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आबादी के फायदे का दूसरा पहलू

सदी के मध्य तक भारत में बुजुर्गों की आबादी में तेजी से इजाफे का अनुमान. ब्रांडेड कॉर्पोरेट वृद्धाश्रम तो फल-फूल रहे जबकि बुजुर्गों की देखभाल का आलम खासा परेशान करने वाला.

शोभा हरमिटेज वडक्कनचेरी, केरल
शोभा हरमिटेज वडक्कनचेरी, केरल

सुंदरबन डेल्टा की तरफ से आती ठंडी हवाओं से बचने के लिए करीब 30 महिलाएं और पुरुष एक अलाव के इर्दगिर्द इकट्ठा हैं. वे पुराने भूले-बिसरे गाने गा रहे हैं. व्हिस्की की घूंटों के बीच जब-तब तालियां बजती हैं और भाईचारा दिखाया जाता है. सत्तर और अस्सी की उम्र के ये बुजुर्गवार कोलकाता के ओल्ड एज होम ठिकाना शिमला में रहते हैं और यहां कुछ दिनों की छुट्टी मनाने आए हैं.

माटला नदी के किनारे नाइट-आउट इस छुट्टी का खास आकर्षण है. हर दूसरे साल उन्हें ऐसी ही छुट्टी पर ले जाया जाता है. इससे उनका ध्यान बुढ़ापे के तोड़ देने वाले प्रभावों, दर्द और तकलीफों, देखने और सुनने की परेशानियों, यहां तक कि विस्मृति और अवसाद से भी बंटता है, जो उनके लिए अच्छा ही है.

हिंदुस्तान का जनसांख्यिकीय नफा-नुक्सान और बढ़ती युवा आबादी की तमाम बातें अपनी जगह, पर देश तेजी से बुढ़ापे की तरफ भी बढ़ रहा है. केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 10.39 करोड़ बुजुर्ग यानी 60 बरस की उम्र से ज्यादा के लोग हैं.

ये देश की आबादी के तकरीबन 8.5 फीसदी हैं. यह आंकड़ा 2011 की जनगणना से निकाला गया है. बुजुर्गों की आबादी हर साल 3.5 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी है, जो कुल आबादी बढऩे की रक्रतार से दोगुनी है.

एनजीओ हेल्पेज इंडिया की 2014 की एक रिपोर्ट बताती है कि हिंदुस्तान जहां 2020 तक दुनिया का सबसे युवा देश होगा, वहीं 2050 तक 32.50 करोड़, यानी आबादी के 20 फीसदी, लोग "बुजुर्ग'' होंगे. रिपोर्ट यह भी कहती है कि 2006 से 2050 के बीच जहां भारत की कुल आबादी 40 फीसदी बढ़ेगी, वहीं बुजर्गों की आबादी में 270 फीसदी तक इजाफा होगा.

हिंदुस्तान में बड़े-बूढ़ों की आबादी में इस बेतहाशा बढ़ोतरी को देखते हुए कौन-सी आर्थिक और सामाजिक नीतियां बनाई जा रही हैं? ऑल इंडिया सीनियर सिटिजंस कन्फेडरेशन (एआइएससीसीओएन) के अध्यक्ष एस.पी. किंजवड़ेकर कहते हैं, "70 से ऊपर के लोगों की संभावित उम्र 18 फीसदी बढ़ गई है, पर जरूरी नहीं कि इससे उनकी जिंदगी बेहतर हुई हो.''

सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि बुढ़ापे में निर्भरता का अनुपात 1961 में 10.9 फीसदी से बढ़कर 2011 में 14.2 फीसदी हो गया. इसी अनुपात से आर्थिक रूप से उत्पादक आबादी पर पडऩे वाले दबाव को मापा जाता है.

हालांकि 41.6 फीसदी बुजुर्ग आबादी अब भी काम करती है (इसमें ग्रामीण और शहरी, पुरुषों और महिलाओं की आबादी में काफी फर्क है), पर कम ही लोग आर्थिक तौर पर सुरक्षित अनुभव करते हैं. काम करने वाले बुजर्गों की बड़ी संख्या ग्रामीण आदमियों की है (60 से ऊपर के 66.4 फीसदी ग्रामीण आदमी काम करते हैं, जबकि शहरी आदमियों में यह औसत महज 11.3 फीसदी है).

उनके लिए औपचारिक पेंशन की सुविधा भी सीमित और मोटे तौर पर नाकाफी है. 2016 में 15,000 ग्रामीण और शहरी लोगों के बीच किए गए एजवेल फाउंडेशन के एक सर्वे में 65 फीसदी उत्तरदाताओं ने कहा कि वे रुपए-पैसे के लिए या तो दूसरों के मोहताज हैं या आर्थिक संकट से घिरे हैं. वहीं धन की परेशानी झेल रहे तकरीबन 80 फीसदी लोगों ने कहा कि संकट इलाज और दवाओं के खर्च की वजह से है.

उधर, एआइएससीसीओएन का 2015-16 का सर्वे बताता है कि परिवारों के साथ रह रहे 60 फीसदी बुजुर्गों को गाली-गलौज और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है, 66 फीसदी बुजुर्ग या तो "बेहद गरीब'' या गरीबी की रेखा के नीचे हैं और 39 फीसदी को या तो छोड़ दिया गया है या वे अकेले रह रहे हैं. अकेले रहने से जुड़ी मानसिक सेहत की परेशानियां, खासकर बुजर्गों के लिए, इतनी गंभीर हैं कि ब्रिटेन ने इस जनवरी में अकेलेपन का एक अलग मंत्री नियुक्त किया है.

हिंदुस्तान अपने जीडीपी का महज 2 फीसदी स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च करता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि 2025 तक स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च जीडीपी के 2.5 फीसदी तक बढ़ जाएगा. ब्रिटेन की  मेडिकल की पत्रिका लांसेट के मुताबिक, यह चिंताजनक तौर पर "महत्वाकांक्षा का अभाव है...जब देशों का वैश्विक औसत तकरीबन छह फीसदी है.''

हाल ही के बजट में सरकार ने आयुष्मान भारत राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम का ऐलान किया, जिसमें हर साल प्रति परिवार 5 लाख रु. तक का स्वास्थ्य कवरेज देने का वादा किया गया है.

इससे यह तो पता चलता है कि सरकार जन स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने की जरूरत समझती है. पिछली एक योजना के तहत बुजुर्ग हिंदुस्तानियों को 1 लाख रु. का बीमा दिया जाता था, जिसमें गरीबी की रेखा से ऊपर के लोगों को अपना प्रीमियम खुद चुकाना होता था. इस योजना को भी अब आयुष्मान भारत में मिला दिया गया है. नई योजना में कोई 10 करोड़ परिवारों को शामिल किया जाएगा, जिसे सरकार दुनिया भर में सबसे ज्यादा बता रही है.

ज्यादा रकम का बेशक स्वागत है. नेशनल सैंपल सर्वे संगठन की रिपोर्ट में बताया गया था कि 2014 में शहरी अस्पताल में भर्ती होने पर 2004 की तुलना में औसतन 176 फीसदी ज्यादा खर्च होता था, जबकि ग्रामीण मरीज एक दशक पहले की तुलना में 160 फीसदी ज्यादा रकम चुका रहे थे.

एनएसएस के आंकड़ों से यह भी पता चला कि केवल बुजुर्गों से मिलकर बना परिवार स्वास्थ्य देखभाल पर हर महीने 3.8 गुना ज्यादा खर्च करता है, उस परिवार की तुलना में जिसमें कोई बुजुर्ग नहीं है. फिर ताज्जुब क्या कि इतने सारे हिंदुस्तानी बुजुर्ग रुपए-पैसे के लिए अपने परिवारों के आसरे हैं.

यह ऐसी निर्भरता है जिसकी वजह से बर्दवान जिले के 65 बरस की स्कूल अध्यापिका श्यामली पॉल जैश सरीखे बुजुर्गवार खास तौर पर बेबस हो जाते हैं. उनका आइआइटी ग्रेजुएट बेटा विदेश चला गया और इसके साथ ही उसने सारे संपर्क तोड़ लिए.

श्यामली बताती हैं कि वे पति से पहले ही अलग हो गई थीं, कुछ हद तक अपने बेटे के साथ पति की लड़ाइयों की वजह से, और बाद में जब उनके बेटे ने भी उन्हें छोड़ दिया, तो वे कोलकाता चली आईं, जहां पुलिस को वे फटे-पुराने कपड़ों में सड़कों पर खानाबदोश घूमते मिलीं.

दूसरी तरफ, आइटी पेशेवर प्रसाद भिड़े ने अपनी बीमार मां की देखभाल के लिए अमेरिका की नौकरी छोड़ दी. उन्हें अच्छा होमकेयर नहीं मिला तो 2012 में आजी केयर की स्थापना की. भिड़े कहते हैं, "जब लोग सुबह से रात तक काम कर रहे हैं और बच्चे अपने बुढ़ाते मां-बाप से दूर रह रहे हैं, ऐसे में मेट्रो और टायर 2 शहरों में बुजुर्गों की देखभाल करने वाले केंद्रों की जरूरत बढ़ रही है.''

आजी बुजुर्ग मरीजों की स्वास्थ्य देखभाल के लिए ऐट-होम सेवा मुहैया करती है. 2016 में उन्होंने मुंबई के शांत उपनगर पवई में ओल्ड-एज होम और डेकेयर सेंटर आरंभ किया, जो अस्पताल में भर्ती होने के बाद उससे उबरने में बुजुर्ग मरीजों की मदद के लिए बनाया गया है.

भिड़े कहते हैं कि जब उन्होंने आजी खोला, तब मुश्किल से ही कोई मुकाबले में था, अब पांच साल बाद "कम से कम 100 स्टार्ट-अप'' हैं जो ऐट-होम सेवाएं पेश करते हैं और आजी केयर "सालाना करीब 40 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है.''

ठेठ हिंदुस्तानी फितरत के अनुरूप, जहां सरकार पिछड़ी है, वहीं निजी सेवाएं कुकुरमुत्तों की तरह उग आई हैं. अपने बच्चों और नाती-पोतों से दूर या उनकी बेरुखी के शिकार अकेले रह रहे बुजुर्ग कीमत चुकाकर अपने साथ वक्त बिताने के लिए युवाओं तक को किराए पर ले सकते हैं.

मगर खासकर मुंबई और दिल्ली सरीखे शहरों में जहां तमाम किस्म की चकराने वाली सेवाएं मौजूद हैं, वहीं न तो पर्याप्त ओल्ड-एज होम मौजूद हैं और न ही सस्ती सुविधाएं. मसलन, दिल्ली में चौतरफा घिरी आप सरकार ने इस महीने ऐलान किया कि तमाम प्रशासनिक और अफसरशाही की उलझनों के चलते वह वादे के मुताबिक 10 में से केवल दो ओल्ड-एज होम पर काम शुरू कर सकी.

केरल में मुख्यमंत्री की बनाई तीन सदस्यीय समिति ने पिछले महीने पाया कि 18 समस्याओं को फौरन सुलझाने की जरूरत थी. इनमें ओल्ड-एज होम में प्रशिक्षित नर्सिंग स्टाफ की भारी कमी, कुछ होम में बहुत ज्यादा लोगों का होना और कुछ में जगह खाली होना, और बुजुर्गों को रिश्तेदारों का धार्मिक स्थलों पर छोड़ देना, शामिल थीं.

2011 की जनगणना के मुताबिक केरल में बुजुर्गों की 12.6 फीसदी आबादी है जो किसी भी हिंदुस्तानी राज्य में सबसे ज्यादा है. इतनी ही हैरानी की बात यह है कि केरल में औरतों के जीने की संभावित उम्र भी पूरे भारत में सबसे ज्यादा है. 60 साल से ऊपर उनके 21.6 साल और जीने की संभावना रहती है.

60 बरस से ऊपर के अमीरों की बनिस्बत बहुत छोटी-सी आबादी के पास इतने सारे विकल्प पहले कभी नहीं थे. ठाणे, मुंबई के एक "एसिस्टेड लिविंग एल्डर केयर होम'' ए सिल्वर एमोर में कार्यरत जराचिकित्सक कुसुम दोषी बताती हैं कि बच्चे और खासकर 75 से ऊपर के उनके माता-पिता इन डीलक्स ओल्ड-एज होम में जिंदगी बिताना पसंद करते हैं.

मसलन, ए सिल्वर एमोर में 14 डॉक्टर चौबीसों घंटे मौजूद रहते हैं. कुछ रिटायरमेंट परिसर इतनी सारी सुविधाएं मुहैया करते हैं कि स्वस्थ बुजुर्ग भी खुद अपने घरों में या अपने परिवारों के साथ रहने की बजाए इनमें रहना पसंद करते हैं. यहां उन्हें हर वक्त मौजूद डॉक्टर, हेल्प डेस्क, पुख्ता सुरक्षा और दूसरे रिटायर लोगों की सोहबत जो मिलती है.

ऐसे परिसर की अव्वल मिसाल शायद देहरादून के बाहर अंतरा है. इसके 190 अपार्टमेंट्स में से 1-1 की कीमत 2 से 6 करोड़ रु. है और सेवाएं लक्जरी होटल के स्तर की हैं. देखभाल की फीस हर महीने 50,000 रु. जितनी हो सकती है. ये बुजुर्गों की देखभाल के लिए सबसे भव्य और आडंबरों से लैस सेवाएं हैं, जहां भले-चंगे रिटायर लोग आर्ट और योग की क्लासेस लेते हैं या अलस्सुबह स्विमिंग पूल में तैरने के बाद नाश्ते में कूटू के कुरकुरे बिस्कुटों का आनंद लेते हैं.

बेशक कुछ सीधे-सादे विकल्प भी हैं. कोलकाता के ठिकाना शिमला के अमिताभ डे सरकार पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में बनाए जा रहे "हर्मिटेज फॉर दि एल्डरली'' का जिक्र करते हैं, जहां 300-450 वर्ग फुट के छोटे-से स्टुडियो 5 या 6 लाख रुपए में बेचे जा रहे हैं.

डे सरकार कहते हैं, "कीमत चाहे जो हो, पर ओल्ड एज होम को महज ईंट और गारे से ज्यादा होना ही चाहिए. उसका यकीन अच्छी जिंदगी और समुदाय बनाने में होना चाहिए.'' मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में वरिष्ठ नागरिकों के स्व-घोषित "कम्यून'' द नेस्ट में सेवानिवृत्त स्कूल अध्यापक अरुण और सुमन ओझा होम थियेटर और रूफटॉप गार्डन की सुविधा का आनंद लेते हैं. सुमन कहती हैं, "लोग सोचते हैं कि हमें हमारे बच्चों ने छोड़ दिया है, पर अपने दम पर जिंदगी बसर करके हम खुश हैं.''

ऐशो-आराम और स्वालंबन की ऐसी कहानियां बेशक बेहद कम हैं. एआइएससीसीओएन की कई रिपोर्टें बताती हैं कि हिंदुस्तान में दूसरों के मुकाबले बुजुर्गवार अपराधों के आगे बहुत ज्यादा बेबस और लाचार हैं, चाहे वे हिंसक अपराध हों, या क्रेडिट कार्ड और बैंक धोखाधडिय़ों के साथ बढ़ते इलेक्ट्रॉनिक अपराध हों. एआइएससीसीओएन चाहता है कि मासिक पेंशन को 3,500 रु. से बढ़ाकर 7,000 रु. कर दिया जाए.

सबसे अहम बात यह कि केंद्र और राज्य दोनों सरकारें बुजुर्गों की बढ़ती आबादी की जरूरतों को पहचानें. 15 जून को भारत "विश्व वृद्धजन दुर्व्यवहार के खिलाफ चेतना दिवस्य मनाता है. पिछले साल इस दिन हजारों लोग अपनी त्रासद कहानियां एक-दूसरे को सुनाने और संस्थागत हो चुकी बेरुखी के खिलाफ विरोध दर्ज करने के लिए दिल्ली के जंतर मंतर पर जमा हुए थे.

इस साल और ज्यादा के इकट्ठा होने का मंसूबा है. हिंदुस्तान में बहुत कुछ बदलना होगा ताकि वह बुजुर्ग लोगों के लिए माकूल मुल्क बन सके.  

—साथ में अखिलेश पांडे

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