डालियन बंदरगाह पर धूप से खिली एक सर्द सुबह लाल झंडों से सजा 70,000 टन का जहाज धुंध के बीच से उभरकर आता है. यह जहाज तीन दिन की देरी से आया और 23 अप्रैल को पीएलए के नौसेना दिवस में शामिल होने से चूक गया. फिर भी चीनी नेताओं के लिए यह इंतजार सार्थक रहा.
यह चीन का पहला देश में ही निर्मित विमानवाहक पोत है जिसका अभी नाम भी नहीं रखा गया है (फिलहाल इसे टाइप 001ए के नाम से जाना जाता है), लेकिन इसने पूरे एशिया में लहरें पैदा कर दी हैं. पीएल की नौसेना (पीएलएएन) के बेड़े में यह दूसरा ही वाहक जहाज है और यह पहले जहाज लियाओनिंग का साथ देगा जो सोवियत जमाने के यूक्रेन के जहाज वर्याग को नए सिरे से जोड़कर बनाया गया है.
चीन लंबे समय से कुछ दूसरे देशों को डाह और ईर्ष्या से देखता आया है. इनमें अमेरिका तो है ही जिसका 10 विमानवाहक पोतों का बेड़ा प्रशांत महासागर में इठलाकर घूमता रहता है और बाज दफे महज अपनी धमक जताने के लिए ताईवान जलडमरूमध्य में भी दाखिल हो चुका है. भारत भी उसकी डाह की वजह है जिसके विमानवाहक जहाज हिंद महासागर में उसकी नौसेना की जबरदस्त मौजूदगी के ताकतवर प्रतीक हैं. चीन के सामरिक विशेषज्ञ मानते हैं कि अब एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है.
टाइप 001ए (खबरों के मुताबिक जल्दी ही जिसका नाम चीन के एक पूर्वी प्रांत के नाम पर 'शैनडोंग' रखा जाने वाला है) का निर्माण शिपबिल्डिंग इंडस्ट्री कॉर्प (सीएसआइसी) ने किया है. इस विशालकाय कंपनी का संचालन सरकार करती है और यह चीन के विशाल स्वदेशी जहाज निर्माण उद्योग की रीढ़ है. नए जहाज की तैनाती 2020 तक की जा सकती है, यानी इसके ढांचे में पहला बोल्ट कसने के महज पांच साल बाद.
कुछ और वाहक जहाज भी आने वाले हैं. शंघाई के नजदीक जिआंगनान में एक और सरकार संचालित विशालकाय निर्माण कंपनी चाइना स्टेट शिपबिल्डिंग कॉर्प (सीएसएससी) कहीं ज्यादा आधुनिक जलपोत का निर्माण कर रही है जिस पर ज्यादा तादाद में जे-15 लड़ाकू विमान ले जाए जा सकेंगे. इसके अलावा राडार और वायु प्रतिरक्षा मिसाइलें भी विकसित की जा रही हैं.
नौसेना के एडमिरल यिन झुओ कहते हैं कि अगले दशक और उसके आगे चीन को श्पांच से छह्य विमानवाहक पोतों की जरूरत होगी, क्योंकि दक्षिण और पूर्व चीन सागर के लिए दो पोत के अलावा ''पश्चिम प्रशांत महासागर में दो और हिंद महासागर में भी दो नौवहन पोत की दरकार होगी.''
चीन इसके लिए तैयारी करते हुए खासकर हिंद महासागर में पहले से ही बुनियादी ढांचा खड़ा कर रहा है. उसका पहला समुद्रपार सैन्य सुविधा केंद्र अदन की खाड़ी के नजदीक जिबूती में पिछले साल ही शुरू हुआ है. इसके अलावा चीन पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, सेशल्स और डार्विन, ऑस्ट्रेलिया में बंदरगाहों का निर्माण और साज-संभाल कर रहा है.
चीन जिस तेज रफ्तार से छह पातों के बेड़े की दिशा में बढ़ रहा है, उससे बिल्कुल उलट भारत का कार्यक्रम देरी से चल रहा है. भारत ने ब्रिटिश मूल के विक्रांत और विराट की जगह लेने के लिए दो पोतों की योजना बनाई थी और कम से कम 1980 के दशक से ही उसने तीन जलपोतों की नौसैन्य अवधारणा पर काम किया थी. मगर यह योजना कभी परवान नहीं चढ़ सकी.
पहले तो इसे 1990 के दशक की आर्थिक सुस्ती के दौरान घटाकर दो मध्यम आकार के पोतों में बदल दिया. इस बीच भारत ने पूर्व-रूसी पोत खरीदे जिनमें 44,000 टन का एडमिरल गोर्शकोव भी था, जो पांच साल की देरी और लागत में भारी बढ़ोतरी के साथ 2013 में उसे मिला. नया नामधारी विक्रमादित्य अब भारत का अकेला वाहक पोत रह गया है (विराट इसी साल रिटायर हो चुका है). पहले स्वदेशी विमानवाहक पोत (आइएसी) के निर्माण की मंजूरियां सबसे पहले 1999 में दी गईं.
यह परियोजना आखिकार 14 साल बाद जाकर शुरू हो सकी, इन देरियों की वजह से इसका कमिशन दिया जाना 2018 या उससे भी आगे तक, यानी काम शुरू होने के तकरीबन दो दशक आगे तक, टल गया है. दूसरे विमानवाहक पोत आइएसी-2 की योजना भी अगले दशक के लिए टल गई है, जो 60,000 टन से ऊपर का परमाणु शक्ति वाहक पोत हो सकता है.
इस महीने जब चीन अपनी कामयाबी का जश्न मना रहा था.
उसके विशेषज्ञ इस मौके पर भारत की परेशानियों की ढोल पीटने से नहीं चूके. पीएलएएन की नैवल इक्विपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक अफसर लियु कुई ने पीएलए की आधिकारिक वेबसाइट पर एक लेख में लिखा, ''तीन विमानवाहक पोत हासिल करने का भारतीय नौसेना का सपना चकनाचूर हो चुका है, क्योंकि उसने अपनी शोध और विकास की क्षमताओं और देश की कुल ताकत को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर आंक लिया था.''
सीएसएसी ने 1980 से 300 मीटर के 22 ड्राइ डॉक और 480 मीटर के छह डॉक बनाए हैं जिनमें दुनिया में चीन सबसे ज्यादा डॉक क्षमता वाला देश बन गया है.
यह चीन का पहला देश में ही निर्मित विमानवाहक पोत है जिसका अभी नाम भी नहीं रखा गया है (फिलहाल इसे टाइप 001ए के नाम से जाना जाता है), लेकिन इसने पूरे एशिया में लहरें पैदा कर दी हैं. पीएल की नौसेना (पीएलएएन) के बेड़े में यह दूसरा ही वाहक जहाज है और यह पहले जहाज लियाओनिंग का साथ देगा जो सोवियत जमाने के यूक्रेन के जहाज वर्याग को नए सिरे से जोड़कर बनाया गया है.
चीन लंबे समय से कुछ दूसरे देशों को डाह और ईर्ष्या से देखता आया है. इनमें अमेरिका तो है ही जिसका 10 विमानवाहक पोतों का बेड़ा प्रशांत महासागर में इठलाकर घूमता रहता है और बाज दफे महज अपनी धमक जताने के लिए ताईवान जलडमरूमध्य में भी दाखिल हो चुका है. भारत भी उसकी डाह की वजह है जिसके विमानवाहक जहाज हिंद महासागर में उसकी नौसेना की जबरदस्त मौजूदगी के ताकतवर प्रतीक हैं. चीन के सामरिक विशेषज्ञ मानते हैं कि अब एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है.
टाइप 001ए (खबरों के मुताबिक जल्दी ही जिसका नाम चीन के एक पूर्वी प्रांत के नाम पर 'शैनडोंग' रखा जाने वाला है) का निर्माण शिपबिल्डिंग इंडस्ट्री कॉर्प (सीएसआइसी) ने किया है. इस विशालकाय कंपनी का संचालन सरकार करती है और यह चीन के विशाल स्वदेशी जहाज निर्माण उद्योग की रीढ़ है. नए जहाज की तैनाती 2020 तक की जा सकती है, यानी इसके ढांचे में पहला बोल्ट कसने के महज पांच साल बाद.
कुछ और वाहक जहाज भी आने वाले हैं. शंघाई के नजदीक जिआंगनान में एक और सरकार संचालित विशालकाय निर्माण कंपनी चाइना स्टेट शिपबिल्डिंग कॉर्प (सीएसएससी) कहीं ज्यादा आधुनिक जलपोत का निर्माण कर रही है जिस पर ज्यादा तादाद में जे-15 लड़ाकू विमान ले जाए जा सकेंगे. इसके अलावा राडार और वायु प्रतिरक्षा मिसाइलें भी विकसित की जा रही हैं.
नौसेना के एडमिरल यिन झुओ कहते हैं कि अगले दशक और उसके आगे चीन को श्पांच से छह्य विमानवाहक पोतों की जरूरत होगी, क्योंकि दक्षिण और पूर्व चीन सागर के लिए दो पोत के अलावा ''पश्चिम प्रशांत महासागर में दो और हिंद महासागर में भी दो नौवहन पोत की दरकार होगी.''
चीन इसके लिए तैयारी करते हुए खासकर हिंद महासागर में पहले से ही बुनियादी ढांचा खड़ा कर रहा है. उसका पहला समुद्रपार सैन्य सुविधा केंद्र अदन की खाड़ी के नजदीक जिबूती में पिछले साल ही शुरू हुआ है. इसके अलावा चीन पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, सेशल्स और डार्विन, ऑस्ट्रेलिया में बंदरगाहों का निर्माण और साज-संभाल कर रहा है.
चीन जिस तेज रफ्तार से छह पातों के बेड़े की दिशा में बढ़ रहा है, उससे बिल्कुल उलट भारत का कार्यक्रम देरी से चल रहा है. भारत ने ब्रिटिश मूल के विक्रांत और विराट की जगह लेने के लिए दो पोतों की योजना बनाई थी और कम से कम 1980 के दशक से ही उसने तीन जलपोतों की नौसैन्य अवधारणा पर काम किया थी. मगर यह योजना कभी परवान नहीं चढ़ सकी.
पहले तो इसे 1990 के दशक की आर्थिक सुस्ती के दौरान घटाकर दो मध्यम आकार के पोतों में बदल दिया. इस बीच भारत ने पूर्व-रूसी पोत खरीदे जिनमें 44,000 टन का एडमिरल गोर्शकोव भी था, जो पांच साल की देरी और लागत में भारी बढ़ोतरी के साथ 2013 में उसे मिला. नया नामधारी विक्रमादित्य अब भारत का अकेला वाहक पोत रह गया है (विराट इसी साल रिटायर हो चुका है). पहले स्वदेशी विमानवाहक पोत (आइएसी) के निर्माण की मंजूरियां सबसे पहले 1999 में दी गईं.
यह परियोजना आखिकार 14 साल बाद जाकर शुरू हो सकी, इन देरियों की वजह से इसका कमिशन दिया जाना 2018 या उससे भी आगे तक, यानी काम शुरू होने के तकरीबन दो दशक आगे तक, टल गया है. दूसरे विमानवाहक पोत आइएसी-2 की योजना भी अगले दशक के लिए टल गई है, जो 60,000 टन से ऊपर का परमाणु शक्ति वाहक पोत हो सकता है.
इस महीने जब चीन अपनी कामयाबी का जश्न मना रहा था.
उसके विशेषज्ञ इस मौके पर भारत की परेशानियों की ढोल पीटने से नहीं चूके. पीएलएएन की नैवल इक्विपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक अफसर लियु कुई ने पीएलए की आधिकारिक वेबसाइट पर एक लेख में लिखा, ''तीन विमानवाहक पोत हासिल करने का भारतीय नौसेना का सपना चकनाचूर हो चुका है, क्योंकि उसने अपनी शोध और विकास की क्षमताओं और देश की कुल ताकत को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर आंक लिया था.''
सीएसएसी ने 1980 से 300 मीटर के 22 ड्राइ डॉक और 480 मीटर के छह डॉक बनाए हैं जिनमें दुनिया में चीन सबसे ज्यादा डॉक क्षमता वाला देश बन गया है.