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राष्ट्र हित: सुर्खी से गए गोया यूं समझिए, जेहन से बाहर

जन धारणा का महत्व मोदी से बेहतर कोई नहीं जानता. फिर वे दूसरों को, सहयोगियों और विरोधियों को अपनी सुर्खियां क्यों हड़पने दे रहे हैं?

Prime Minister Narendra Modi
Prime Minister Narendra Modi
अपडेटेड 29 दिसंबर , 2014
अच्छे-अच्छों को औसत का नियम नहीं बख्शता. लगता है, इसने चुनाव सर्वेक्षण के धंधे में लगे अनोखे नाम वाले सितारे टुडेज चाणक्य को भी जकड़ लिया. इसने चुनावों की बिल्कुल सही-सही, बाज दफा तो दशमलव के आखिरी बिंदु तक सटीक भविष्यवाणी करने के लिए खासी प्रतिष्ठा हासिल की है. इसका सबसे सुनहरा क्षण वह था, जब पिछली गर्मियों के आम चुनाव में इसने एनडीए के लिए 340 सीटों की भविष्यवाणी कर दी थी. अब लगातार दो बार इसकी भविष्यवाणियां गलत निकली हैं. महाराष्ट्र और झारखंड, दोनों राज्यों में इसका पूर्वानुमान था कि सर्वशक्तिमान बीजेपी बड़ी फतह हासिल करेगी, लेकिन पता चला कि दोनों ही जगह उसे विजय तो मिली लेकिन पहली जीत कतई अधूरी थी तो ताजा चुनाव में वह जीत को छू भर सकी. चुनाव सर्वेक्षण में चाणक्य शेयर बाजार के बिग बुल की तरह है और इसके अनुमान बाहरी पर्यवेक्षक जैसे रहे हैं. अब तक इसकी कामयाबी की वजह सीधी-सादी थी. मोदी/बीजेपी की लहर चल रही थी, इसलिए बाहर से भविष्यवाणी करना सुरक्षित था. तमाम लहरों की तरह अब जब यह लहर भी उतार पर है—अभी पलटी नहीं है—तो सीधा-सीदा पुराना बीजगणित काम नहीं आता.

कुल मिलाकर, मोदी की बीजेपी को एक और चुनावी फतह के श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता. उनका राजनैतिक अश्वमेध यज्ञ कलियुग में भी उतना ही चुनौतीविहीन दिखाई देता है, जितना अपेक्षतया सदाचारी त्रेता युग में भगवान राम का था. उसने एक और राज्य अपनी झेली में डाल लिया है. ज्यादा अहम बात यह है कि यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त और असाधारण रूप से संभावनावान राज्य झारखंड है, जिसने अपने 14 साल के वजूद में कभी बहुमत का जनादेश नहीं दिया था. लेकिन बीजेपी की कुल सीटें बताती हैं कि लोकसभा चुनाव में उसने जिन 56 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की थी, उनमें से तकरीबन 20 गंवा दिए हैं. पार्टी कश्मीर भी फतह नहीं कर सकी और अपने ‘मिशन44’  के बड़बोले दावे पर खरा उतरने में नाकाम रही. लेकिन वहां वह सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस को बेदखल करने में कामयाब रही और यह भी पक्का कर दिया कि पार्टी का पतन अखिल-राष्ट्रीय और साथ ही सेकुलर भी है. हम अब भी भला क्यों शिकायत कर रहे हैं?

हवाएं अब भी बीजेपी के पक्ष में बह रही हैं, लेकिन महाराष्ट्र और झारखंड उसकी रफ्तार के धीमी (हालांकि पलटने से बहुत दूर) होने के पहले संकेत हैं. महाराष्ट्र में पार्टी बहुमत से काफी दूर रह गई, जिससे शिवसेना को पटखनी देने का उसका दांव नाकाम हो गया. झारखंड में उसे मामूली बहुमत मिला. दोनों ही नतीजे उसके पारिवारिक कौटिल्य या चुनाव सर्वेक्षक चाणक्य के वादे से काफी कम थे. कश्मीर में भी उसके 3 फीसदी वोट और एक को छोड़कर बाकी सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त होने से सचाई की अच्छी परख होती है. अगर आप इन नतीजों को बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के उपचुनावों में मिली पराजय से जोड़कर देखें, तो पूरी तस्वीर देख पाएंगे.

वह दौर जब चुनाव में फतह के लिए मोदी का नाम ही काफी था, खासकर हरियाणा के उदाहरण से साफ था, अब जाने वाला है. एक और बारीक बात मोदी सरीखे कुशाग्र शख्स की नजर से नहीं छिप सकतीः सभी आसान जीत उन राज्यों तक सीमित हैं जहां कांग्रेस के साथ सीधा मुकाबला है. जेएमएम से लेकर पीडीपी/एनसी तक और आरजेडी/जेडी(यू)/सपा तक तमाम दूसरे खिलाड़ी अपने-अपने इलाकों की कहीं बेहतर रक्षा कर पा रहे हैं. चुनावी राजनीति का मई 2014 के बाद का ‘लैंप पोस्ट’ दौर खत्म हो रहा है. मोदी और बीजेपी को पुराने ढर्रे की राजनैतिक चक्की की तरफ लौटना होगा. राज्य नेताओं को खड़ा करना होगा. पुराने सहयोगियों को ठुकराने की रणनीति पर दोबारा विचार करना होगा. सबसे महत्वपूर्ण, राजनीति और सरकार को उन्हीं पुरानी पटरियों पर वापस लाना होगा—सुशासन, आर्थिक वृद्धि, विकास की पटरियों पर—जिन पर चढ़कर वे सत्ता में आए थे.

इंडिया टुडे के सुर्खियों के सरताज 2014 नरेंद्र मोदी कई अनूठी खासियतों से भरपूर हैं. दशकों में वे हमारे सबसे प्रभावी राजनैतिक वक्ता हैं, यहां तक कि वाजपेयी से भी बेहतर. वे हमारे पहले पूरी तरह स्व-निर्मित सच्चे राष्ट्रीय नेता हैं. लेकिन इससे भी ज्यादा महत्व की बात यह कि वे मीडिया (पारंपरिक, सोशल और एंटी-सोशल) की ताकत, बातों को घुमाने की उपयोगिता और जन धारणा की अहमियत को हमारे इतिहास की किसी भी दूसरी सार्वजनिक हस्ती से बेहतर समझते हैं. वह सत्ता के शिखर पर भी हैं. तो मोदी से मेरा सवाल यह हैः फिर वे दूसरों को, सहयोगियों को भी और विरोधियों को भी, अपनी सुर्खियां क्यों हड़पने दे रहे हैं? यह वह नुक्स है, जो राजनीति के सच्चे खिलाड़ी में कभी नहीं पाया जाता.

मुझे पूरा एहसास है कि मैं यह ठीक उस वक्त लिख रहा हूं जब आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत तीन दिन की यात्रा पर दिल्ली आए हैं और यह यात्रा हर लिहाज से किसी भी राज्य प्रमुख की यात्रा से ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है. मुमकिन है कि जो सवाल मैं उठा रहा हूं, उनमें कुछ उनके नागपुर लौटने (या जहां भी वह महज एक क्रिश्चियन न्यू ईयर की शाम बिताने के लिए लौटना पसंद करें) से पहले ही तय हो जाएं. लेकिन हकीकत यही है कि आरएसएस और उससे जुड़े संगठन आज बाकायदा खुद अपने प्रधानमंत्री की सुर्खियां चुरा रहे हैं. उन्होंने विरोधियों को भी इन दरारों के भीतर झांकने का मौका दे दिया है.

रणनीति के तौर पर संसद के काम में रुकावटें डालने का विचार चाहे जितना भी वीभत्स क्यों न हो, आरएसएस, वीएचपी और बाकी संगठनों ने विपक्षी दलों को एक नया, सेकुलर उच्च नैतिक धरातल तोहफे में दे दिया है. कोई नहीं जानता कि हमारे वैदिक वैज्ञानिकों और वैद्यों के पास शव में दोबारा प्राण फूंकने की काबिलियत थी या नहीं. लेकिन उनके उत्तराधिकारियों के नाते संघ परिवार के कर्ताधर्ता उतने ही बेजान पड़े विपक्षी दलों में सेकुलर एकता के उसी पुराने, असरदार, पर हास्यास्पद अमृत के बलबूते पर दोबारा प्राण फूंकने के चमत्कार को अंजाम दे रहे हैं. मसलन, घाटी के मिजाज और सियासत के जानकार कहते हैं कि मोदी की बारंबार यात्राओं और भाषणों में झलकती ईमानदारी के लिए उनकी खासी सराहना हुई थी; बीजेपी और भी अच्छे नतीजे लाती, बशर्ते धर्मांतरण को लेकर नई सुर्खियों की अंधाधुंध उतावली ने और फिर दिमाग से हटा पाने में मुश्किल उस ‘हरामजादों’ वाले बयान ने माहौल को इस कदर बिगाड़ा नहीं होता. यह स्वच्छ भारत की किसी भी सुर्खी से ज्यादा आकर्षक सुर्खी बनाता है. (खुलासाः इस स्तंभकार को स्वच्छ भारत का दूत मनोनीत किया गया है और शृंखला को जारी रखने के लिए अपनी ओर से उसने नौ लोगों की सूची घोषित कर दी है.)

यह स्वीकार करता हूं कि मोदी को मैं अच्छी तरह नहीं जानता, लेकिन जितना जानता हूं, मैं मान ही नहीं सकता कि घटनाचक्र के इस तरह घूमने पर वे मन ही मन खुश होंगे. या यह सब बिल्कुल उन्हीं की पटकथा के मुताबिक हो रहा है, जैसा कि अब उनके विरोधी कह रहे हैं. मोदी वाजपेयी नहीं हैं और उन्होंने प्रतिरूप होने का कभी ढोंग भी नहीं किया. उन्होंने हिंदुत्व में अपनी आस्था को कभी छिपाया नहीं. लेकिन राजधर्म की अवधारणा को वह खुद अपने मौलिक तरीके से परिभाषित करते हैं, वहीं विचारधारा के मनमौजी उपासकों को खुली छूट देना उनकी योजना का हिस्सा कभी नहीं रहा. गुजरात में हिंदू पक्षधर सरकार चलाने के लिए उनकी काफी आलोचना की जाती है, लेकिन अगर आप पूर्वाग्रह से मुक्त होकर तथ्यों को देखें, तो आरएसएस और वीएचपी को, खासकर प्रवीण तोगडिय़ा को, औकात में रखने का उनका शानदार रिकॉर्ड रहा है. फिर अब वह इसकी इजाजत क्यों दे रहे हैं? पल भर के लिए भी मैं इससे सहमत नहीं हूं कि मोदी ऐसा ही चाहते हैं; आखिरकार वह प्रतिबद्ध स्वयंसेवक, प्रचारक हैं. मैं स्वीकार करता हूं कि यह बात उनके विचार और शैली के बारे में मेरी समझ (जो नाकाफी है) से मेल नहीं खाती.

इन दिनों ऐसे आत्म-चित्रणों का इस्तेमाल काफी सावधानी से करना होता है, लेकिन लुटियन्स की दिल्ली का पुराना खबरी होने के नाते मैं स्वीकार करता हूं कि मैं कह नहीं सकता कि मेरी राय में सच क्या हैः क्या आरएसएस यह सब उनकी मूक सहमति से कर रहा है (सबसे कम संभावना है); क्या वह यह सब उनके, कार्यकर्ताओं और दुनिया के आगे यह साबित करने के लिए कर रहा है कि बॉस और बड़ा भाई कौन है; क्या यह परिवार में उन्हें नापंसद करने वाले तोगडिय़ों जैसों की साजिश है; या यह आरएसएस का अपना चरित्र ही है, सुधरने में असमर्थ आरएसएस? एक बात अब आप कह सकते हैं कि यह आलसी सफाई कि यह सब हाशिए के महत्वहीन लोगों की बेवकूफी का नमूना भर है, गले नहीं उतरती. खासकर सरसंघचालक के बोल चुकने के बाद तो कतई नहीं. क्योंकि कोई बहुत ही दुस्साहसी या साहसी शख्स ही यह कह सकता है कि सरसंघचालक हाशिए के महत्वहीन व्यक्ति हैं. और मैं दोनों नहीं हूं.

अब जब सत्ता में और राजनीति के हनीमून दौर में उन्हें छह महीने हो चुके हैं, तो मोदी के लिए यह पहला निर्णायक क्षण है. अगर वह अपनी राजनैतिक और नैतिक पूंजी में आगे भी सेंध लगाने की इजाजत देते हैं, तो अगले दो महीनों के भीतर वह एक असली धक्का झेलने का जोखिम उठाएंगे. मोदी इतने शातिर तो हैं ही कि वे इस झंसे में नहीं आएंगे कि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से लडऩा महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और अब कश्मीर में बेसहारा कांग्रेस को धूल चटाने जितना आसान है. दिल्ली में केजरीवाल का दोबारा मजबूत होकर उभरना नामुमकिन नहीं है और अगर ऐसा हुआ, तो यह हनीमून की समाप्ति का क्षण हो सकता है. आरएसएस और उसकी संततियां तब जितनी चाहें उतनी सुर्खियां बटोर सकती हैं, लेकिन वे धीरे-धीरे धुंधली होकर उनकी सरकार के साथ उनसे दूर चली जाएंगी. क्या मोदी को उनसे यह कहने का साहस है?

पुनश्चः राजनीति के धूमधड़ाके से दूर, आदिवासी जिलों में एक और जनसंहार के साथ असम फिर खबरों में लौट आया. रिपोर्टर आपको बताएंगे कि यह त्रासदी कैसे और क्योंकर हुई, लेकिन ज्यादा बड़ा राजनैतिक मुद्दा सामने रखा ही जाना चाहिएः तकरीबन 80 बरस की उम्र पार कर रहे मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने चार साल पहले जबसे अपने दिल का ऑपरेशन करवाया है, तभी से असम में वाकई कोई सरकार नहीं है. जो थोड़ी-बहुत पकड़ सरकार की थी भी, आम चुनाव में बीजेपी के हैरतअंगेज उभार के बाद वह छूट गई.

इसके लिए कांग्रेस आलाकमान जिम्मेदार है. उन्होंने गोगोई को बहुत लंबे वक्त के लिए पद पर बने रहने दिया, लोकसभा चुनाव में अपने बेटे को आगे लाने दिया और मेहनती, महत्वाकांक्षी और साधन-संपन्न युवा नेता और अब पूर्व स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्व सरमा की महत्वाकांक्षाओं को नजरअंदाज कर दिया. उनके पास अपने घर की जमीन पर पला-बढ़ा एक उत्तराधिकारी था, लेकिन उसे अपनी सरकार और पार्टी के साथ जंग खाने के लिए छोड़ दिया. चंडूखाने की चर्चा यह है कि हताश होकर सरमा ने राहुल गांधी से मिलने की इच्छा जाहिर की और पूछा कि उन्हें मुख्यमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए आखिर क्या करना पड़ेगा? खासकर तब जब उनकी पैदाइश किसी राजनैतिक घराने में नहीं हुई है. लगता है, उन्हें अभी तक कोई जवाब नहीं सूझा है, इसलिए टाल रहे हैं. अब मेरा सवाल उनसे यह हैः अगर उन्होंने स्थानीय ओवैसी, बदरुद्दीन अजमल को मुस्लिम वोटों का ठेकेदार बनाकर ध्रुवीकृत असम को वाकई बीजेपी के हाथों में सौंपने का फैसला कर ही लिया है, तो ऐसा करने में दो साल क्यों लगाते हैं? अभागे राज्य की तकलीफ को फौरन खत्म कर दीजिए.
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