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आकाश पर अंधेरा

नरेंद्र मोदी सरकार के तहत बहुचर्चित आकाश टैबलेट अपने वजूद की सार्थकता की तलाश में.

अपडेटेड 22 सितंबर , 2014
अपने स्वर्णिम दौर, यूपीए राज में आकाश टैबलेट को आम लोगों को सस्ते में कंप्यूटर उपलब्ध कराने का क्रांतिकारी कदम माना जा रहा था. लेकिन अब  इसके वजूद पर संकट छा गया है. किसी भी मंत्रालय या सरकारी एजेंसी की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है. अब आकाश का उद्घार तभी हो सकता है, जब इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजना ‘डिजिटल इंडिया’ के एजेंडे में शामिल कर लिया जाए, जिसमें शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए स्वदेशी स्तर पर तैयार ऑनलाइन ओपन कोर्स और वाइ-फाइ से लैस यूनिवर्सिटी नेटवर्क की रूपरेखा तैयार की गई है.

आकाश के पैरोकार पूर्व मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल थे जिन्होंने इसे भारतीय इंजीनियरिंग और नीतिगत कुशलता की मिसाल के तौर पर पेश किया था. हालांकि शुरू से ही इसे खासकर विदेशी मीडिया और दूसरे आलोचकों का सामना करना पड़ा, जिनकी राय में उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद में भला सरकार का क्या काम.

यूपीए राज में सिब्बल के बाद मानव संसाधन विकास मंत्री बने एम.एम. पल्लम राजू की आकाश परियोजना में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रही और अब एनडीए राज में स्मृति ईरानी के मानव संसाधन मंत्रालय ने तो इस अधूरी परियोजना से हाथ ही खींच लिया है. उसने इसे इलेक्ट्रॉनिक्स व सूचना प्रौद्योगिकी विभाग तथा आपूर्ति व निपटान महानिदेशालय (डीजीएस ऐंड डी) के रहमोकरम पर छोड़ दिया है.
आकाश टैबलेट की योजनाअसल में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के निकोलस नेग्रोपोंट ‘वन लैपटॉप पर चाइल्ड’ के लिए बाजार तलाशने 2006-07 में भारत आए थे. उन्होंने भारत में डिजिटल खाई पाटने के लिए सौ डॉलर में लैपटॉप देने की पेशकश की. तब अर्जुन सिंह के नेतृत्व में मानव संसाधन मंत्रालय ने अधिक कीमत का हवाला देकर इसे ठुकरा दिया. यह सवाल भी उठाया गया कि क्या बच्चों के हाथ में इतनी छोटी उम्र में कंप्यूटर थमा देना ठीक होगा?

फिर, 2009 में सिब्बल ने मंत्रालय का पदभार संभाला तो उन्होंने टैबलेट को आकाश नाम दिया और इसके लिए जोर-शोर से अभियान चलाया. इसकी कीमत 35 डॉलर रखी गई थी जो बहुत कम थी, इसलिए इसने तुरंत दुनिया का ध्यान खींचा. राज्य सरकारें, सार्वजनिक उपक्रम, यहां तक कि कई देश इसको लेकर उत्सुक हो उठे. लेकिन इसकी मुसीबतों का सिलसिला नहीं थमा.

पहली गलत शुरुआत नए आइआइटी, आइआइटी-जोधपुर, को ‘कम लागत के कंप्यूटिंग-कम-एक्सेस डिवाइस उपलब्ध कराने’ के उद्देश्य से दिए गए 48 करोड़ रु. के अनुबंध से हुई. संस्थान की भूमिका करीब 1,00,000 डिवाइस की जांच और खरीद करने तक ही सीमित थी और इसे बनाने का अनुबंध कनाडा की फर्म डेटाविंड ने 2011 में हासिल किया था. आइआइटी-जोधपुर ने टैबलेट के पहले सेट को यह कह कर लौटा दिया कि ये घटिया हैं. मामला अदालत में जाकर निबटा. मंत्रालय ने इस परियोजना को आइआइटी-जोधपुर से लेकर आइआइटी-बॉम्बे को सौंप दिया. लेकिन तब तक आकाश डिवाइस की गुणवत्ता को लेकर संदेह की जड़ें गहरा चुकी थीं.

आइआइटी-बॉम्बे ने संदेह दूर करने में कामयाबी हासिल की और मई 2013 तक डेटाविंड ने नए और बेहतर आकाश-2 टैबलेट बनाकर भेजे. इसमें नए और उपयोगी एजुकेशनल ऐप्स लोड किए गए थे और इन्हें देश भर में विभिन्न संस्थानों में भेजा गया. एक अधिकारी कहते हैं, “आकाश-2 को छात्रों ने उपयोगी माना, खासकर जब आइआइटी-बॉम्बे ने इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम के अनुकूल ऐप्लिकेशंस शामिल किए हैं. आकाश-2 पर आइआइटी-बॉम्बे की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इसे अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है. लेकिन सिब्बल के विदा होते ही इसके दिन लद गए.” 

जब 2012 में राजू ने मंत्रालय का प्रभार संभाला तो उन्होंने आकाश परियोजना की समीक्षा की बात उठाकर हलचल पैदा कर दी. कैग की एक रिपोर्ट में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की बेहतर और पुराने आइआइटी की बजाए एक नए और कम साधन संपन्न आइआइटी को अनुबंध देने के लिए कड़ी आलोचना की गई थी. दूसरे लोग सवाल कर रहे थे कि मंत्रालय क्यों अपनी ऊर्जा टैबलेट में खर्च कर रहा है.
इस साल जनवरी में डीजीएस ऐंड डी ने आकाश-4 के लिए निविदाएं आमंत्रित कीं. पुणे स्थित सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग (सी-डैक) ने लोकसभा चुनावों के बाद सरकार के नए डिजिटल एजेंडे को ध्यान में रखते हुए अचानक सुझाव दिया कि आकाश की उपयुक्तता का फिर मूल्यांकन होना चाहिए. अब, ईरानी ने आकाश-4 का उल्लेख तक नहीं किया है.  
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