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बिहारः अगड़ों पर नजर

कांग्रेस ने सवर्णों, दलितों और मुसलमानों का सामाजिक समीकरण तैयार करके 1990 के दशक तक बिहार पर शासन किया था. लेकिन नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे क्षेत्रीय छत्रपों के उभार के साथ कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लग गई और उसकी ताकत तथा प्रभाव तेजी से घटा.

पटना में अपने अभिनंदन के दौरान बिहार कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष मदन मोहन झा
पटना में अपने अभिनंदन के दौरान बिहार कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष मदन मोहन झा
अपडेटेड 3 अक्टूबर , 2018

नए राज्य इकाई प्रमुख के रूप में 22 सितंबर को मदन मोहन झा की नियुक्ति बिहार में कांग्रेस के लिए एक बड़ा रणनीतिक बदलाव है. 1991 में जगन्नाथ मिश्र के बाद पार्टी का नेतृत्व करने वाले वे पहले ब्राह्मण नेता हैं. मंडल राजनीति के मुख्य अखाड़े के रूप में जाने वाले इस राज्य में ऐसा "साहसी'' फैसला निश्चित तौर पर पार्टी की एक प्रमुख रणनीति का हिस्सा है. पार्टी को लगता है कि लालू प्रसाद यादव के साथ होने से ओबीसी और मुसलमान वोट तो उसे मिल जाएंगे, इसलिए भाजपा के सवर्ण वोट बैंक में सेंधमारी के लिए कांग्रेस लगातार सवर्णों को रिझाने की कोशिश कर रही है.

दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस ने बिहार में अपनी चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष के रूप में भी सवर्ण भूमिहार जाति से ताल्लुक रखने वाले राज्यसभा सदस्य अखिलेश प्रसाद सिंह को नियुक्त किया है. झा की नियुक्ति के पार्टी हाइकमान की ओर से पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी (दलित) को हटाने और मुसलमान समुदाय के कौकब कादरी को कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करने के एक साल बाद हुई है.

कांग्रेस ने सवर्णों, दलितों और मुसलमानों का सामाजिक समीकरण तैयार करके 1990 के दशक तक बिहार पर शासन किया था. लेकिन नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे क्षेत्रीय छत्रपों के उभार के साथ कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लग गई और उसकी ताकत तथा प्रभाव तेजी से घटा. जहां कांग्रेस का दलित और मुसलमान वोट राजद और जद(यू) के साथ चला गया, वहीं अगड़े भाजपा के साथ खड़े हो गए. अब लालू के ओबीसी (15 प्रतिशत) और मुस्लिम (16 प्रतिशत) वोट बैंक को अपने साथ देखकर कांग्रेस ने सवर्णों को अपनी ओर करके सत्ता में वापसी की आस लगाई है.

सवर्णों के प्रति कांग्रेस का झुकाव मार्च में स्पष्ट हो गया था, जब उसने राज्यसभा के लिए अखिलेश प्रसाद को नामित किया था. वे पिछले 16 वर्षों में ऊपरी सदन में जाने वाले बिहार के पहले कांग्रेसी नेता थे. एक महीने बाद अप्रैल में, पार्टी ने विधान परिषद की उस एकमात्र सीट जो वह राज्य में जीत सकती थी, के लिए एक अन्य ब्राह्मण नेता प्रेमचंद्र मिश्र को नामित किया था. राजद के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि ब्राह्मण और भूमिहार नेताओं को बड़ी जिम्मेदारियों देने का कांग्रेस का फैसला, राज्य में संख्या और प्रभाव के लिहाज से अहम दो सवर्ण जातियों को रिझाने की रणनीति का हिस्सा है.

पड़ोसी उत्तर प्रदेश के विपरीत, सवर्ण बिहार की आबादी में महज 11-12 प्रतिशत ही हैं. फिर भी, सवर्णों का वोट निर्णायक हो जाता है क्योंकि अन्य जातियों के वोट राजद, जद(यू), रालोसपा और लोजपा के बीच बंट जाते हैं. इसके अलावा, यह भी कहा जा रहा है कि सवर्ण मतदाताओं का अब भाजपा की अगुआई वाले एनडीए से मोहभंग शुरू हो गया है. लेकिन, इस मोहभंग के बावजूद कांग्रेस के लिए सवर्णों को अपने पाले में करना इतना आसान नहीं होगा.

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बाद कांग्रेस ने अखिलेश प्रसाद के रूप में इस साल मार्च में राज्य सभा में बिहार से किसी को भेजा

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