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उत्तराखंड: खत्म न हो जाएं बुग्याल

पर्यटन की वजह से उत्तराखंड में बुग्यालों का अस्तित्व संकट में.

वेदनी बुग्याल में हो रहा कंक्रीट का निर्माण
वेदनी बुग्याल में हो रहा कंक्रीट का निर्माण
अपडेटेड 5 अक्टूबर , 2015

उत्तराखंड के हिमालय से लगे बुग्याल प्रकृति का अमूल्य खजाना हैं. प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ ये औषधियों का भंडार भी हैं. लेकिन विडंबना ही है कि प्रकृति में जो कुछ भी सुंदर है, वह इंसान के उपभोग से बच नहीं पाया है. करना तो प्रकृति का उपयोग था, लेकिन इसने उपभोग की शक्ल ले ली. जिस तेजी के साथ अब सबसे नर्म और उपजाऊ घास के ये मैदान नष्ट हो रहे हैं, उससे पर्यावरण प्रेमियों को चिंता में डाल दिया है.

इस विनाश में सबसे बड़ा हाथ स्वयं सरकार और प्रशासन का है. उत्तराखंड सरकार कभी पर्यटन तो कभी धार्मिक आयोजनों के नाम पर इन बुग्यालों का दोहन करने में पीछे नहीं है. विभिन्न पर्यटन कंपनियां यहां टेंट लगाकर देश भर से लोगों को पर्यटन के नाम पर बुला रही हैं. उत्तराखंड वन्यजीव बोर्ड सलाहकार समिति के सदस्य अनूप साह कहते हैं, ''पर्यटन से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन पर्यटन का अर्थ प्रकृति को नुक्सान पहुंचाना तो नहीं है. बुग्यालों में मानवीय हस्तक्षेप के चलते यहां के पारिस्थितक तंत्र को भारी नुक्सान पहुंचा है. '' साह कहते हैं, ''नंदादेवी राजजात यात्रा के दौरान जिस तरह वेदनी बुग्याल की मिट्टी बिछाई गई, उस नुक्सान की भरपाई अब तक नहीं हो सकी है. ''

दयारा, वेदनी, औली और आली राज्य के कुछ प्रमुख बुग्यालों में से है और इन सब पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. शीतकालीन पर्यटन के नाम पर औली बुग्याल में होटल खड़ा कर दिया गया है. शीतकालीन खेलों के लिए की गई तैयारियों से यह बुग्याल भूस्खलन का शिकार हो गया, जिसका असर जोशीमठ शहर तक हुआ है. वेदनी बुग्याल में पिछले दिनों नंदादेवी राजजात यात्रा के दौरान काफी नुक्सान हुआ. हालांकि यह यात्रा बारह वर्षों में सिर्फ एक बार होती है, इसलिए इस नुक्सान की भरपाई मुमकिन है. आज की तारीख में सबसे बड़ा संकट पर्यटन के नाम पर यहां बन रहे स्थायी हट्स हैं. मखमली घास के मैदानों को खोदकर पक्की जमीन बनाई जा रही है. जिला प्रशासन और निजी ट्रैवल कंपनियां इस काम में जुटी हुई हैं. हालांकि वन विभाग के प्रमुख संरक्षक श्रीकांत चंदोला कहते हैं, ''बुग्यालों में पक्के निर्माण की अनुमति नहीं है. इसे रोकने के लिए वन विभाग अपनी तरफ से हर प्रयास कर रहा है. ''

बुग्यालों की खासियत यह है कि इनकी ऊपरी सतह 10 से 12 इंच तक मोटी होती है और उसके नीचे नमी से भरपूर अत्यधिक उपजाऊ मिट्टी होती है. सतह के नीचे एक से डेढ़ फु ट तक की परत भूरी मिट्टी की होती है. इस परत को बनने में दो सौ से दो हजार तक साल लगते हैं. बुग्याल चूंकि छह महीने से ज्यादा बर्फ  से ढके रहते हैं, इसलिए उनकी सतह के नीचे का तापमान हमेशा शून्य डिग्री ही बना रहता है. बुग्याल की सतह का तापमान 4 डिग्री से  ज्यादा नहीं होता. हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञानी डॉ. एम.पी.एस. बिष्ट कहते हैं, ''प्राकृतिक रूप से इतने संवेदनशील क्षेत्र में किसी भी तरह का निर्माण कार्य भूस्खलन का खतरा पैदा करेगा. यहां कंक्रीट का निर्माण पर्यावरणीय और भूगर्भीय दोनों दृष्टियों से खतरनाक है. ''

बुग्याल यानी अल्पाइन मीडोज औषधीय पेड़ों का सबसे बड़ा स्रोत माने जाते हैं. इनमें यारसा गंबू जैसी बहुमूल्य जड़ी से लेकर सालम पंजा, सालम मिस्री, कुटकी, गुच्छी मशरूम जैसी 500 से अधिक औषधीय प्रजातियां मिलती हैं. उत्तराखंड के हर जलागम क्षेत्र में कोई-न-कोई बुग्याल पड़ता है. मंदाकिनी घाटी में चोपता पांडुकेश्वर, अलकनंदा में औली, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और बंशीनारायण, कल्पेश्वर क्षेत्र में खरक, जोशीमठ में औली और गैरसू, ये सभी बुग्याल अपने प्राकृतिक औषधीय महत्व के कारण महत्वपूर्ण हैं. बुग्यालों पर शोध का निर्देशन करते रहे कुमाऊं विश्वविद्यालय वनस्पति विज्ञान विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर सुरेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं, ''आयुर्वेदिक दवाइयों में प्रयोग होने वाली अधिकांश औषधियों का स्रोत हिमालय के जंगल और बुग्याल ही हैं. ऐसे में बुग्याल के साथ इंसानी खिलवाड़ दरअसल इंसान के स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ है. ''

सवाल यह है कि हम जानते तो हैं कि हम क्या कर रहे हैं और इसके कितने खतरनाक नतीजे होंगे लेकिन फिर भी चेत क्यों नहीं रहे? क्या उत्तराखंड की एक आपदा यह बताने के लिए काफी नहीं कि इंसान अब तो प्रकृति का उपभोग छोड़कर सिर्फ उपयोग करना शुरू करे?

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