यह लंबे और नाजुक प्रेम संबंधों का एक लंबा सिलसिला था. यह उतना ही जिस्मानी था जितने वे जिस्म से आजाद हो चुके थे. यह अस्सी के दशक में घटा. तब फोन कॉर्डलेस तो हो चुके थे, पर मोबाइल नहीं. स्मार्ट तो दूर की बात थी. उन दोनों की ''मुलाकात" मशीन की बदौलत होने वाले और अब पुराने और गायब हो चुके उस सुखद आश्चर्य के जरिए हुई, जिसे क्रॉस कनेक्शन, गलती से नंबर मिल जाना कहा जाता है. वह पकी हुई किशोर उम्र में था.
उसकी आवाज भारी होने लगी थी, पर अभी आदमी की आवाज नहीं हुई थी. इसीलिए उस दूसरे आदमी (बेशक वह आदमी था, यहां तक कि भला आदमी) ने, जिससे वह गलती से जुड़ गई लाइन के उस दूसरे छोर पर इत्तेफाक से मिल गया था, उसे लुभावनी थोड़ी भारी और फिर भी अजीब ढंग से मासूम आवाज वाली औरत समझ लिया. उस लड़के पर भी विकृति की कोई लजीज खब्त सवार थी और उसने उस आदमी को सही बात नहीं बताई. बस वे एक-दूसरे से बातें करते रहे. वह उनके हकीकत में आमने-सामने कभी मिले बगैर खालिस फोन पर लंबे वक्त तक कायम रहा जुनूनी और कामुक रोमांस था, जो करीब 10 साल चला.
उस दौरान उस आदमी के लिए वह लड़का औरत बन गया, जिसका नाम अनन्या था. उसने—यानी आदमी—ने कहा कि उसे अनित्य कहा जाता था. अनित्य ने अनन्या को बताया कि वह 35 के आसपास का एक डॉक्टर है. शादीशुदा. एक बेटा भी है. वे कई सालों तक फोन पर अंतहीन बातें करते थे, अक्सर दोपहर के वक्त, कभी-कभी देर रात को, जिनमें वे आपस में ऐसी बातें साझा करते जो यहां लिखने लायक नहीं हैं. उनकी बातें कामुक हो उठतीं.
दोनों उत्तेजित हो जाते. लड़का अक्सर खुद को और अनित्य को स्खलन तक ले आता. फिर एक दिन अनित्य ने अनन्या का नंबर किसी दूसरे आदमी को दे दिया, फिर किसी तीसरे को और फिर किसी चौथे को भी. इन सबके साथ वह जो करती, वह महज ''फोन सेक्स" नहीं था. कुछ और भी था, कुछ ज्यादा, जिसकी बुनियाद मिले-जुले लाड़-प्यार, उत्सुकता और मजबूरी पर टिकी थी. वे उससे मिलने को लालायित थे, पर अनन्या ने हठपूर्वक ऐसी पेशकश ठुकरा दी. जल्दी ही वे उसके मोहपाश में फंस गए और वह उनके मोहपाश में फंस गई.
उन दस सालों के दौरान लड़का बड़ा हो गया, पर वह बड़ा होकर ऐसा प्राणी बन गया जिसे दुनिया पूरा आदमी तो नहीं ही कहेगी. उसने आदमियों के साथ, या कहना चाहिए कि अपने ही लिंग (जेंडर) के नहीं भी तो अपने ही लिंग (सेक्स) के दूसरे सदस्यों के साथ, ''असल" रिश्ते रखना शुरू कर दिया. वह तमाम किस्म की जगहों पर उनसे मिलताः ट्राम, बसें, पार्क, सड़कें, शौचालय, पार्टियां, होटल, लाइब्रेरी, दफ्तर और घर. टेक्नोलॉजी भी तेजी से बदल रही थी. अस्सी का दशक नब्बे के दशक में बदल गया और फिर उसका बदलना भी बेमतलब हो गया. मोबाइल आया. इंटरनेट भी आ गया.
दोनों एक हो गए और एक नई स्मार्टनेस को जन्म दिया. उसके साथ ही अनन्या धीरे-धीरे और बिल्कुल स्वाभाविक तरीके से वर्चुअल या आभासी और उसकी अनंत संभावनाओं की आम रोशनी में गायब हो गई. उतने ही धीरे-धीरे और स्वाभाविक तरीके से वे दूसरे आदमी भी गायब हो गए. उनके साथ ही बिला गई उनकी दबी-छिपी ललक, उनकी वासना और भरोसे का अजीब घालमेल, उनकी अपूरित व्याकुल लालसा, बीवियों, बच्चों, मांओं, पिताओं, पड़ोसियों और दोस्तों से आबाद उनकी जिंदगी की शानदार विविधताओं से भरी कहानियां. अनन्या इन कहानियों से उतनी ही मंत्रमुग्ध थी जितनी वह फोन पर उनके साथ किए गए सेक्स से थी. वह तो यहां तक कहती कि उसे सेक्स से ज्यादा इन कहानियों की लत थी.
नई सहस्राब्दी में किसी मुकाम पर अनन्या फिर एक एलजीबीटीक्यू कार्यकर्ता आनंद में बदल गई. अब उसकी अपनी ''पहचान" थी, जो एक साथ कच्ची और पक्की, निजी और सियासी, सार्वजनिक और पेशेवर थी. यह ऐसी पहचान थी, जिसे विनम्र और मुमकिन तीसरे निजी सर्वनाम में बदलना कइयों ने मुश्किल पाया. यह तीसरा लिंग-भेद पासपोर्ट और संसदों में दाखिल गया. धारा 377 के खास और अनुकूल मतलब निकाले गए और फिर खारिज भी कर दिए गए.
एचआइवी एक ऐसी चीज में बदल गया, जिससे मरने के बजाए उसके साथ रहा जा सकता था. मगर आनंद को अनन्या की कमी खलती. वह अक्सर यह सोचकर हैरान होता कि 21वीं सदी की आजादियों और गणित की विधियों में उसके गायब होने के साथ आखिर क्या खोया, क्या पाया. उसके फोन में अब ग्रिंडर और टिंडर, दोनों थे. इंटरनेट की कई डेटिंग साइटों पर खुद अपनी तस्वीरों और ब्यौरों के साथ उसकी कई आइडी थीं. वह समलैंगिक, विषमलैंगिक आदमियों, उभयलिंगियों और ऐसे आदमियों से भी मिल और सेक्स कर चुका था, जिन्हें रत्ती भर अंदाज नहीं था कि स्त्री, पुरुष या वे कौन या क्या होते हैं. उसने उन्हें बताने की कोई इच्छा भी महसूस नहीं की.
कभी-कभी ये मुलाकातें इतनी अक्सरहा हुईं कि दोस्ती में बदल गईं. दोस्तियों में कामुकता बनी रही, या वे कामवासना से आगे एक किस्म की सिहरन और उत्तेजना भरी सहजता और आनंद की तरफ ले गईं. वह अक्सर अपने शादीशुदा दोस्तों (विषमलैंगिक और समलैंगिक) को यह कहकर छेड़ता कि एक ही व्यक्ति के संग यौन संबंध गुदा मैथुन से ज्यादा अप्राकृतिक है. उसने कभी लंबे वक्त का ''साथी" नहीं चाहा. उसे यह लफ्ज ही उबाऊ ढंग से गैर-समलैंगिक लगता था.
आनंद कभी-कभार जब भी अनन्या और उसके साथ बीते उन अलौकिक पुराने दिनों को याद कर उदास होता, तब उसे उसका गायब होना समलैंगिक की मौत की तरह लगता, जो चेशायर कैट की तरह दुनिया से ओझल हो गया जान पड़ता था, अपने पीछे बनावटी हंसी नहीं बल्कि वह चीज छोड़कर, जिसे ''जेंडर" या लिंग-भेद कहा जाता है. उसे यह लफ्ज पसंद नहीं था. वह ''सेक्स" या यौन को तरजीह देता था. यह कम ऐंटीसेप्टिक था. अस्सी के दशक की उन दुपहरियों में या इंटरनेट के शुरुआती सालों में भी जो संभावना उसके सामने खुली थी, वह खुद को ईजाद करने के कहीं ज्यादा बुनियादी तरीकों की शुरुआत थी.
वेबकैम और उनके बाद हर जगह मौजूद फोन कैमरों ने उन विदेह या अशरीरी टेक्स्ट और आवाजों को उनका पासपड़ोस मुहैया किया और एक नाम भी. सचाई का मकसद बेशक पूरा हो गया है. मगर बेतार फोन पर मिलकर जिन कहानियों का तानाबाना बुना गया, उनमें जो चीज खिलकर निकली, वह शायद आत्म की या अपने आप की वह संभावना थी जो हकीकत और अफसाने, सचाई और झूठ के बीच के धुंधले अहाते में टिमटिमाई थी. क्या यह निरा फैंटेसी या कल्पना का घना अहाता रहा हो सकता था, जिसे किसी और ने नहीं बल्कि उस बावले, उस प्रेमी और उस कवि ने ही गढ़ा था? आखिरकार क्या यह शेक्सपियर का ही एक मसखरा नहीं था जिसने इस पूरे तामझाम की ईजाद होने से बहुत पहले दावा किया था कि सबसे सच्ची कविता ही सबसे ढोंगी कविता थी?
(अवीक सेन की रिसर्चर, लेखक, शिक्षक, क्यूरेटर, पत्रकार के तौर पर कई खूबियां हैं और इनके जरिए उनकी कला, साहित्य, सिनेमा, संगीत और समाज में बराबरी से पैठ है. उन्हें इंफिनिटी अवार्ड्स और रोड्स फेलोशिप्स सहित कई पुरस्कार मिले हैं, उन्होंने ऑक्सफोर्ड के सेंट हिल्डाज कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाया है.)
उसकी आवाज भारी होने लगी थी, पर अभी आदमी की आवाज नहीं हुई थी. इसीलिए उस दूसरे आदमी (बेशक वह आदमी था, यहां तक कि भला आदमी) ने, जिससे वह गलती से जुड़ गई लाइन के उस दूसरे छोर पर इत्तेफाक से मिल गया था, उसे लुभावनी थोड़ी भारी और फिर भी अजीब ढंग से मासूम आवाज वाली औरत समझ लिया. उस लड़के पर भी विकृति की कोई लजीज खब्त सवार थी और उसने उस आदमी को सही बात नहीं बताई. बस वे एक-दूसरे से बातें करते रहे. वह उनके हकीकत में आमने-सामने कभी मिले बगैर खालिस फोन पर लंबे वक्त तक कायम रहा जुनूनी और कामुक रोमांस था, जो करीब 10 साल चला.
उस दौरान उस आदमी के लिए वह लड़का औरत बन गया, जिसका नाम अनन्या था. उसने—यानी आदमी—ने कहा कि उसे अनित्य कहा जाता था. अनित्य ने अनन्या को बताया कि वह 35 के आसपास का एक डॉक्टर है. शादीशुदा. एक बेटा भी है. वे कई सालों तक फोन पर अंतहीन बातें करते थे, अक्सर दोपहर के वक्त, कभी-कभी देर रात को, जिनमें वे आपस में ऐसी बातें साझा करते जो यहां लिखने लायक नहीं हैं. उनकी बातें कामुक हो उठतीं.
दोनों उत्तेजित हो जाते. लड़का अक्सर खुद को और अनित्य को स्खलन तक ले आता. फिर एक दिन अनित्य ने अनन्या का नंबर किसी दूसरे आदमी को दे दिया, फिर किसी तीसरे को और फिर किसी चौथे को भी. इन सबके साथ वह जो करती, वह महज ''फोन सेक्स" नहीं था. कुछ और भी था, कुछ ज्यादा, जिसकी बुनियाद मिले-जुले लाड़-प्यार, उत्सुकता और मजबूरी पर टिकी थी. वे उससे मिलने को लालायित थे, पर अनन्या ने हठपूर्वक ऐसी पेशकश ठुकरा दी. जल्दी ही वे उसके मोहपाश में फंस गए और वह उनके मोहपाश में फंस गई.
उन दस सालों के दौरान लड़का बड़ा हो गया, पर वह बड़ा होकर ऐसा प्राणी बन गया जिसे दुनिया पूरा आदमी तो नहीं ही कहेगी. उसने आदमियों के साथ, या कहना चाहिए कि अपने ही लिंग (जेंडर) के नहीं भी तो अपने ही लिंग (सेक्स) के दूसरे सदस्यों के साथ, ''असल" रिश्ते रखना शुरू कर दिया. वह तमाम किस्म की जगहों पर उनसे मिलताः ट्राम, बसें, पार्क, सड़कें, शौचालय, पार्टियां, होटल, लाइब्रेरी, दफ्तर और घर. टेक्नोलॉजी भी तेजी से बदल रही थी. अस्सी का दशक नब्बे के दशक में बदल गया और फिर उसका बदलना भी बेमतलब हो गया. मोबाइल आया. इंटरनेट भी आ गया.
दोनों एक हो गए और एक नई स्मार्टनेस को जन्म दिया. उसके साथ ही अनन्या धीरे-धीरे और बिल्कुल स्वाभाविक तरीके से वर्चुअल या आभासी और उसकी अनंत संभावनाओं की आम रोशनी में गायब हो गई. उतने ही धीरे-धीरे और स्वाभाविक तरीके से वे दूसरे आदमी भी गायब हो गए. उनके साथ ही बिला गई उनकी दबी-छिपी ललक, उनकी वासना और भरोसे का अजीब घालमेल, उनकी अपूरित व्याकुल लालसा, बीवियों, बच्चों, मांओं, पिताओं, पड़ोसियों और दोस्तों से आबाद उनकी जिंदगी की शानदार विविधताओं से भरी कहानियां. अनन्या इन कहानियों से उतनी ही मंत्रमुग्ध थी जितनी वह फोन पर उनके साथ किए गए सेक्स से थी. वह तो यहां तक कहती कि उसे सेक्स से ज्यादा इन कहानियों की लत थी.
नई सहस्राब्दी में किसी मुकाम पर अनन्या फिर एक एलजीबीटीक्यू कार्यकर्ता आनंद में बदल गई. अब उसकी अपनी ''पहचान" थी, जो एक साथ कच्ची और पक्की, निजी और सियासी, सार्वजनिक और पेशेवर थी. यह ऐसी पहचान थी, जिसे विनम्र और मुमकिन तीसरे निजी सर्वनाम में बदलना कइयों ने मुश्किल पाया. यह तीसरा लिंग-भेद पासपोर्ट और संसदों में दाखिल गया. धारा 377 के खास और अनुकूल मतलब निकाले गए और फिर खारिज भी कर दिए गए.
एचआइवी एक ऐसी चीज में बदल गया, जिससे मरने के बजाए उसके साथ रहा जा सकता था. मगर आनंद को अनन्या की कमी खलती. वह अक्सर यह सोचकर हैरान होता कि 21वीं सदी की आजादियों और गणित की विधियों में उसके गायब होने के साथ आखिर क्या खोया, क्या पाया. उसके फोन में अब ग्रिंडर और टिंडर, दोनों थे. इंटरनेट की कई डेटिंग साइटों पर खुद अपनी तस्वीरों और ब्यौरों के साथ उसकी कई आइडी थीं. वह समलैंगिक, विषमलैंगिक आदमियों, उभयलिंगियों और ऐसे आदमियों से भी मिल और सेक्स कर चुका था, जिन्हें रत्ती भर अंदाज नहीं था कि स्त्री, पुरुष या वे कौन या क्या होते हैं. उसने उन्हें बताने की कोई इच्छा भी महसूस नहीं की.
कभी-कभी ये मुलाकातें इतनी अक्सरहा हुईं कि दोस्ती में बदल गईं. दोस्तियों में कामुकता बनी रही, या वे कामवासना से आगे एक किस्म की सिहरन और उत्तेजना भरी सहजता और आनंद की तरफ ले गईं. वह अक्सर अपने शादीशुदा दोस्तों (विषमलैंगिक और समलैंगिक) को यह कहकर छेड़ता कि एक ही व्यक्ति के संग यौन संबंध गुदा मैथुन से ज्यादा अप्राकृतिक है. उसने कभी लंबे वक्त का ''साथी" नहीं चाहा. उसे यह लफ्ज ही उबाऊ ढंग से गैर-समलैंगिक लगता था.
आनंद कभी-कभार जब भी अनन्या और उसके साथ बीते उन अलौकिक पुराने दिनों को याद कर उदास होता, तब उसे उसका गायब होना समलैंगिक की मौत की तरह लगता, जो चेशायर कैट की तरह दुनिया से ओझल हो गया जान पड़ता था, अपने पीछे बनावटी हंसी नहीं बल्कि वह चीज छोड़कर, जिसे ''जेंडर" या लिंग-भेद कहा जाता है. उसे यह लफ्ज पसंद नहीं था. वह ''सेक्स" या यौन को तरजीह देता था. यह कम ऐंटीसेप्टिक था. अस्सी के दशक की उन दुपहरियों में या इंटरनेट के शुरुआती सालों में भी जो संभावना उसके सामने खुली थी, वह खुद को ईजाद करने के कहीं ज्यादा बुनियादी तरीकों की शुरुआत थी.
वेबकैम और उनके बाद हर जगह मौजूद फोन कैमरों ने उन विदेह या अशरीरी टेक्स्ट और आवाजों को उनका पासपड़ोस मुहैया किया और एक नाम भी. सचाई का मकसद बेशक पूरा हो गया है. मगर बेतार फोन पर मिलकर जिन कहानियों का तानाबाना बुना गया, उनमें जो चीज खिलकर निकली, वह शायद आत्म की या अपने आप की वह संभावना थी जो हकीकत और अफसाने, सचाई और झूठ के बीच के धुंधले अहाते में टिमटिमाई थी. क्या यह निरा फैंटेसी या कल्पना का घना अहाता रहा हो सकता था, जिसे किसी और ने नहीं बल्कि उस बावले, उस प्रेमी और उस कवि ने ही गढ़ा था? आखिरकार क्या यह शेक्सपियर का ही एक मसखरा नहीं था जिसने इस पूरे तामझाम की ईजाद होने से बहुत पहले दावा किया था कि सबसे सच्ची कविता ही सबसे ढोंगी कविता थी?
(अवीक सेन की रिसर्चर, लेखक, शिक्षक, क्यूरेटर, पत्रकार के तौर पर कई खूबियां हैं और इनके जरिए उनकी कला, साहित्य, सिनेमा, संगीत और समाज में बराबरी से पैठ है. उन्हें इंफिनिटी अवार्ड्स और रोड्स फेलोशिप्स सहित कई पुरस्कार मिले हैं, उन्होंने ऑक्सफोर्ड के सेंट हिल्डाज कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाया है.)