आखिरकार देवभूमि हिमाचल ने पहाड़ी टोपी की सियासत को अलविदा कह दिया. ठंडा प्रदेश होने के कारण यहां के लोग सिर ढकने के लिए खास तरह की टोपी पहनते आए हैं. इस सांस्कृतिक विरासत को राजनेताओं ने धीरे-धीरे सियासी रंग में रंग डाला. उस पर पार्टी विशेष का ठप्पा लगता गया. मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस सांस्कृतिक धरोहर को सहेजकर रखने के इरादे से टोपी पॉलिटिक्स खत्म करने का फैसला लिया.
टोपी पॉलिटिक्स ने कई दशकों से पूरे हिमाचल को न सिर्फ दो हिस्सों में बांट दिया था बल्कि यहां के लोगों को भी दो बड़े राजनैतिक दलों के समर्थकों के रूप में विभाजित कर रही थी. मूलत: कांग्रेस समर्थित लोग हरी टोपी पहनते आ रहे थे और भाजपा समर्थित लोग ‘मैरून’ टोपी.
इसके अलावा जिस पार्टी की सरकार सत्ता में होती, लोग उसी रंग की टोपी पहनने लगते. रंगों का यह असर पहाडिय़ों को भी निचले यानी नए हिमाचल और ऊपरी यानी पुराने हिमाचल में बांट रहा था.
कांग्रेस में वीरभद्र सिंह के मुख्यमंत्री रहते और भाजपा में प्रेम कुमार धूमल के सत्तासीन होने पर टोपियों का झगड़ा सत्ता के गलियारों से लेकर गली-कूचों तक पहुंच गया. कर्मचारी नेता बलवंत टेक्टा स्पष्ट करते हैं, ‘‘कांग्रेस सरकार में सचिवालय में काम करवाने जाना हो तो लोग हरी टोपी पहन लेते, प्रवेश भी मिलता और काम भी हो जाता. इसी तरह भाजपा राज में मैरून से सिर ढक लेने पर हर तरह की सहूलियत होती.’’
पिछले दिसंबर में बतौर मुख्यमंत्री शपथ लेते वक्त जयराम ठाकुर ने कोई भी टोपी नहीं पहनी. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से लेकर समूची सरकार शिमला में मौजूद थी. यही मंजर जनता का भी था.
लोग रंगीन टोपी पॉलिटिक्स से इतर नई सरकार का इस्तकबाल करते दिखे. इसके बाद मान-सम्मान में भी जयराम को जो टोपियां भेंट की गईं वे लाल और हरी, दोनों रंगों की थीं. सदन के भीतर हो या बाहर, या तो जयराम ने टोपी पहनी नहीं या फिर दोनों रंगों को एक समान तवज्जो दी. पिछले पखवाड़े तिरुपति मंदिर से बाल कटवा कर लौटने पर उन्होंने सदन में हरी और लाल, दोनों रंगों की कैप पहनीं.
दरअसल ऊनी या पश्मीने से बनी लाल या हरी पट्टी वाली टोपी को बुशहरी टोपी कहा जाता है. हालांकि कुल्लवी टोपी भी है लेकिन बुशहरी की सियासत गहरी है. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस के वीरभद्र सिंह पुराने जमाने की बुशहर रियासत के वारिस रहे हैं. बुशहर से किन्नौर तक न सिर्फ पुरुष बल्कि महिलाएं भी ठंड से बचने के लिए यह टोपी पहनती हैं. यह हिमाचल के ‘पर्यटन ब्रान्ड’ के रूप में भी उभरी है.
हिमाचल के सबसे पहले मुक्चयमंत्री डॉ. वाइ.एस. परमार सिरमौर जिले के थे. उन्होंने खादी टोपी नहीं पहनी. न ही उनके बाद आए, कांगड़ा के शांता कुमार या जुब्बल के रामलाल ठाकुर ने. वीरभद्र ने कुर्सी संभालने पर इसका रोजमर्रा इस्तेमाल शुरू किया.
दो कारण थे: एक, बुशहर की राजसी परंपरा, दूसरा उनके सिर पर बाल कम होना. वे जहां भी जाते, हरी टोपी पहनते. वीरभद्र कहते भी हैं कि ‘‘मेरे समर्थक हरी टोपी पहनते हैं. मेरा बेटा लाल टोपी भी पहनता है. पर मैं टोपी पॉलिटिक्स के खिलाफ हूं.’’ 1998 में धूमल मुख्यमंत्री बने तो टोपी सियासत को ‘मैरून’ रंग दे दिया. यूं दो दशकों से भाजपा और कांग्रेस, लाल-हरे रंग में बंट गई.
जयराम ठाकुर ने इस फैसले पर लगाम इसलिए भी लगाई क्योंकि वे पहली बार मध्य हिमाचल से मुख्यमंत्री बने हैं. वरना कांग्रेस ने हमेशा ऊपरी हिमाचल से मुख्यमंत्री दिया और भाजपा ने निचले हिमाचल से.
टोपी के नाम पर लोगों का इस तरह बंटना जयराम ठाकुर को खल रहा था. उनके शब्दों में, ‘‘मेरे लिए पूरा प्रदेश एक है. मैं खुद देहात के एक सामान्य-से किसान परिवार से हूं. मेरे इलाके में भी खूब बर्फ गिरती है, लोग सिर ढकते हैं. लेकिन टोपी के रंगों पर विचारधाराओं का टकराना दुख की बात है. टोपी पहनने में पार्टी लाइन पर कोई बाध्यता क्यों होनी चाहिए भला!’’
***