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सुर-साज में खोया अभिनेता

सिनेमा के सशक्त चरित्र अभिनेता ने मौसिकी की अपनी समझ का किया अनूठा इस्तेमाल. बांसुरी जैसे एक सुरीले साज से अपने इर्द-गिर्द रच लिया एक सजीला सुर संसार

रघुवीर यादव
रघुवीर यादव
अपडेटेड 7 फ़रवरी , 2017
रघुबीर यादव इस साल जून में 60 साल के हो जाएंगे. 60 यानी वह उम्र जब किसी भी पेशे का आदमी थोड़ा ठहरकर अपनी थकान और आगे की जिंदगी की थाह लेते हुए अपनी बचत, बालों के रंग और खट्टी-मीठी यादों का अकाउंट खंगालने लग जाता है. सिनेमा में, खासकर चरित्र अभिनेताओं के जीवन में यह सब ज्यादा ही बेरहमी से होता है. लेकिन फिल्मों में अभिनय के तीसेक साल पूरे कर चुके और मैसी साब, सलाम बॉम्बे, लगान, पीपली लाइव जैसा माइलस्टोन सिनेमा करते आए यादव, दोस्तों के बीच रघु भाई, आजकल किसी और ही धुन में मगन हैं.

सिनेमाई काम के सिलसिले में वे बस आपको सूचना के तौर पर बता देंगे कि राजकुमार राव के साथ की उनकी न्यूटन रिलीज होने वाली है, आनंद तिवारी के निर्देशन वाली लव बाइ स्कवायर फुट की शूटिंग उन्होंने अभी अभी पूरी की है. वर्जिन गोट जैसी कुछ फिल्में रिलीज नहीं हो पाई हैं और कुछेक की शूटिंग शुरू होनी है. लेकिन इन चर्चाओं में ज्यादा देर तक आप उन्हें बांधे नहीं रख सकते.

मुंबई के गोरेगांव वेस्ट में ओबेरॉय वूड्स कॉलोनी के एक टावर की बीसवीं मंजिल के उनके टू बेडरूम आशियाने की बैठक में नजर दौड़ाइएः दीवार पर रैक में विश्व सिनेमा की क्लासिक फिल्मों की डीवीडी हैं (खुद के अभिनय वाली चुनिंदा फिल्मों की भी डीवीडी उनके पास नहीं हैं). उसी में ऊपर की ओर अवार्ड/ट्रॉफियां सजी हैं. बाएं से अब जरा दाएं कोने में नजर डालें, अरे! ये बांसुरियां...सौ से ज्यादा! कुछ तो अधबनी भी हैं. बांस के 5-5 फुट तक के लट्ठे. पीवीसी पाइप की भी बांसुरियां. ये...कोल्ड ड्रिंक पीने के काम आने वाले नलके/स्ट्रॉ भी काटे-छेदे पड़े हैं. और यह तो ज्वार के तने जैसा...''जी, जी, वही है. इसके भीतर का गूदा निकालकर आग पर इसकी गांठों को सीधा करके बनाऊंगा.'' यह बताते हुए यादव की आवाज में छिपा उत्साह साफ महसूस किया जा सकता है. ''देश के किसी भी शहर से कोई दोस्त-मित्र आ रहा हो तो कहता हूं कि वहां का बांस लेते आना. ये देखिए, यह सिक्किम का पका बांस है. मध्य प्रदेश में पेंच अभयारण्य में गया तो छटपटा रहा था कि कब मौका मिले, मैं बांस तलाशूं.''

यादव ने पूरे घर को एक वर्कशॉप में तब्दील कर डाला है. मौका मिलते ही वे आरी, रंदा, रेगमाल, ड्रिल मशीन वगैरह लेकर कहीं भी शुरू हो जाते हैं. गाते-गाते (याद पिया की आए...हाय राम) बनाना, बीच-बीच में बजाकर देखना, बजाते-बजाते उसी में खो जाना...वैवाहिक जीवन में तनाव और नाकामी के बाद सोलह साल पहले उनके जीवन में आईं उनकी महिला मित्र रोशनी अचरेजा और बेटा अबीर (12) बीच-बीच में आकर उन्हें उनके जरूरी काम याद दिलाते हैं. रोशनी बताती हैं कि उन्होंने एक बार एक प्रोड्यूसर को बुला रखा था. ''ये बीच-बीच में उससे हां-हूं कर देते और फिर वहीं मौजूद अपने कुछ दोस्तों से कहीं-कहीं के बांस और बांसुरी की चर्चा में मसरूफ हो जाते. मुझे समझाना पड़ा इनको कि थोड़ा काम की बात भी कर लो.''

रघुबीर यादव के लिए संगीत के बिना जीवन की कल्पना भी दुश्वार है. उनसे पूछिए कि वे अभी तक जहां पहुंचे हैं, उसका आकलन किस रूप में करते हैं? उनका जवाब सुनिए, ''कहीं पहुंचने का वक्त कहां है? सिनेमा बस उतना ही कर लेता हूं कि भूखा न मरूं. वरना मेरी रूह को सुकून तो इस संगीत से ही मिलता है.'' पिछले हफ्ते वे अपना नाटक पियानो करने बरेली आए. वहां रात को एक अनौपचारिक बैठक में एक सूफी कव्वाल ने गाना क्या शुरू किया, यादव से रहा न गया. तबले वाले को लग्गी देने को कहा और शुरू हो गए. लैला-मजनूं नाटक की एक बंदिश पर खुद की रचना दीवाना दी...वाना और ला इलाह इल्लल्लाह ऐसा डूबकर गाया कि लोग रात एक बजे तक बैठे रह गए. वहां भी वे पूछते रहे कि क्या यह बांस बरेली है?

बांसुरी बजाना उन्होंने खुद ही सीखा है और बनाना भी. उनके कलेक्शन में ईरानी बांसुरी 'नेय और मिस्र की बांसुरी कवाला भी है. 2013 में आई उनकी फिल्म क्लब 60 के निर्देशक ने उन्हें स्लोवाकिया की बांसुरी फुजरा बनाते हुए देखा तो उसे बाकायदा उस फिल्म का हिस्सा बना लिया. यह साज बनाने की उनकी दीवानगी इस हद तक बढ़ गई है कि हाल ही उन्होंने नेट पर खोजकर अमेजन के जरिए 50,000 रु. की एक खराद मशीन विदेश से मंगाई. उनके बेडरूम से लगी खाली जगह में सूफी तंतु वाद्य रबाब भी अधबना पड़ा है. ''इसकी लकड़ी खराब निकल गई.'' आप चौंकें और चाय पीते हुए जब तक सामान्य होने की कोशिश करें, वे अपना एक और पहलू खोल देते हैं, ''चार स्क्रिप्ट लिख रखी हैं मैंने. जिंदगी में जो देखा, भोगा है, उसी से निकले हैं ये किस्से.'' इनके नाम हैं मेहरुन्निसा, सुंदर कांड, ननकू और बाबूजी. ''हम ऐसे प्रोड्यूसर चाहते हैं जो इसमें ज्यादा दखलअंदाजी न करें.''

जबलपुर के पास के रांझी गांव से कभी भागकर पारसी थिएटर कंपनी में शामिल हुए अति विनम्र और संकोची यादव की गंवई सादगी पूरे हाव-भाव में जस की तस मौजूद है. खुद की खामियों पर हंसने के मामले में वे चार्ली चैप्लिन की एक झलक दे जाते हैं. पारसी कंपनी में भर्ती के मौके पर उनके गंवई उच्चारण को लेकर जब मालिक ने 'तलफ्फ़ुज़ (उच्चारण)'' ठीक न होने की शिकायत की तो उन्होंने सफाई दी कि तबले पर गाऊंगा तो ठीक हो जाएगा. उन्हें लगा कि तलफ्फुज़ का ताल्लुक तबले से है. यह किस्सा वे मजे लेकर सुनाते हैं.

संयोग देखिए कि चार साल पहले शुरू उनका नाटक पियानो भी मुंबई के दो लोगों को मौसिकी के जरिए अकेलेपन से निबटने की सीख देता है. वे अब किसी ग्रुप के साथ लैला-मजनूं करने की सोच रहे हैं. बरेली में रिहर्सल के दौरान ग्रीन रूम में वे विजिटिंग कार्ड मांग बैठते हैं. कई दिनों से साथ होने के बावजूद आज यूं अचानक! कार्ड लेकर वे पीवीसी पाइप पर लपेटते हैं और बांसुरी बनाने के लिए पेंसिल से छेद का निशान लगाने लगते हैं. ''देखिए, आपका कार्ड मैंने किस तरह से ले लिया.'' पाइप को रेगमाल से घिसते हुए वे गुनगुनाने लगते हैं दीवाना दी...वा...ना. भला किस गुस्ताख में यह दम है, जो रघु भाई की इस दीवानगी में किसी तरह का दखल दे सके.
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