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प्रदर्शनीः माओ और महात्मा

बोस्हार्ड की तस्वीरों ने गांधी की जो छवि स्थापित की, वह आज भी कायम है

वॉल्टर बोस्हार्ड की ली गई माओ और महात्मा गांधी की तस्वीर
वॉल्टर बोस्हार्ड की ली गई माओ और महात्मा गांधी की तस्वीर
अपडेटेड 17 अक्टूबर , 2018

गांधी और माओ, ये दो ऐसे नाम हैं जिन्हें अक्सर साथ नहीं लिया जाता. एशिया के ये दोनों दिग्गज एक व्यक्ति और एक नेता दोनों ही रूप में, एक दूसरे से एकदम अलहदा हैं. दोनों के नजरिए व तरीके में जो फर्क था उसे देखते इस बात को गले से नीचे उतारने के लिए कल्पनाशीलता की एक लंबी छलांग चाहिए. ये दो पड़ोसी देशों के बड़े नेता समकालीन भी थे. सौभाग्य से, वाल्टर बोस्हार्ड को दोनों से मुलाकात का अवसर मिला और उनकी तस्वीरें बहुत सी कहानियां बयां करती हैं. "एन्वीजनिंग एशिया'' के सह-संरक्षक पीटर फ्रंडर पहले ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने बोस्हार्ड की फोटो पत्रकारिता को प्रदर्शित किया है.

पीटर ने ब्रोशर के अपने निबंध में यह लिखने की गुस्ताखी भी की है कि "बोस्हार्ड को, गांधी और माओ के बीच की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है.'' निश्चित रूप से, दिल्ली के किरण नादर म्युजियम ऑफ आर्ट (केएनएमए) में लगी ये 51 तस्वीरें और एक मूक फिल्म प्रमाण है कि दोनों ही नेताओं ने ऐसे अपने करियर को परिभाषित करने वाले महत्वपूर्ण घटनाक्रमों के दौरान इस विदेशी

फोटो पत्रकार का "बांहें फैलाकर स्वागत किया था.'' बोस्हार्ड ने 1930 में दांडी में नमक सत्याग्रह के बाद गांधी से मुलाकात की थी. लॉन्ग मार्च में माओ को एक आकस्मिक मगर बड़ी सफलता मिली थी और उसके ठीक बाद बोस्हार्ड को 1938 में माओ से मिलने का भी मौका मिला. इसके लिए उन्होंने यनन की अस्थायी राजधानी हांकू से यनन तक की छह दिन की यात्रा की और यनन "रेड कैपिटल'' बना था.

बोस्हार्ड ने जिन महान हस्तियों की तस्वीरें उतारी हैं, उनकी तरह लंबी यात्राएं तो नहीं की हैं फिर भी उनकी अपनी यात्रा भी काफी प्रभावशाली रही हैं. 1908 से 1912 तक वे एक स्विस प्राथमिक स्कूल शिक्षक रहे.

उन्होंने ज़्यूरिख और लॉरेंस में कला इतिहास का अध्ययन किया और प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इटली में सेना की नौकरी की. 1919 के बाद के बोस्हार्ड के जीवन के बारे में जानकर बड़े से बड़े अनुभवी व्यक्ति को ईर्ष्या हो सकती हैः

उन्होंने सुमात्रा की एक औपनिवेशिक कॉलोनी में काम किया, पूर्वी एशिया में एक रत्न कारोबारी के रूप में और भारत तथा थाइलैंड में एक व्यापारी के रूप में काम किया. 1927-28 में, वे मध्य एशिया के एक जर्मन खोजी अभियान में एक फोटोग्राफर के रूप में शामिल थे.

1930 तक, उन्होंने खुद को फोटो जर्नलिस्ट के रूप में इतना स्थापित कर लिया था कि म्युनिख इलस्ट्रेटेड प्रेस ने उन्हें "स्टडी टूर'' पर भारत भेज दिया था. फरवरी और अक्तूबर के बीच, बोस्हार्ड ने 20,000 किमी से अधिक यात्रा की और 1931 में छपी अपनी किताब, इंडिया फाइट्स के लिए पर्याप्त सामग्री एकत्र की.

बोस्हार्ड अपनी भारत यात्रा पर फोटो खींचने के लिए दांडी पहुंचे जहां गांधी ने नमक सत्याग्रह किया था. 78 स्वयंसेवकों के साथ यात्रा की शुरुआत करने वाले, गांधी ने गुजरात के तटीय इलाकों में 24 दिनों तक पदयात्रा की और आसपास के लोग नमक पर अंग्रेजों के एकाधिकार का विरोध करने के लिए उनके साथ जुड़ते गए.

इन तस्वीरों की ताकत का अब भी कोई मुकाबला नहीं हैः नमक उठाने के लिए सैकड़ों लोग समुद्र में उतर गए हैं; एक बच्चा कीचड़ में उतर गया है और उसके कपड़े की गठरी से नमक का पानी टपक रहा है. एक बेहतरीन तस्वीर में, बोस्हार्ड ने दांडी यात्रा में चल रही ग्रामीण महिलाओं को कैमरे में कैद किया है.

किसी भी राजनीतिक गतिविधि में एक सेविका सहयोगी की भूमिका में रहने वाली महिलाओं का निस्वार्थ और अद्भुत योगदान दर्शाने की कोशिश हुई है. महिला नेता भी हैः नवसारी में एक शराब विरोधी अभियान की अगुआई करने वाली संन्यासिन मिठूबेन पेतित; कवयित्री और कांग्रेस नेता सरोजिनी नायडू, जिन्होंने बोस्हार्ड से दांडी में गांधी से यह कहते हुए मिलने का आग्रह किया था कि "वह आपके लिए समय निकालेंगे.''  

और लगता है कि गांधी ने ऐसा किया भी था. बोस्हार्ड की तस्वीरों में, दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से लोहा ले रहे 60 वर्षीय गांधी तनावमुक्त दिखाई देते हैः द टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने व्यंग्यपूर्ण संपादकीय में गांधीजी की मुस्कराती तस्वीरों पर लिखा सूत कातते, प्याज का सूप पीते, खिलखिलाकर हंसते और दाढ़ी बनाते गांधी. सह-संरक्षक सिन्हा ने एक ईमेल इंटरव्यू में कहा, "1930 में अपने करियर के इस चरण में, वह एकमात्र ऐसे विश्व नेता थे जो कैमरे का सामना ऐसे विश्वास के साथ करते थे मानो वह उनका अंतरंग और भरोसेमंद मित्र रहा हो.

इन तस्वीरों में एक गर्मजोशी से भरी सहजता दिखती है. जब तक मार्गरेट बोर्क-व्हाइट या कनु गांधी ने गांधीजी की चरखा काटते या उनकी सभाओं की तस्वीरें लेनी शुरू की थीं तब तक उनकी काफी उम्र हो चुकी थी और वे कैमरे को बहुत अच्छी तरह जान-समझ चुके थे.'' केएनएमए के ब्रोशर के अपने निबंध में, सिन्हा का तर्क है कि ये तस्वीरें गांधी के "कार्यक्षेत्र की बेहतर प्रतिबिंबित करती हैं,'' आहार और शरीर के प्रति जुनून की हद तक सजगता, सूत कातने से लेकर स्वराज्य के विचार तक, बोस्हार्ड की उन तस्वीरों ने गांधी की जो छवि स्थापित की, वह आज भी कायम है.

यनन की तस्वीरें भारत से एकदम उलट हैं. चाहे वह कैमरे के ठीक सामने खड़े युवा, गंभीर माओ जेदांग हों, या बर्फीली पहाडिय़ों का वह दुर्गम क्षेत्र जिससे होकर आठवीं रूट सेना ने मार्च किया था या फिर छोटे बालों वाले पतलून और जैकेट में सजे पुरुष और महिलाएं हों, बोस्हार्ड की 1938 की तस्वीरें बताती हैं कि कैसे चीन और भारत के रास्ते एक दूसरे से एकदम जुदा थे.

दिल्ली विश्वविद्यालय में चाइनीज स्टडीज की शोधछात्रा शिल्पा शर्मा कहती हैं, "चीन ने एक पुरानी सभ्यता से जिस तरह अपना नाता तोड़ा, वैसा भारत ने नहीं किया.'' वे आगे कहती हैं, "इसके अलावा, गांधी एक नौकरशाही वाली सत्ता का सामना कर रहे थे, जहां कानून-व्यवस्था मौजूद थी. चीन के खूनी संघर्षों का अर्थ था कि वहां अहिंसा की जगह नहीं थी. तस्वीरों में माओ अकड़कर खड़े हैं जो उस ताकत को प्रतिबिंबित करती हैं जिसकी माओ को युद्ध जीतने के लिए दरकार थी.''

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चाइनीज स्टडीज के प्रोफेसर हेमंत अधलखा कहते हैं, "मतभेदों के बावजूद, ये दोनों बड़े नेता थे जिन्होंने अपने देश के अशिक्षित और गरीब समाज को सामंती और औपनिवेशिक उत्पीडऩ से बाहर निकाला.'' सिन्हा कहते हैं, "दोनों ही जगह गरीबी थी, एक साझा आदर्शवाद था, नेताओं की व्यापक स्वीकार्यता थी और दोनों ही नेताओं के पास देश का सूरते-हाल बदलकर रख देने एक दृष्टि थी.''

लगभग 90 साल बाद, आज भारत और चीन दोनों ही इन दोनों व्यक्तियों के दृष्टिकोण से काफी अलग हो गए हैं.

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