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...ताकि फिर बढ़े रुतबा

वाद-विवाद को प्रोत्साहन, बहुआयामी रुझान और लोकतांत्रिक माहौल, जेएनयू को सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय बनाता है लेकिन उसे अपनी विरासत बनाए रखने के लिए राजनीति से परे देखना होगा.

 प्रश्नाकुलता को प्रश्रय स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के बाहर छात्र
प्रश्नाकुलता को प्रश्रय स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के बाहर छात्र
अपडेटेड 27 जून , 2018

अर्थशास्त्र में दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से 1973 से 1976 के बीच मैंने स्नातक की पढ़ाई पूरी की. मैंने तय कर रखा था कि प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में बैठूंगा. लेकिन उन दिनों अर्थशास्त्र को मुख्य विषय के रूप में रखकर प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में अच्छे अंक हासिल करना मुश्किल हुआ करता था.

दिल्ली यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र में अच्छे अंक पाने वाले लड़कों को प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं में कम नंबर मिले थे. सो, मैंने तय किया कि अर्थशास्त्र की जगह मैं इंटरनेशनल रिलेशंस को मुख्य विषय बनाऊंगा. मैंने जेएनयू में आवेदन किया और मुझे स्कूल ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस (एसआइआर) में दाखिला मिल गया. मैंने वहां दो साल गुजारे.

वे दो साल मेरे जीवन के बड़े अनूठे वर्ष रहे. उस दौरान मैंने दुनिया के बारे में बहुत कुछ जाना-समझा. वहां मेरा विकास सेंट स्टीफंस में बिताए तीन साल के मुकाबले कहीं ज्यादा हुआ.

जेएनयू का अनुभव रोमांचकारी था. वह इमरजेंसी के बाद का दौर था. कैंपस में राजनीति को लेकर भारी गहमागहमी और विविध तर्क-वितर्क हुआ करते थे. जेएनयू से कई छात्र गिरफ्तार भी हुए थे. कैंपस में बेहद जीवंत और ऊर्जा से भरपूर माहौल हुआ करता था.

वहां वामपंथी विचारधारा, अति वामपंथी और चरम वामपंथी विचारधारा वाले छात्र थे. हॉस्टल में खूब बहस और चर्चाएं हुआ करती थीं, जो रात के खाने के बाद शुरू होती थीं और सुबह तक जारी रहतीं.

मुझे याद है कि मैंने कई ऐसी बहसों में हिस्सा लिया था और बहुत कुछ सीखा था. विश्वविद्यालय में अलग-अलग विचारधारा वाले कई अच्छे वक्ता आया करते थे.

कैंपस में स्वतंत्र विचारकों के कई सक्रिय समूह भी थे जो पूरी तरह से जागरूक तो थे लेकिन वाम विचारधारा के प्रति राजनैतिक रूप से प्रतिबद्ध नहीं हुआ करते थे. मैं उन्हीं स्वतंत्र विचारकों की टोली में था. एसएफआइ की परिसर में जड़ें बहुत गहरी थीं.

मुझे याद है कि प्रकाश करात, सीताराम येचुरी और जयरास बनर्जी चुनावों के दौरान आते थे और उच्च स्तर की बौद्धिक चर्चा होती थी. विचारधारा के मुद्दे, वैश्विक और राष्ट्रीय राजनीति इन बहसों के केंद्र में रहती थी. इसीलिए तो जेएनयू में सीखने का अनुभव बहुत व्यापक और विविधता से भरा रहा.

विश्वविद्यालय के भीतर, अकादमिक सर्कल काफी जीवंत था. कुछ शिक्षक तो असाधारण थे. इंटरनेशनल स्टडीज स्कूल में प्रतिष्ठित शिक्षकों में एक प्रोफेसर अशोक गुहा होते थे जिन्होंने मुझे अर्थशास्त्र पढ़ाया. प्रोफेसर आनंद जैसे शिक्षक भी थे जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय कानून पढ़ाया.

प्रोफेसर एस.डी. मुनी और डॉ. पुष्पेश पंत भी थे. उत्कृष्ट शिक्षकों का एक पूरा गुलदस्ता मौजूद था जिन्होंने छात्रों को सीखने और विकास में मदद की. पढ़ाई की गुणवत्ता बहुत उच्च थी.

जेएनयू तब पुराने परिसर में था. कक्षाओं के बाद, हम लाइब्रेरी जाया करते थे.

लाइब्रेरी की बगल में, एक ढाबा था जहां हम बहस और चर्चाओं में काफी समय बिताते थे. मैं पेरियार हॉस्टल में रहता था.

वहां के बौद्धिक माहौल से कोई अछूता नहीं रह सकता था.

कला, संस्कृति, नृत्य और संगीत के प्रति मेरी संवेदनशीलता जेएनयू में ही विकसित हुई.

जेएनयू, कई मायनों में, एक छोटा भारत ही था. वहां देश के हर हिस्से के छात्र थे. तब परिसर बहुत छोटा हुआ करता था. विभिन्न विभागों और स्कूलों के रूप में आज जितना बड़ा कैंपस है, तब उतना बड़ा नहीं हुआ करता था. एक स्कूल के छात्र दूसरे स्कूल के छात्रों के साथ बातचीत किया करते थे.

बैठकें या तो ढाबे पर या लाइब्रेरी में हुआ करती थीं. यह ऐसा कुछ हुआ करता था जो मुझे अब नहीं नजर आता, क्योंकि विभिन्न केंद्र एक-दूसरे से दूर-दूर हो गए हैं. विभिन्न स्कूलों के छात्रों के बीच बातचीत भी अब बहुत कम होती है. जैसे ही एमए की पढ़ाई पूरी हुई मैं प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में बैठा और सफल रहा. दो शानदार साल बिताने के बाद मैंने जेएनयू छोड़ा.

अगर मुझे अपने समय के जेएनयू को संक्षेप में बताना हो, तो कुछ चीजें जो मैं कहना चाहूंगा वे हैं—वहां की शानदार फैकल्टी, छात्रों को पूरी आजादी और जीवंत तथा बौद्धिक वातावरण से भरपूर कैंपस. जेएनयू में बराबरी की भावना बहुत उच्च स्तर की थी क्योंकि यहां के छात्र विभिन्न परिवेश और पृष्ठभूमि से आते थे.

कुर्ता-जीन्स संस्कृति, जो यहां के छात्र हमेशा पहना करते थे, सभी को एक आम स्तर पर लेकर आती थी  और इस तरह से एक दूसरे की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के लिए परस्पर सम्मान और सराहना का भाव बना रहता था. मैंने यहां विभिन्न पृष्ठभूमि वाले मित्र बनाए, जो आज तक मेरे दोस्त बने हुए हैं.

वह ऐसा दौर भी था जब जेएनयू के ढेरों छात्रों ने देश को बदलने और कमजोर तबके के लिए कुछ करने की प्रतिबद्धता के साथ सरकारी सेवाओं का चयन किया. वास्तव में, जेएनयू में विद्यार्थियों को मिलने वाला बहुआयामी दृष्टिकोण उन्हें प्रशासनिक सेवाओं में सफल होने में मदद करता था.

यही जेएनयू को अन्य संस्थानों पर बीस बनाता है. मेरे ही हॉस्टल में एक ही मंजिल पर रहने वाले एक दोस्त—आसिफ इब्राहिम इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) के निदेशक बने. आलोक जोशी रॉ के प्रमुख बने. फिर एक और दोस्त एस.

जयशंकर विदेश सचिव बने. मेरे कई सहपाठियों ने आइएएस और आइएफएस में प्रवेश किया और भारत के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया. रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण भी विश्वविद्यालय की एक प्रतिष्ठित पूर्व छात्रा हैं.

मेरे समय में, जेएनयू के कुलपति, फैकल्टी और छात्र एकजुटता के साथ काम करते थे. अक्सर हम कुछ राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर छात्रों और फैकल्टी सदस्यों को एक साथ विरोध प्रदर्शन करते देख सकते थे. छात्रों को नियमित रूप से गिरफ्तार किया जाता था.

उनमें से कई छात्रों को तो नियमित रूप से तुगलक रोड पुलिस स्टेशन ले जाया जाता था लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन और शिक्षकों ने हमेशा छात्रों का समर्थन किया.

वहां राजनैतिक भेदभाव या प्रतिशोध जैसा कुछ नहीं था. वीसी और फैकल्टी मिलकर विश्वविद्यालय को चलाते थे. यह स्वायत्तता का प्रतीक था.

मुझे लगता है कि मेरे समय में जो एकजुटता दिखती थी, वह अब नदारद है.

अक्सर, छात्र एक तरफ होते हैं, मैनजमेंट दूसरी तरफ जबकि शिक्षक पूरी तरह से एक अलग रवैया अख्तियार किए रहते हैं.

इन तीन घटकों को एक साथ मिलकर काम करना चाहिए. वे भविष्य में जेएनयू को जहां लेकर जाने की लालसा रखते हैं उसके लिए उनमें एक आम नजरिया होना चाहिए.

जेएनयू में छात्रों की चयन प्रणाली में सुधार होना चाहिए. चयन प्रणाली समय के साथ लचर हो गई है. चयन योग्यता आधारित होना चाहिए. जेएनयू को पोस्ट ग्रेजुएट स्तर से ही अपने पाठ्यक्रम शुरू करने चाहिए.

केवल स्कूल ऑफ लैंग्वेज में स्नातक पाठ्यक्रमों की अनुमति दी जा सकती है. चयन प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव की आवश्यकता है.

चाहे जो हो, विश्वविद्यालय को सर्वश्रेष्ठ छात्र पैदा करने ही होंगे. उन्हें भारतीय शिक्षा प्रणाली की सर्वोत्तम मिसाल होना चाहिए.

इसके लिए जरूरी है यहां अच्छे छात्रों को अवसर मिले. जेएनयू के छात्रों को जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए. जेएनयू को शिक्षा के उत्कृष्ट केंद्र के रूप में डिजाइन किया गया था.

फोकस उच्च गुणवत्ता वाले शोध पर होना चाहिए. विषय केंद्रित शोध और जेएनयू से अधिक से अधिक प्रकाशनों की आवश्यकता है.

वर्तमान में बहुत कम शोधकार्य हो रहे हैं. प्रकाशित शोधपत्रों की संख्या कम हो गई है.

जेएनयू ऐसी अलग-थलग संस्था बनकर नहीं रह सकता जो अपनी विचारधारा की दुनिया में ही खोया रहे.

प्रशासन को यह आश्वस्त करना चाहिए कि विश्वविद्यालय में विभिन्न विचारधाराओं का सह-अस्तित्व बना रहे. जेएनयू को दुनिया के सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों स्टैनफोर्ड, हार्वर्ड, एमआइटी और ऑक्सफोर्ड जैसे शीर्ष विश्वविद्यालयों के साथ सहयोग और संपर्क स्थापित करना चाहिए.

एक वक्त वह भी था जब बीएचयू शायद देश का सबसे बढिय़ा विश्वविद्यालय हुआ करता था. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को केवल उनकी योग्यता के आधार पर विश्वविद्यालय का वीसी नियुक्त किया गया था. आगे चलकर वे राष्ट्रपति भी बने.

ऐसा ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय था, जिसमें दक्षिण भारत के कई उत्कृष्ट शिक्षक पढ़ाते थे.

शिक्षकों का चयन प्रतिभा पर आधारित था. सत्तर के दशक के मध्य से योग्यता पर जाति, धर्म और क्षेत्रवाद हावी हो गया. राजनैतिक हस्तक्षेप बढऩा शुरू हो गया. नतीजा यह हुआ कि कई विश्वविद्यालय अपनी प्रतिष्ठा और विरासत गंवाते गए.

योग्यता को वरीयता देने का नियम वापस लाया जाना चाहिए.

जेएनयू को अपनी विरासत को बरकरार रखना है, तो उसे शिक्षकों और छात्रों की गुणवत्ता में सुधार करना चाहिए.  

अंत में, जेएनयू में बहुआयामी रुझान लौटना चाहिए. केवल राजनीति नहीं होनी चाहिए.

कला, संस्कृति, संगीत और खेलों को भी भरपूर बढ़ावा दिए जाना चाहिए.

जेएनयू के कई स्कूलों में दुनिया में उच्च शिक्षा के बेहतरीन संस्थानों के रूप में उभरने की क्षमता है, इस दिशा में ईमानदारी से प्रयास शुरू होना चाहिए.

लेखक जेएनयू के पूर्व छात्र और फिलहाल नीति आयोग के सीईओ हैं.

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