वर्ष 1984 में जकीउर-रहमान लखवी ने कुछ मुट्ठीभर पाकिस्तानी अहल-ए-हदीस अनुयायियों को अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ जेहाद छेडऩे के लिए जुटाया. उसके एक साल बाद लाहौर इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी में इस्लामी अध्ययन विभाग के दो प्रोफेसरों&हाफिज मोहम्मद सईद और जफर इकबाल ने अहल-ए-हदीस का प्रचार करने के मकसद से मुख्य रूप से तबलीग या दावा पर जोर देने वाले एक छोटे से समूह जमात-उद-दावा का गठन किया. 1986 में लखवी ने अपने जेहादियों को जमात-उद-दावा में मिलाकर मरकज दावत-उल-इरशाद का गठन किया. मरकज के तीन काम थे&जेहाद, अहल-ए-हदीस मसलक का प्रसार और विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध मुसलमानों की नई पीढ़ी तैयार करना. साल भर में ही मरकज ने अपना पहला जेहादी ट्रेनिंग कैंप अफगानिस्तान के पकटिया सूबे में स्थापित कर दिया&मुअस्कर-ए-तैयबा. दूसरा कैंप&मुअस्कर-ए-अक्सा कुनार में स्थापित किया गया.
सोवियत फौज के अफगानिस्तान से लौट जाने के बाद वहां अलग-अलग गुटों के मुजाहिदीन के बीच घातक आपसी जंग छिड़ गई. मरकज इससे खुश नहीं था और उसने अपना ध्यान भारतीय कश्मीर की ओर मोड़ लिया. इसके लिए उसने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में कई ट्रेनिंग कैंप स्थापित किए. 1990 में मरकज ने कश्मीर में अपना पहला मिशन छेड़ा जब उसके लड़ाकों ने श्रीनगर हवाई अड्डे की ओर जा रही एक जीप पर घात लगाकर हमला बोल दिया जिसमें भारतीय वायु सेना के जवान सवार थे.
कश्मीरी आतंकवादियों के भारतीय सुरक्षा बलों पर हमले 1990 तक आम हो चुके थे, लेकिन तब तक इस कदर अचूक हमला अप्रत्याशित था. 1990 के दशक के शुरुआती साल में मरकज ने अपनी गतिविधियों और सांगठनिक ढांचे को अलग कर दिया. उसने जमात के प्रचार-प्रसार का काम तो जारी रखा लेकिन लश्करे तैयबा के नाम से एक अलग आतंकी गुट खड़ा कर लिया. हालांकि सईद दोनों ही शाखाओं का अमीर था और उसका दोनों पर ही इतना नियंत्रण था कि मरकज और लश्कर में अंतर कर पाना लगभग नामुमकिन था.
लश्कर को आइएसआइ की शह
पाकिस्तानी फौज और उसकी खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलीजेंस (आइएसआइ) ने लश्करे तैयबा का गठन तो नहीं किया था लेकिन उसे इस बात का यकीन जरूर था कि लश्कर के पास जो मजबूत ताकत है, उससे वह कश्मीर में हालात बिगाड़ सकती है और बगावत का दायरा बढ़ा सकती है. इसीलिए 1990 के दशक के शुरुआत से ही आइएसआइ और फौज ने लश्कर के पीछे जमकर जोर लगाया. खास तौर पर भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए लश्कर की ताकत को खड़ी की गई. लश्कर की सैन्य प्रशिक्षण व्यवस्था को भी दुरुस्त किया गया. लश्कर के प्रशिक्षकों के लिए लश्कर के अड्डों में फौजी जवान तैनात किए गए. यही तरीका अब तक चला आ रहा है. खुद सईद समेत सभी के आइएसआइ में कोई न कोई आका हैं.
पाकिस्तान ने लश्कर पर जो खर्च किया, उसेनतीजे जल्द ही दिखने लगे. कुछ ही साल में लश्करे तैयबा कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया. 1999 में लश्कर ने भारतीय कश्मीर में नए किस्म के हमले बोलने शुरू किएः फिदायीन हमले. इन फिदायीन हमलों की मदद से लश्कर और उसके पाकिस्तानी हुक्मरान भारतीय कश्मीर में तीन साल से आतंकवादी गतिविधियों में आई गिरावट को पलट देना चाहते थे. लश्कर के फिदायीन मिशन कोई “आत्मघाती हमले” नहीं थे बल्कि वे अत्यधिक जोखिम वाले मिशन होते थे जिनमें पूर्णतः प्रशिक्षित कमांडो सीधी जंग में उतरते और पकड़े जाने के बजाए मर जाना पसंद करते थे.
पाबंदी का धोखा
दिसंबर 2001 में जैश-ए-मोहम्मद के भारतीय संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान ने कई अन्य आतंकवादी गुटों के साथ-साथ लश्कर पर भी पाबंदी लगा दी. इस हमले के बाद भारत और पाकिस्तान में जंग की नौबत आ गई थी. लेकिन इन पाबंदियों के झांसे में कोई नहीं आया. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों ने पाबंदी के बारे में आतंकी गुटों को पहले ही चेता दिया था जिससे उन सभी को अपनी रकम नए खातों में हस्तांतरित करने और नए नाम से सक्रिय होने का मौका मिल गया था. लश्कर के मामले में सईद ने ऐलान किया कि संगठन को पुनर्गठित किया गया है और वह अब जमात-उद-दावा के नाम से काम करेगा. उसके बाद से पाकिस्तान सरकार ने संगठन पर आगे पाबंदी लगाने का कोई ढोंग भी नहीं किया है. उसने ऐसा करने के अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, भारत और संयुक्त राष्ट्र के सभी दबावों को दरकिनार कर दिया है.
दिसंबर 2014 में पेशावर में फौजी स्कूल के बच्चों पर खूनी हमले के बाद भी, जब पाकिस्तानी अधिकारियों ने कसमें खाई थीं कि वे अब अच्छे व बुरे आतंकवादियों में कोई अंतर नहीं करेंगे, लश्कर (उर्फ जमात-उद-दावा) पर कभी कोई खतरा नहीं मंडराया. पाकिस्तानी हुक्मरान उसे “आतंकवादी” मानते ही नहीं हैं.
दरअसल, सईद ने तो यह दावा तक किया था कि पेशावर का हमला भारतीय एजेंटों की करतूत थी और इस हमले के फौरन बाद नवंबर 2008 के मुंबई हमले के मास्टरमाइंड लखवी को जमानत दे दी गई थी. लखवी 2008 के बाद से ही जेल में था. यह एक किस्म की हिफाजती हिरासत ही थी.
जेहाद के नए रास्ते
लश्कर ने 2005 तक अपने काडर को इस बात की इजाजत दे दी थी कि अफगानिस्तान जाकर अमेरिकी फौज से लड़ रहे अफगान तालिबान का साथ दें. हालांकि लश्कर का काडर ज्यादा उत्साहित नहीं था क्योंकि उसे डर था कि अफगानिस्तान की बगावत में ज्यादा हाथ झोंकने का मतलब यह होगा कि विभिन्न देवबंदी समूहों के भीतर और उनके साथ मिलकर काम करना होगा जो पाकिस्तान के खिलाफ भी लड़ रहे थे.
लश्कर ने अफगान लड़ाई में कई कारणों से दखल दिया. पहला, 2001 में भारतीय संसद पर जैश के हमले और फिर 2002 में कालुचक (कश्मीर) में भारतीय सेना के परिवारों पर लश्कर के हमले के बाद पाकिस्तान कश्मीर में अपने कुचक्र को रोकने के लिए मजबूर हो गया था. अमेरिकी दबाव में जनरल परवेज मुशर्रफ ने तथाकथित “छोटे जेहाद” की रणनीति अपनाई जिसमें लश्कर व अन्य जेहादी गुटों को बाहर रखा गया. इसलिए जो संगठन मैदान में उतरने को आतुर लड़ाकों और अनुभवी कमांडरों को अपने खेमे में बनाए रखना चाहते थे, उन्हें अफगानिस्तान एक अच्छा मैदान नजर आया.
दूसरे, पाकिस्तान के कई आतंकवादियों के लिए अफगानिस्तान में काफिरों से जंग लडऩे का एहसास ज्यादा आकर्षक था और कई देवबंदी संगठनों की तरह लश्कर भी इसके आगे झुक गया. तीसरे, संगठन के कई दानदाताओं का मानना था कि अमेरिकी व अंतरराष्ट्रीय फौजों द्वारा कब्जे के बाद अफगानिस्तान अब कश्मीर से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मंच हो गया था. चौथे, अमेरिकी सुरक्षा छतरी के तले भारत ने अफगानिस्तान में काफी मजबूत मौजूदगी बना ली थी जो पाकिस्तान के लिए निरंतर कोफ्त की बात थी. और सबसे महत्वपूर्ण यह कि आइएसआइ ने भी अफगानिस्तान में संगठन की भूमिका को मंजूरी दे दी थी ताकि लश्कर वहां हक्कानी नेटवर्क के साथ मिलकर अफगानिस्तान में भारतीय और अंतरराष्ट्रीय फौजी ठिकानों पर हमले के लिए महत्वपूर्ण ताकत बन जाए.
लश्कर की घरेलू राजनीति
लश्कर के ज्यादातर जानकार इस संगठन को ऐसे आतंकवादी संगठन के तौर पर मानते हैं जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान भारत में और हाल में अफगानिस्तान में अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए करता है. हालांकि, लश्कर की पाकिस्तान के भीतर भी एक बढ़ती और महत्वपूर्ण भूमिका है और वह इस लिहाज से कि वही अकेला संगठन है जो पाकिस्तानी राज्य-व्यवस्था के खिलाफ हिंसक देवबंदी एजेंडे का वैचारिक विरोध कर सकता है. पाकिस्तान में जिन गुटों ने तबाही फैला रखी है, वे देवबंदी हैं और देवबंदी ही पाकिस्तान में ज्यादातर सांप्रदायिक हमले करते हैं. जमात-उद-दावा पाकिस्तानियों पर हमले का विरोध करता है और इस लिहाज से वह वहां के हुक्मरानों के हाथों का एक अहम औजार है जो राज्य के खिलाफ खड़े हो गए देवबंदी जमातों से टक्कर लेने की कोशिश कर रहा है.
हैरानी की बात है कि क्षेत्रीय व अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को उससे पेश आ रहे गंभीर खतरे के बावजूद इस संगठन के ढांचे के बारे में कोई प्रमाणिक जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है. उसके सक्रिय काडरों की संख्या का अंदाजा भी कुछ हजार से लेकर अधिकतम पचास हजार के बीच है. सईद संगठन का मुखिया है. वह संगठन पर कड़ा नियंत्रण रखता है जो कई विभागों में बंटा है. ये विभाग जेहाद, शिक्षा, दान, मजहबी मामलात और जनकल्याण हैं. अपने आदेशों के अधिकतम अनुपालन के लिए सईद मुख्य पदों पर अपने परिवार के लोगों या बेहद नजदीकी साथियों को रखता है जो सीधे उसके प्रति जवाबदेह होते हैं. संगठन पर कड़ा नियंत्रण और खास लोगों की प्रमुख जगहों पर तैनाती ही इस बात की वजह है कि क्यों इस संगठन में उस तरह की तनातनी और नतीजतन राज्य के खिलाफ बगावत देखने को नहीं मिली है जैसी कि उन विभिन्न देवबंदी गुटों में रही है जिन्होंने अपने कमान और नियंत्रण ढांचे को कई लोगों में बांटा हुआ था.
साजिद मीर उसके विदेशी कामकाज का कमांडर है. वह 2008 में कुख्यात हुआ था क्योंकि वह 2008 के मुंबई हमलों का “प्रोजेक्ट मैनेजर” था. पाकिस्तान के भीतर अपनी कड़ी मोर्चेबंदी से ही वह व्यक्तिगत रूप से मुंबई हमले को निर्देशित कर रहा था और हमलावरों के साथ निरंतर फोन पर संपर्क में था. भारतीय कश्मीर में भी इस गुट का घाटी के लिए एक मुख्य ऑपरेशन कमांडर और मध्य, उत्तर व दक्षिण डिविजनों के लिए क्षेत्रीय डिविजनल कमांडर हैं. फिर इलाकाई स्तर पर छोटी कमान भी है.
कैसे होता है खर्च का इंतजाम
जमात-उद-दावा प्राथमिक रूप से अपने फंड का इस्तेमाल तीन उद्देश्यों के लिए करता हैः दावा, खिदमत और जेहाद संबंधी गतिविधियों (भर्ती, प्रशिक्षण और हथियारों की खरीद) के लिए. मगर इसे पुख्ता रूप से जानने का कोई जरिया नहीं है कि गुट का परिचालन बजट कितना है और उसका कितना हिस्सा सीधे राज्य की तरफ से आता है और कितना संगठन की अपनी धन इकट्ठा करने की गतिविधियों से एकत्र होता है. अनुमान लगाया जाता है कि लश्कर का कुल सालाना परिचालन बजट लगभग 5 करोड़ डॉलर का है जिसमें लगभग 52 लाख डॉलर सैन्य गतिविधियों पर खर्च किए जाते हैं. इस परिचालन बजट से संगठन समूचे पाकिस्तान में कई प्रशिक्षण केंद्रों का संचालन करता है. यह भी अनुमान लगाया जाता है कि संगठन अपना बेसिक कोर्स दौरा-ए-आम करने वाले हरेक पर 330 डॉलर और एडवांस तीन महीने का कोर्स दौरा-ए-खास करने वाले हरेक पर 1,700 डॉलर का खर्च करता है.
इस बात की संभावना कम ही है कि सरकार को उसका पूरा परिचालन खर्च मुहैया कराना होता होगा क्योंकि देशी व विदेशी दानदाता संगठनों से, ऑनलाइन चंदे से, अपने कई प्रकाशनों की बिक्री से, जिबह किए गए पशुओं के चमड़ों की बिक्री से और तमाम अन्य जरियों से धन उगाहने की गुट की अपनी क्षमताएं काफी मजबूत हैं. हैरानी की बात यह है कि पाकिस्तान की संघीय और उसके पंजाब सूबे की सरकार गुट को परोक्ष रूप से मदद उपलब्ध कराती हैं जबकि संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका ने उसे आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है.
भारत में लश्कर
अभी तो लश्कर दक्षिण एशिया का सबसे प्रमुख आतंकवादी गुट है. संगठनात्मक रूप से उसका अल कायदा या उसके प्रतिस्पर्धी इस्लामी स्टेट (आइएस) के साथ कोई तालमेल नहीं है. दरअसल, इनमें से किसी भी संगठन के साथ हाथ मिलाने से उसका सबसे महत्वपूर्ण समर्थन खतरे में पड़ जाएगा, और वह है पाकिस्तानी शासन का बेलाग समर्थन. हालांकि आइएस ने अपनी हिंसा की भयावहता को काफी बढ़ाया है लेकिन अल कायदा और लश्कर समन्वित, बहुस्थलीय एक साथ हमले बोलने के संदर्भ में हमेशा दुनिया को चौंकाते रहे हैं. इस्लामी स्टेट मीडिया के केंद्र में बने रहने के लिए इस कदर बर्बरता बरपा रहा है कि यहां तक कि तालिबान और अल कायदा ने भी आइएस को इस्लाम के नाम को कलंकित करने वाले बर्बर वहशी करार दिया है. लेकिन उसकी इसी बर्बरता ने अन्य आतंकवादी गुटों पर भी बर्बरता बढ़ाने के लिए मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया है. आखिरकार, सभी इस्लामी आतंकवादी गुट फंड और काडर के लिए अपने हिस्से की होड़ में तो हैं ही. कुछ मामलों में तो आइएस ने यह दिखा दिया है कि उसे किसी के मदद की जरूरत नहीं है, वह अपनी बर्बरता से लोगों को मजबूर करने में यकीन करता है. उसने अपनी ताकत के बल पर अपने कब्जे वाले इलाकों में अपना आतंक का साम्राज्य कायम किया है.
उसकी इस मिसाल से इस बात की प्रबल आशंका भी है कि लश्कर भी अपनी क्रूरता में इजाफा कर सकता है. आखिरकार लोगों के सिर कलम करने का उसका भी लंबा इतिहास रहा है. इस्लामी स्टेट की बर्बरता से होड़ करना या उससे आगे निकल जाना लश्कर की हैसियत के दायरे में ही है. वह चाहे तो यह कर सकता है लेकिन सवाल है कि क्या पाकिस्तानी हुक्मरान इसकी इजाजत देंगे.
भारत यह आकलन सही हो सकता है कि उस पर अगला हमला लश्कर की तरफ से हो सकता है लेकिन मेरे अनुमान से भारतीयों को जैश को भी याद रखना चाहिए, जिसने भारतीय संसद पर हमला बोला था. जैश वर्षों से निष्क्रिय है क्योंकि उसके ज्यादातर काडर पाकिस्तानी तालिबान के खेमे में चले गए हैं. हाल के वर्षों में पाकिस्तानी फौज और आइएसआइ ने जैश में फिर से जान फूंकने की कोशिश की है और उसके तत्कालीन काडरों को भारतीयों को मारने का लालच दिखाकर फिर से इधर लाने की कोशिश की है. यहां यह याद दिलाया जा सकता है कि जैश ने अपना पहला हमला&2000 में आत्मघाती बम विस्फोट&कश्मीर में ही किया था. और लश्कर के विपरीत उसके अल कायदा और अफगान तालिबान से लंबे रिश्ते रहे हैं, जो एक समय में दुनियाभर में बर्बरता में सबसे आगे रहे हैं. जैश के कुछ आतंकी पाकिस्तानी तालिबान के साथ भी काम कर रहे हैं.
भारत के लिए यह समझदारी ही होगी कि वह लश्कर के अलावा जैश पर भी नजर रखे. पाकिस्तानी फौज और आइएसआइ को इन दोनों ही गुटों की जरूरत होगी, अगर उसे पाकिस्तान को शांत रखने और भारत में आग लगाने के अपने दोहरे मकसद को आगे बढ़ाना है.
(सी. क्रिस्टीन फेयर जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के एडमंड वॉल्श स्कूल ऑफ फॉरेन सर्विस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. यह लेख उनकी आगामी किताब लश्कर-ए-तैयबा इन इट्स ओन वर्ड्स में से है. )
लश्कर का जेहादी साम्राज्य
पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ने एक प्रतिनिधि संगठन को भारत के दुश्मन के रूप में खड़ा किया.

अपडेटेड 11 सितंबर , 2015
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