं. अपने दिल के हाथों मजबूर होकर मैं वहां गया, हालांकि मुझे दिल की नहीं दिमाग की सुननी चाहिए थी. 12 मई 2015 को मुझे पेशावर के जिला मजिस्ट्रेट की कचहरी में हाजिर किया गया और मुझसे एक फर्जी बयान पर जबरन दस्तख्त कराए गए.
लेकिन एक दिन कुछ नेक इंसान आए मुझे बचाने को. काजी अनवर और रख्शंदा नाज ने मेरा मुकदमा लड़ा और अपनी जिरह से यह साबित किया कि यह जासूसी का मामला ही नहीं है. फर्जी पहचान-पत्र रखने के कारण मुझे तीन साल कैद की सजा सुनाई गई. मैं ऐसी कोई बात ख्वाब में भी नहीं सोच सकता, जो कहीं से भी मेरे मुल्क के खिलाफ जाती हो.