उन गर्मियों में बीजिंग में मानो तय योजना के अनुसार ही सब कुछ होता नजर आ रहा था. भारतीय पक्ष भी तैयार होकर आया था और पूरी तरह आशान्वित भी था. उसने पश्चिमी क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के अपने नक्शे और नजरिए की रूपरेखा मेज पर रखी. चीन ने भी एक नक्शा मेज पर रखा था लेकिन जैसा कि अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि बिना किसी स्पष्टीकरण के उसने उसे हटा लिया. इस तरह एलएसी असल में कहां स्थित है, दोनों देशों के बीच इसकी रजामंदी का पहला गंभीर प्रयास जून, 2002 के उस दिन कुछ ही मिनटों में अचानक खत्म हो गया.
चीन के साथ जैसा कि प्रायः होता है, उसने इस बात की कोई सफाई पेश नहीं की कि सहसा उसने ऐसी हरकत क्यों की लेकिन इतने वर्षों में यह समझा जाता रहा है कि चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा की भारत की व्याख्या से नाखुश था. लिहाजा, उसने इस साफगोई की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना निरर्थक समझ लिया था.
उसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की चीन यात्रा के बाद ही वह सीमा वार्ता फिर शुरू हो सकी और जिसे अब सीमा के सवाल पर स्पेशल रिप्रेजेंटेटिव (एसआर) व्यवस्था माना जाता है, उसकी शुरुआत हुई. एक दशक बाद एसआर संवाद का भी असर जाता रहा है क्योंकि हाल के वर्षों में इसमें कोई प्रगति नहीं हो पाई है. असल में राजनैतिक मानकों पर 2005 के समझौते की व्याख्या और सीमा विवाद को सुलझने के दिशा-निर्देशों पर मतभेद बने हुए हैं.
जाहिर है, सीमा वार्ता को ताजा नजरिए की जरूरत है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मेजबानी को तैयार हैं तो इस मुद्दे को टाला नहीं जा सकता. खासकर तब जब भारत में एक स्थायी और मजबूत सरकार है और चीन के दुश्मन पड़ोसी जापान के साथ भारत के मजबूत रिश्ते हैं. विवादास्पद मुद्दे उठाने के लिए यह उतना ही उपयुक्त राजनैतिक अवसर है, जितना आर्थिक मोर्चे पर आगे बढऩे का और चीन के निवेश और विशेषज्ञता को भारत की अर्थव्यवस्था में समाहित करने का.
चीन से वार्ता के मुख्य सिद्धांत ये हो सकते हैं. सुरक्षा मुद्दों पर कड़ा रुख, इसमें सीमा संबंधी मसले और चीन के साथ पाकिस्तान के साथ रिश्ते, बहुपक्षीय लाभ के मुद्दों, जैसे जलवायु परिवर्तन तथा नई व्यापार व्यवस्था पर राजनैतिक सहयोग और द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग पर सकारात्मक सहयोग जैसे मुद्दों को एक बारगी वार्ता की मेज पर विस्तार से लाने की दरकार है.
बेशक, दोनों देशों के बीच संबंध विरोधाभासी ही रहेंगे लेकिन राजनैतिक वातावरण ऐसा हो कि हर क्षेत्र में अवसरों का सृजन हो सके. यह संदेश न जाए कि एक क्षेत्र की कीमत पर दूसरे क्षेत्र में ही विकास हो रहा है. वार्ता में यह नाजुक संतुलन बनाए रखना होगा, यही मोदी की काबिलियत की असली परीक्षा होगी.
अच्छी बात यह है कि सरकार ऐसी रणनीति को आकार देती नजर आ रही है जिससे चीन के साथ मजबूत आर्थिक संबंध बन सकें. उदाहरण के तौर पर डेडिकेटेड इंडस्ट्रियल पार्क चीन के भारत में निवेश का आधार बनेंगे जहां सरकार चीनी व्यापारियों के लिए कुछ प्रतिबंधों में ढील दे सकती है, इनमें बिजनेस वीजा के नियमों में कुछ ढील देने की बात शामिल है. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि इसी तरह निवेश के परिभाषित क्षेत्र तैयार किए जा रहे हैं. मसलन, चीनी कंपनियां बिजली उत्पादन उपकरण में निवेश तो कर सकेंगी लेकिन ग्रिड स्थापित करने और संचालन में उनकी भूमिका नहीं होगी. इसी तरह रेल में भी चीन पटरियों और डिब्बों वगैरह में तो निवेश कर सकेगा लेकिन सिग्नल सिस्टम्स में निवेश की इजाजत कतई नहीं होगी.
सुरक्षा के मामले में सरकार पाकिस्तान पर इस आधार पर चीन के साथ द्विपक्षीय वार्ता की मांग कर सकती है कि राजनैतिक अस्थिरता और बढ़ता इस्लामीक उग्रवाद, दोनों देशों के लिए खतरा है. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान यात्रा को भी इस दौरे में शामिल न कर चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग ने इसके लिए माकूल अवसर उपलब्ध करवाए हैं.
लेकिन जहां तक चीन के साथ सीमा विवाद का सवाल है तो भारत सरकार इस मुद्दे को सिर्फ वार्ता से भरोसा कायम करने वाले कदमों तक ले जा सकती है. इस मामले में किसी फैसले पर पहुंचने के लिए एसआर व्यवस्था को नई दिशा दी जानी चाहिए.
हालांकि दीर्घकाल में राजनैतिक दृष्टि से विरोधाभासों से निबटने की चुनौतियां सामने आएंगी, जिसके लिए संवाद कायम रखना बेहद महत्वपूर्ण है. चार साल पहले जब चीन के राष्ट्रपति वेन जियाबाओ भारत आए थे तो दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच एक हॉटलाइन स्थापित करने पर रजामंदी हो गई थी. अगले एकाध साल में चीन ने तो इस आशय का उपकरण लगा लिया था लेकिन भारतीय पक्ष इसके लिए तैयार नहीं हो पाया था. आज भी हॉट-लाइन चालू नहीं हो पाई है. ऐसे मुद्दों पर विश्वसनीयता और काबिलियत की परीक्षा होती है और यहीं मोदी को नई पहल करने का अवसर मिलेगा, जिसे वे अपने राजनय के कौशल से अंजाम दे सकते हैं.
चीन के साथ जैसा कि प्रायः होता है, उसने इस बात की कोई सफाई पेश नहीं की कि सहसा उसने ऐसी हरकत क्यों की लेकिन इतने वर्षों में यह समझा जाता रहा है कि चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा की भारत की व्याख्या से नाखुश था. लिहाजा, उसने इस साफगोई की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना निरर्थक समझ लिया था.
उसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की चीन यात्रा के बाद ही वह सीमा वार्ता फिर शुरू हो सकी और जिसे अब सीमा के सवाल पर स्पेशल रिप्रेजेंटेटिव (एसआर) व्यवस्था माना जाता है, उसकी शुरुआत हुई. एक दशक बाद एसआर संवाद का भी असर जाता रहा है क्योंकि हाल के वर्षों में इसमें कोई प्रगति नहीं हो पाई है. असल में राजनैतिक मानकों पर 2005 के समझौते की व्याख्या और सीमा विवाद को सुलझने के दिशा-निर्देशों पर मतभेद बने हुए हैं.
जाहिर है, सीमा वार्ता को ताजा नजरिए की जरूरत है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मेजबानी को तैयार हैं तो इस मुद्दे को टाला नहीं जा सकता. खासकर तब जब भारत में एक स्थायी और मजबूत सरकार है और चीन के दुश्मन पड़ोसी जापान के साथ भारत के मजबूत रिश्ते हैं. विवादास्पद मुद्दे उठाने के लिए यह उतना ही उपयुक्त राजनैतिक अवसर है, जितना आर्थिक मोर्चे पर आगे बढऩे का और चीन के निवेश और विशेषज्ञता को भारत की अर्थव्यवस्था में समाहित करने का.
चीन से वार्ता के मुख्य सिद्धांत ये हो सकते हैं. सुरक्षा मुद्दों पर कड़ा रुख, इसमें सीमा संबंधी मसले और चीन के साथ पाकिस्तान के साथ रिश्ते, बहुपक्षीय लाभ के मुद्दों, जैसे जलवायु परिवर्तन तथा नई व्यापार व्यवस्था पर राजनैतिक सहयोग और द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग पर सकारात्मक सहयोग जैसे मुद्दों को एक बारगी वार्ता की मेज पर विस्तार से लाने की दरकार है.
बेशक, दोनों देशों के बीच संबंध विरोधाभासी ही रहेंगे लेकिन राजनैतिक वातावरण ऐसा हो कि हर क्षेत्र में अवसरों का सृजन हो सके. यह संदेश न जाए कि एक क्षेत्र की कीमत पर दूसरे क्षेत्र में ही विकास हो रहा है. वार्ता में यह नाजुक संतुलन बनाए रखना होगा, यही मोदी की काबिलियत की असली परीक्षा होगी.
अच्छी बात यह है कि सरकार ऐसी रणनीति को आकार देती नजर आ रही है जिससे चीन के साथ मजबूत आर्थिक संबंध बन सकें. उदाहरण के तौर पर डेडिकेटेड इंडस्ट्रियल पार्क चीन के भारत में निवेश का आधार बनेंगे जहां सरकार चीनी व्यापारियों के लिए कुछ प्रतिबंधों में ढील दे सकती है, इनमें बिजनेस वीजा के नियमों में कुछ ढील देने की बात शामिल है. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि इसी तरह निवेश के परिभाषित क्षेत्र तैयार किए जा रहे हैं. मसलन, चीनी कंपनियां बिजली उत्पादन उपकरण में निवेश तो कर सकेंगी लेकिन ग्रिड स्थापित करने और संचालन में उनकी भूमिका नहीं होगी. इसी तरह रेल में भी चीन पटरियों और डिब्बों वगैरह में तो निवेश कर सकेगा लेकिन सिग्नल सिस्टम्स में निवेश की इजाजत कतई नहीं होगी.
सुरक्षा के मामले में सरकार पाकिस्तान पर इस आधार पर चीन के साथ द्विपक्षीय वार्ता की मांग कर सकती है कि राजनैतिक अस्थिरता और बढ़ता इस्लामीक उग्रवाद, दोनों देशों के लिए खतरा है. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान यात्रा को भी इस दौरे में शामिल न कर चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग ने इसके लिए माकूल अवसर उपलब्ध करवाए हैं.
लेकिन जहां तक चीन के साथ सीमा विवाद का सवाल है तो भारत सरकार इस मुद्दे को सिर्फ वार्ता से भरोसा कायम करने वाले कदमों तक ले जा सकती है. इस मामले में किसी फैसले पर पहुंचने के लिए एसआर व्यवस्था को नई दिशा दी जानी चाहिए.
हालांकि दीर्घकाल में राजनैतिक दृष्टि से विरोधाभासों से निबटने की चुनौतियां सामने आएंगी, जिसके लिए संवाद कायम रखना बेहद महत्वपूर्ण है. चार साल पहले जब चीन के राष्ट्रपति वेन जियाबाओ भारत आए थे तो दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच एक हॉटलाइन स्थापित करने पर रजामंदी हो गई थी. अगले एकाध साल में चीन ने तो इस आशय का उपकरण लगा लिया था लेकिन भारतीय पक्ष इसके लिए तैयार नहीं हो पाया था. आज भी हॉट-लाइन चालू नहीं हो पाई है. ऐसे मुद्दों पर विश्वसनीयता और काबिलियत की परीक्षा होती है और यहीं मोदी को नई पहल करने का अवसर मिलेगा, जिसे वे अपने राजनय के कौशल से अंजाम दे सकते हैं.