आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन.टी. रामा राव दिल का इलाज कराने अमेरिका गए थे कि इधर 16 अगस्त, 1984 को राज्यपाल ठाकुर रामलाल ने उन्हें बर्खास्त करके हटा दिया. राव अमेरिका से लौटे और राज्यपाल से मिलने हैदराबाद स्थिति राजभवन पहुंचे.
नाराज राव ने राज्यपाल को खरी-खोटी सुनाते हुए उनके कदम को लोकतंत्र की हत्या करने वाला बताया. हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और इंदिरा गांधी के चहेते, गवर्नर रामलाल ने राज्य के पुलिस प्रमुख एम. महेंद्र रेड्डी को राव को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया.
आदेश का पालन हुआ. कुछ देर बाद रेड्डी से पूछा गया कि उन्होंने जिस आदेश का पालन किया क्या वह उससे सहमति रखते हैं. रेड्डी का जवाब था, ''राज्यपाल प्रदेश में केंद्र के प्रतिनिधि होते हैं और प्रदेश के सर्वोच्च संवैधानिक अधिकारी भी. उनका आदेश कानून है.''
अब 34 साल बाद 16 मई को जब कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई आर. वाला ने भाजपा के बी.एस. येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने का फैसला लिया तो उन्होंने रामलाल की याद दिला दी.
ऐसा लगा कि वे संवैधानिक पद की गरिमा से इतर केंद्र के आदेश पर चल रहे हैं. भाजपा प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी पर वह बहुमत से चूक गई थी. चुनाव के बाद बना कांग्रेस-जेडी (एस) गठबंधन-भले ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह उसे 'अपवित्र' गठजोड़ करार देते हों, पर उसके पास सरकार बनाने का पर्याप्त संख्याबल था.
वाला ने प्रो-टेम स्पीकर के रूप में सबसे वरिष्ठ विधायक को चुनने की परंपरा को दरकिनार कर भाजपा के विधायक को प्रो-टेम स्पीकर नियुक्त कर दिया.
कांग्रेस के महासचिव और कर्नाटक के प्रभारी के.सी. वेणुगोपाल ने कहा, ''राज्यपाल ने देर रात सरकार बनाने का न्योता देकर और अगली सुबह शपथग्रहण समारोह रखकर संवैधानिक परंपराओं का गला घोंटने की कोशिश की.''
हैरानी नहीं कि भाजपा इसे अनुचित नहीं मान रही थी. भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव पी. मुरलीधर राव ने कहा, ''चुनाव-पूर्व कोई गबंधन नहीं था तो संवैधानिक परिपाटी तथा एस.आर. बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट की विवेचना के अनुसार सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने और बहुमत साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए.''
दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी बात को सही ठहराने के लिए पहले के उदाहरण दे सकते हैं. कांग्रेस हाल में गोवा, मेघालय और मणिपुर के चुनावों के उदाहरण रख सकती है जहां सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए न्योता देने की जगह भाजपा के चुनाव-पश्चात बनाए गठबंधन को सरकार बनाने का मौका मिला.
संविधान भी इस विषय पर कुछ स्पष्ट नहीं है, खासतौर से राज्यपाल के अधिकारों को लेकर. पर वाला सही नीयत से काम करते नजर नहीं आ रहे थे. पीपल्स युनियन फॉर सिविल लिबर्टिज के अध्यक्ष डॉ. वी. सुरेश कहते हैं, ''राज्यपाल का भाजपा को सरकार बनाने का न्योता देना, जिसके पास बहुमत नहीं था, संविधान का माखौल उड़ाना था.''
सरकार बनाने को लेकर मचे घमासान पर कटाक्ष करते एच.डी. कुमारस्वामी ने कहा, ''त्रिमूर्ति यह सोचकर चल रही है कि वह कर्नाटक में अपना गुजराती धंधा खड़ा कर लेगी.'' ऐसा कहा जाता है कि वाला ने पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से परामर्श किया था.
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बोम्मई मामले में कोर्ट के फैसले और सरकारिया तथा पुंछी आयोग के निष्कर्षों का हवाला देते हुए वाला का पक्ष लिया. लेकिन उनके सारे तर्क बस कुतर्क ही लग रहे थे.
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता संजय हेगड़े ने बताया, ''राज्यपाल का एकमात्र दायित्व यह आकलन करना है कि कौन सदन में अपना बहुमत साबित करने में सक्षम है और उसे ही सरकार बनाने का न्योता दिया जाता है. जिस पक्ष के पास बहुमत था उसकी बजाए सबसे बड़े दल को जो बहुमत से पीछे रह गया है, उसे सरकार बनाने का निमंत्रण देने के पीछे उनके पास ठोस कारण होने चाहिए थे.''
वाला पहले राज्यपाल नहीं हैं जिन्होंने आकाओं के आदेश पर काम किया, पर इससे भी इनकार नहीं हो सकता कि उन्होंने भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुश करने के लिए ही संवैधानिक परंपरा को धत्ता बताते हुए निर्णय लिए.
वाला की बहुत किरकिरी हुई है. अगर इस तमाशे से हमें बचना है, तो ऐसे राज्यपालों की नियुक्ति को प्रोत्साहन मिले जो किसी दल की आस्था में बंधे न हों और लोकतंत्र के पहरुआ बनें न कि खुद एक सियासी पक्ष.
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