सारे देश का ध्यान इस समय पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव पर लगा है, ऐसे में लुटियंस दिल्ली में 10 फरवरी को हुई एक महत्वपूर्ण घटना की ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई. इस दिन भारतीय राजस्व सेवा (आइआरएस), भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस), भारतीय रेलवे सेवा (आइआरएस) सहित प्रथम श्रेणी की 20 सेवाओं के अधिकारियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह से मुलाकात कर दो टूक शब्दों में कहा कि केंद्र सरकार के शीर्ष पदों पर भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) के अधिकारियों के एकछत्र राज को खत्म किया जाना चाहिए. वैसे तो ये अधिकारी कनफेडरेशन ऑफ सिविल सर्विसेज एसोसिएशन (कोक्सा) के बैनर तले सीधे प्रधानमंत्री से मिलना चाहते थे, लेकिन पीएमओ ने शुरुआती तौर पर जितेंद्र सिंह को इस मामले को देखने को कहा. इन अधिकारियों की सीधी मांग है कि भारत सरकार में सचिव, अतिरिक्त सचिव और संयुक्त सचिव जैसे पदों पर उन्हें भी बराबरी का मौका मिले.
बराबरी की इस लड़ाई को समझने से पहले कुछ चीजें जानना जरूरी है. जैसे, भारत में प्रशासन चलाने के लिए सिविल सेवा की प्रवेश परीक्षा का आयोजन संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) करता है. सफल होने वाले अभ्यर्थियों को मेरिट के आधार पर आइएएस, आइएफएस, आइपीएस, आइआरएस सहित 37तरह की सेवाओं में भेजा जाता है. कायदे से इन सेवाओं में पहुंचे सभी अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठने का समान अधिकार है. लेकिन व्यावहारिक स्थिति इससे उलट है. सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, सचिव स्तर के 80 फीसदी पद, अतिरिक्त सचिव स्तर के 92 फीसदी पद और संयुक्त सचिव स्तर के 64 फीसदी पदों पर सिर्फ आइएएस अफसरों का कब्जा है.
इन हालात से दूसरे अफसर कितने खफा हैं, इसका अंदाजा सातवें वेतन आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ए.के. माथुर ने अपनी रिपोर्ट में दिया, ''बाकी सेवाओं के अधिकारियों में कसमसाहट की वजह यही है कि लंबे समय से आइएएस अफसरों ने प्रशासन की सभी शक्तियों पर कब्जा कर रखा है और बाकी सेवाओं के अफसरों को दोयम दर्जे पर धकेल दिया है. शिकायत की मुख्य वजह यह है कि चाहे टेक्निकल हो या प्रशासनिक, अधिकांश क्षेत्रों में सभी पद आज आइएएस अफसरों के पास हैं. अब वह समय आ गया है जब सरकार कदम बढ़ाए कि विशेषज्ञता के आधार पर पोस्टिंग की जाए. अगर सभी सेवाओं से ईमानदार और बराबरी का व्यवहार नहीं किया गया तो आइएएस और अन्य सेवाओं में खाई बढ़ती जाएगी. अंततः इससे अराजकता फैलेगी जो प्रशासन और देश के लिए अच्छी नहीं होगी." प्रतिनिधिमंडल के साथ जितेंद्र सिंह से मिलने गए कोक्सा के संयोजक और आइआरएस एसोसिएशन के महासचिव जयंत मिश्र कहते हैं, ''हमारा संघर्ष किसी व्यक्ति विशेष या सेवा के विरुद्ध नहीं है, बल्कि हम यह चाहते हैं कि देशहित में कर्मठ और ईमानदार व्यक्तियों, चाहे वे किसी भी सेवा के हों, उन्हें उचित पदों पर पदस्थ किया जाए, ताकि वे देश की उन्नति के लिए समुचित योगदान दे सकें."
वेतन और प्रमोशन में विसंगति
गैर आइएएस सिविल सेवकों की पहली समस्या यह है कि नियुक्ति के समय सबको समान वेतन मिलता है, लेकिन चार साल बाद जब अफसर जूनियर टाइम स्केल से सीनियर टाइम स्केल पर आते हैं, तो आइएएस अधिकारियों को दो अतिरिक्ति इन्क्रीमेंट मिलते हैं. इसी तरह सीनियर टाइम स्केल से जूनियर एडमिनिस्ट्रेशन ग्रेड में पहुंचने पर फिर से दो अतिरिक्त इन्क्रीमेंट मिलते हैं. आगे के प्रमोशन में भी यही बात दोहराई जाती है. सातवें वेतन आयोग ने इस विसंगति को दूर करने की सिफारिश की थी. दूसरी सेवाओं के अफसरों की यह भी शिकायत है कि आइएएस अफसर का प्रमोशन समय रहते कर दिया जाता है, जबकि उनकी फाइलें लंबे समय तक लटकी रहती हैं.
प्रतिनियुक्ति में पेच
अन्य सेवाओं के अधिकारियों की बड़ी चुनौती डेपुटेशन में उन्हें कम तरजीह मिलना है. हर सेवा से संयुक्त सचिव स्तर पर डेपुटेशन में आने लायक अधिकारियों का पैनल बनाया जाता है. फिर इस पैनल से विभाग जरूरत के हिसाब से अधिकारी छांट लेते हैं. कोस्का के एक सदस्य ने बताया, ''डेपुटेशन तो दूर की बात, पैनल के गठन से ही हमारे साथ सौतेला व्यवहार शुरू हो जाता है. संयुक्त सचिव के लिए जहां आइएएस के 1999 बैच तक का पैनल गठित हो चुका है, वहीं आइपीएस का 1993 बैच का, आइआरएस का 1990 बैच का और रेलवे सर्विसेज का तो 1987 बैच का ही पैनल गठित हो पाया है. जब पैनल गठित ही नहीं होंगे तो डेपुटेशन पर जाएंगे कैसे?" आइआरएस सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी ने ध्यान दिलाया कि इस काम में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कार्मिक विभाग और सिविल सर्विस बोर्ड की होती है. लेकिन कार्मिक विभाग में सचिव, दोनों अतिरिक्त सचिव और छहों संयुक्त सचिव आइएएस कैडर के हैं, इसलिए बाकी सेवाओं के साथ न्याय कैसे हो पाएगा? सिविल सेवा बोर्ड पर भी पूरी तरह आइएएस का कब्जा है. हाल यह है कि जून 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाकी सेवाओं के 1995 बैच तक केपैनल का दिसंबर 2015 तक गठन करने का निर्देश दिया, लेकिन डेडलाइन बीतने के 14 महीने बाद भी पैनल का गठन नहीं हो सका है.
जीएसटी ने चौड़ी की खाई
पहले से चली आ रही इन विसंगतियों के साथ ही गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स नेटवर्क में शीर्ष पद आइएएस अधिकारियों को दिए जाने से आइआरएस (एक्साइज ऐंड टैक्स) अधिकारी भड़क गए हैं. बजट से पहले 30 जनवरी को इन अधिकारियों ने काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन भी किया था. पूर्व आइआरएस अधिकारी और सुप्रीम कोर्ट में कर मामलों के अधिवक्ता विराग गुप्ता कहते हैं, ''राजस्व सेवा के अफसरों को डर है कि टैक्स का ज्यादातर काम राज्यों में जाने से उनकी हैसियत कम हो जाएगी. भविष्य में पद भी कम हो सकते हैं." ऐसे में इन अफसरों को एक ही रास्ता दिख रहा है कि डेपुटेशन प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव हो जाए. क्या आइएएस के सहारे सरकार चला रहे प्रधानमंत्री यह बदलाव कर पाएंगे?
बराबरी की इस लड़ाई को समझने से पहले कुछ चीजें जानना जरूरी है. जैसे, भारत में प्रशासन चलाने के लिए सिविल सेवा की प्रवेश परीक्षा का आयोजन संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) करता है. सफल होने वाले अभ्यर्थियों को मेरिट के आधार पर आइएएस, आइएफएस, आइपीएस, आइआरएस सहित 37तरह की सेवाओं में भेजा जाता है. कायदे से इन सेवाओं में पहुंचे सभी अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठने का समान अधिकार है. लेकिन व्यावहारिक स्थिति इससे उलट है. सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, सचिव स्तर के 80 फीसदी पद, अतिरिक्त सचिव स्तर के 92 फीसदी पद और संयुक्त सचिव स्तर के 64 फीसदी पदों पर सिर्फ आइएएस अफसरों का कब्जा है.

वेतन और प्रमोशन में विसंगति
गैर आइएएस सिविल सेवकों की पहली समस्या यह है कि नियुक्ति के समय सबको समान वेतन मिलता है, लेकिन चार साल बाद जब अफसर जूनियर टाइम स्केल से सीनियर टाइम स्केल पर आते हैं, तो आइएएस अधिकारियों को दो अतिरिक्ति इन्क्रीमेंट मिलते हैं. इसी तरह सीनियर टाइम स्केल से जूनियर एडमिनिस्ट्रेशन ग्रेड में पहुंचने पर फिर से दो अतिरिक्त इन्क्रीमेंट मिलते हैं. आगे के प्रमोशन में भी यही बात दोहराई जाती है. सातवें वेतन आयोग ने इस विसंगति को दूर करने की सिफारिश की थी. दूसरी सेवाओं के अफसरों की यह भी शिकायत है कि आइएएस अफसर का प्रमोशन समय रहते कर दिया जाता है, जबकि उनकी फाइलें लंबे समय तक लटकी रहती हैं.

अन्य सेवाओं के अधिकारियों की बड़ी चुनौती डेपुटेशन में उन्हें कम तरजीह मिलना है. हर सेवा से संयुक्त सचिव स्तर पर डेपुटेशन में आने लायक अधिकारियों का पैनल बनाया जाता है. फिर इस पैनल से विभाग जरूरत के हिसाब से अधिकारी छांट लेते हैं. कोस्का के एक सदस्य ने बताया, ''डेपुटेशन तो दूर की बात, पैनल के गठन से ही हमारे साथ सौतेला व्यवहार शुरू हो जाता है. संयुक्त सचिव के लिए जहां आइएएस के 1999 बैच तक का पैनल गठित हो चुका है, वहीं आइपीएस का 1993 बैच का, आइआरएस का 1990 बैच का और रेलवे सर्विसेज का तो 1987 बैच का ही पैनल गठित हो पाया है. जब पैनल गठित ही नहीं होंगे तो डेपुटेशन पर जाएंगे कैसे?" आइआरएस सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी ने ध्यान दिलाया कि इस काम में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कार्मिक विभाग और सिविल सर्विस बोर्ड की होती है. लेकिन कार्मिक विभाग में सचिव, दोनों अतिरिक्त सचिव और छहों संयुक्त सचिव आइएएस कैडर के हैं, इसलिए बाकी सेवाओं के साथ न्याय कैसे हो पाएगा? सिविल सेवा बोर्ड पर भी पूरी तरह आइएएस का कब्जा है. हाल यह है कि जून 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाकी सेवाओं के 1995 बैच तक केपैनल का दिसंबर 2015 तक गठन करने का निर्देश दिया, लेकिन डेडलाइन बीतने के 14 महीने बाद भी पैनल का गठन नहीं हो सका है.
जीएसटी ने चौड़ी की खाई
पहले से चली आ रही इन विसंगतियों के साथ ही गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स नेटवर्क में शीर्ष पद आइएएस अधिकारियों को दिए जाने से आइआरएस (एक्साइज ऐंड टैक्स) अधिकारी भड़क गए हैं. बजट से पहले 30 जनवरी को इन अधिकारियों ने काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन भी किया था. पूर्व आइआरएस अधिकारी और सुप्रीम कोर्ट में कर मामलों के अधिवक्ता विराग गुप्ता कहते हैं, ''राजस्व सेवा के अफसरों को डर है कि टैक्स का ज्यादातर काम राज्यों में जाने से उनकी हैसियत कम हो जाएगी. भविष्य में पद भी कम हो सकते हैं." ऐसे में इन अफसरों को एक ही रास्ता दिख रहा है कि डेपुटेशन प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव हो जाए. क्या आइएएस के सहारे सरकार चला रहे प्रधानमंत्री यह बदलाव कर पाएंगे?