अप्रैल 2008 में, जब मैंने 19 वर्षों में इस विषय पर आठवां पत्र लिखा था, तब मुझे ऐसा महसूस होता था कि भारतीय नौकरशाही की खराब स्थिति का वर्णन करने के लिए अब मेरे पास और शब्द नहीं है.
एक दशक और नौवीं आवरण कथा के बाद भी, हालात जस के तस ही हैं. दरअसल, अगर आज एक सदी पहले के ब्रिटिश राज का कोई नौकरशाह टाइम ट्रैवल करता हुआ भविष्य में आ जाए, तो उसे 21 वीं सदी के दूसरे दशक के आखिर के एक सरकारी कार्यालय में उसे अब भी वैसा ही अनुभव होगा जैसा वह कभी छोड़कर गया था- अर्दलियों की फौज, सीलन भरे दफ्तर और घिसटने जैसी धीमी चाल से निर्णय की प्रक्रिया जहां एक राष्ट्र की प्रगति की चाल फाइलें निपटाने की संख्या से मापी जाती है.
भारतीय सिविल सेवा को औपनिवेशिक युग की एक लगान वसूलने वाली संस्था से बदलकर विकास, गरीबी उन्मूलन और परिवर्तन को समर्पित संस्था बनाने में विफलता, भारत की प्रगति के राह की सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है.
भारतीय नौकरशाही बाबा आदम के जमाने की लगती है. जिस युग में मोटरगाड़ियां भी ड्राइवर रहित होने को हैं, उस युग में हमारी सरकार को इसी बैलगाड़ी के सहारे चलना है.
आम आदमी तक भेजे गए हर एक सरकारी रुपए में से केवल 15 पैसे उस व्यक्ति तक पहुंचते हैं, प्रधानमंत्री राजीव गांधी की यह टिप्पणी नौकरशाही द्वारा कई स्तरों पर धनराशि को चूस लिए जाने से भी जुड़ी थी.
आज, डिजिटलीकरण में प्रगति के साथ ऐसे दावे किए जा रहे हैं कि अकेले आधार योजना ने करीब 20 लाख फर्जी लाभार्थियों को खत्म कर दिया है, लेकिन जिस तंत्र के ऊपर सरकार के नारों और वादों को धरातल पर उतारने की जिम्मेदारी है उसका कामकाज अब भी कागज पर ही चलता है.
मैं अक्सर मंत्रियों को गर्व के साथ यह कहते हुए सुनता हूं कि वे एक दिन में इतनी फाइलें निपटाते हैं. फाइलों की संख्या इस बात का प्रमाण होती हैं कि वे अपना दायित्व निभाने के लिए कितनी कड़ी मेहनत कर रहे हैं.
सच कहें तो उनकी बात यह दर्शाती है कि पुराने लाइसेंसी राज की मानसिकता में वे किस कदर फंसकर रह गए हैं. एक मंत्री का काम नीतियां और रणनीतियां बनाना है. उन्हें देखना चाहिए कि कैसे फाइलों की संख्या घटाई जा सकती है और सरकारी नियंत्रण को कम से कम किया जा सकता है.
अफसोस की बात है कि नौकरशाही का रवैया अब भी सब कुछ अपने नियंत्रण में रखने वाला न कि चीजों के सरलीकरण वाला है. यहां सारा ध्यान प्रक्रिया पूरी करने पर रहता है न कि इस बात पर कि कैसे वांछित-परिणामों तक पहुंचा जाए. काम-काज के दौरान होने वाली गलतियों से अपनी गर्दन बचाकर रखने पर ध्यान रहता है.
51 मंत्रालयों के साथ भारत, दुनिया में सबसे ज्यादा मंत्रालयों वाले देशों में से एक है. इसमें मैंने 53 विभागों और 83 आयोगों को नहीं गिना है. सब में कागजी कार्रवाई के प्रति गजब का जुनून दिखता है जिससे निर्णय लेने में बेवजह और बेहिसाब देरी होती है.
इसी से नौकरशाही के पहिए में चिकनाई डालने की परंपरा शुरू हुई जो बदस्तूर चली आ रही है. भ्रष्टाचार के अलावा निर्णय लेने में हिचकिचाहट भी नौकरशाही की सबसे बड़ी परेशानी है.
उम्मीद है कि भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम में संशोधन, जिसके प्रावधान कहते हैं कि सरकार की अनुमति के बिना किसी नौकरशाह पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, के साथ नौकरशाही के पास अब अपनी निष्क्रियता के लिए कोई और बहाना नहीं बचेगा. लेकिन इससे राजनेताओं और बाबुओं के बीच की साठगांठ के और पक्का होने का खतरा भी है.
ये समस्याएं सीधे शासन की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं. अगर निर्णय की प्रक्रिया तेज हो जाए, नियामक से जुड़ी बाधाएं खत्म हो जाएं और भारत में व्यवसाय करना वास्तव में आसान बन जाए, तो इस प्रकार सरकार अरबों रुपए का फायदा करा सकती है और यह सब तभी हो सकता है जब सरकार देश की नौकरशाही सत्ता को अपने शिकंजे में रखने वाली की जगह प्रक्रिया को तेज करने वाली बना दे.
शासन-व्यवस्था पर 2017 में हुए विश्व बैंक के एक अध्ययन, जिसने देश की नौकरशाही की गुणवत्ता, राजनैतिक दबाव से स्वतंत्रता और नीति निर्माण तथा कार्यान्वयन की गुणवत्ता का आकलन किया था, में भारत की नौकरशाही को वैश्विक स्तर पर 45वें परसेंटाइल पर रखा गया. पिछले दो दशकों में इसमें लगभग 10 प्रतिशत अंकों की गिरावट आई है और नौकरशाही के हालात बयान करने के लिए यह काफी है.
जाहिर है, व्यापक पैमाने पर सुधार की जरूरत है. पिछले कुछ वर्षों में कई समितियों ने नौकरशाही में आमूल-चूल बदलाव लाने से जुड़े विभिन्न उपाय सुझाए हैं.
इनमें विशेषज्ञों को प्रशिक्षित करके शासन-व्यवस्था में शामिल करने के लिए प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने से लेकर योग्यता-आधारित भर्ती प्रणाली द्वारा लोगों को चुनकर, उन्हें कड़े प्रशिक्षण के बाद निचले स्तर पर नौकरशाही में जिम्मेदारियां देने के सुझाव शामिल थे. कोई भी सुझाव लागू नहीं किया गया.
एडिटर (रिसर्च) अजीत कुमार झा द्वारा प्रस्तुत हमारी आवरण कथा, कुछ हालिया बदलावों के प्रकाश में भारत की नौकरशाही की मौजूदा स्थिति की समीक्षा करती है.
इनमें 360 डिग्री कैडर मनोनयन मूल्यांकन प्रक्रिया जिसमें वरिष्ठता की बजाए योग्यता पर जोर है, भ्रष्टाचार रोकथाम (संशोधन) अधिनियम, 2018 और नौकरशाही के शीर्ष पदों पर पार्श्व प्रवेश (लेटरल एंट्री) प्रक्रिया द्वारा कुछ विशेषज्ञों की नियुक्ति शामिल हैं.
हालांकि, ये उपाय भी बिल्कुल वैसे ही दिखते हैं जैसे हम बैलगाड़ी में रबर के पहिए लगाकर खुश होने लगें कि हमने अपनी गाड़ी अपडेट कर ली है, जबकि जरूरत तो गाड़ी बदलने की थी.
इस साल जून में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जल्द ही भारत 5 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बन जाएगा. यह तब तक सपना ही बना रहेगा जब तक कि प्रधानमंत्री नौकरशाही में बुनियादी सुधार का काम शुरू नहीं करते.
अब तक, उन्होंने केवल सरकार की भूमिका का विस्तार किया है. उन्हें अब अधिकतम शासन, न्यूनतम सरकार के 2014 के अपने नारे को लागू करके दिखाने की जरूरत है. देश इंतजार कर रहा है.
***