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यूपीएससी में बदलाव के लिए बुलंद स्वर

यूपीएसएसी में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के खिलाफ भेदभाव का आरोप तूल पकड़ा. यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी के मायने बता रहे हैं एक पूर्व सिविल सेवक.

अपडेटेड 12 अगस्त , 2014
उत्तरी दिल्ली का एक गुमनाम-सा इलाका है मुखर्जी नगर. यह शायद ही कभी अखबारों की सुर्खियां बटोरता हो, लेकिन पिछले एक महीने से यह इलाका देश भर में चर्चित हो गया है. यहां और इसके पड़ोसी मोहल्लों जैसे नेहरू विहार, गांधी विहार और इंदिरा विहार के लगभग हर घर में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले युवक-युवतियां रहते हैं.

इनमें से ज्यादातर हिंदी माध्यम से इस परीक्षा में बैठते हैं. कम-से-कम पिछले 25 साल से यह इलाका आइएएस की तैयारी के अड्डे के रूप में विख्यात है. यहां रहकर तैयारी कर रहे नौजवान आम तौर पर शांत, सौम्य और पढ़ाकू माने जाते हैं. 25 साल में ऐसा कभी नहीं हुआ कि इन युवाओं ने अपनी भीड़ या बाहुबल का आतंक स्थानीय लोगों को दिखाया हो.

लेकिन आजकल ये युवा बेहद नाराज हैं. नाराजगी का आलम यह है कि इनमें से लगभग 10,000 नौजवान 27 जून की सुबह अचानक सड़कों पर उतर आए और तब से अपने कमरों में नहीं लौटे हैं. राजघाट, इंडिया गेट और रेसकोर्स तक की लंबी पदयात्राओं के अलावा कैंडल मार्च, आमरण अनशन जैसे न जाने कितने उपाय अपना चुके हैं लेकिन हार मानने को तैयार नहीं हैं.

दो बार तो सरकार की वादा खिलाफी या तानाशाही ने इन्हें अपना संयम खोने पर भी मजबूर कर दिया और उस दौरान इस इलाके में पुलिस की जिप्सी से लेकर डीटीसी की बसें और मोटर साइकिलें धू-धू कर जलती हुई देखी गईं. हालिया खबर यह है कि यह आंदोलन इस मोहल्ले तक सीमित न रहकर कम या ज्यादा मात्रा में इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, पटना, भोपाल, जयपुर, मुंबई, हैदराबाद और गुवाहाटी तक फैल गया है.

सवाल है कि इन युवाओं की नाराजगी किससे और क्यों है? सच यह है कि ये यूपीएससी और भारत सरकार, दोनों से नाराज हैं. इनका दावा है कि यूपीएससी ने एक साजिश के तहत इनके साथ भाषायी भेदभाव करते हुए इनका सपना छीन लिया है. यूं तो यह साजिश पिछले 2-3 साल से चल रही थी, लेकिन 2013 की परीक्षा के अंतिम नतीजे ने तो इसे पूरी तरह बेनकाब कर दिया.

बता दें कि जहां पिछले कई साल से अंतिम नतीजों में हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों की भागीदारी 10-15 फीसदी होती थी, वहीं 2013 के नतीजों में यह घटकर 2-3 फीसदी के बीच रह गई है. लगभग यही सूरतेहाल तमिल, तेलुगु और बांग्ला जैसी बाकी भारतीय भाषाओं का भी है.

विवाद की जड़ यह है कि 2011 में यूपीएससी ने प्रो. एस.के. खन्ना समिति की सिफारिशों के आधार पर सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा के ढांचे में फेरबदल किया. पहले इस परीक्षा में दो प्रश्नपत्र होते थे—300 अंकों का वैकल्पिक विषय और 150 अंकों का सामान्य अध्ययन. उम्मीदवार एक वृहत सूची में से अपनी पृष्ठभूमि या दिलचस्पी का वैकल्पिक विषय चुनते थे और उसके गंभीर अध्ययन की बदौलत प्रारंभिक परीक्षा में सफलता हासिल कर लेते थे.

इस पद्धति में हर विषय से एक निश्चित प्रतिशत में उम्मीदवार सफल होते थे, इसलिए हर विषय के उत्कृष्ट छात्रों को सफल होने का भरोसा रहता था. कुल मिलाकर, एक 'सेंस ऑफ प्रपोर्शन’ बना हुआ था जो प्राय: संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ता था.

साल 2011 में खन्ना समिति की सिफारिशों के आधार पर लागू किए नए पैटर्न में यूपीएससी ने प्रारंभिक परीक्षा से वैकल्पिक विषय को हटा दिया और नया पेपर लगा दिया जिसे 'सीसैट’ (सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट) कहते हैं. इस नए ढांचे का नतीजा यह हुआ कि जहां 2011 से पहले मुख्य परीक्षा में बैठने वाले (प्रारंभिक परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले) उम्मीदवारों में 40-45 फीसदी संख्या हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों की रहती थी, वहीं 2011 से यह घटकर 15-16 फीसदी के आसपास रह गई.

कमोबेश यही हालत बाकी भारतीय भाषाओं जैसे तमिल, मराठी और पंजाबी के उम्मीदवारों की भी हुई. मसलन, अगर 2008 और 2011 में मुख्य परीक्षा में शामिल उम्मीदवारों की संख्या की तुलना करें तो यह तमिल में 98 से घटकर 14 रह गई, तेलुगु में

114 से 29 और कन्नड़ में 14 से 5 पर पहुंच गई जबकि इसी समय में अंग्रेजी माध्यम से मुख्य परीक्षा देने वालों की संख्या 51.6 फीसदी से बढ़कर 82.9 फीसदी हो गई. स्वाभाविक तौर पर भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों को महसूस होने लगा कि अब वे प्रारंभिक परीक्षा पास करने के लायक भी नहीं रहे हैं.

उथलेपन से इस समस्या पर टिप्पणी कर रहे कुछ अभिजात बुद्धिजीवी, मीडियाकर्मी और अफसरशाह यह साबित करने पर तुले हैं कि इन उम्मीदवारों की विफलता की वजह इनकी अयोग्यता है. यह एक शातिराना झूठ है. सच यह है कि इस संकट की जड़ें इन छात्रों की कथित अयोग्यता में नहीं, बल्कि परीक्षा पैटर्न में निहित भेदभाव में छिपी हैं.

उदाहरण के लिए, सीसैट के कुल 80 में से 8-9 सवाल सिर्फ अंग्रेजी में पूछे जाते हैं जिनका कुल वेटेज 20 से 22.5 अंकों का होता है. कॉन्वेंट स्कूलों के छात्रों के लिए ये सवाल बेहद आसान हैं जबकि सरकारी स्कूलों से पढ़े ग्रामीण और गैर-अंग्रेजी भाषियों के लिए कठिन. मुश्किल यह है कि अगर किसी से दो सवाल भी गलत हो जाएं तो 5 अंक तो कटेंगे ही, उसके अलावा निगेटिव मार्किंग की वजह से 1.67 अंक और कट जाएंगे.

इसी पेपर में 30-35 सवाल कॉम्प्रिहेंशन क्षमता को परखने के लिए पूछे जाते हैं लेकिन उनका हिंदी अनुवाद किसी दूसरे ग्रह की भाषा में होता है (जैसे Cloud Computing के लिए बादल कंप्यूटिंग, Credit Based Education System के लिए ऋण आधारित शिक्षा व्यवस्था, Tablet Computer के लिए गोली कंप्यूटर और Land Reforms के लिए आर्थिक सुधार).
यूपीएसएसी में सीसैट
परेशानी का सबब यह है कि अगर हिंदी का छात्र ऐसी अबूझ भाषा पढ़कर जवाब देना चाहे तो 8-10 सवाल गलत होना तय है. अगर वह सही अर्थ की तलाश में अंग्रेजी के प्रश्न भी देखे तो समय की कमी से कुछ प्रश्न छूट सकते हैं. निचोड़ यह कि जिस परीक्षा में गलाकाट स्पर्धा की वजह से एक-एक अंक के अंतर से सैकड़ों उम्मीदवार बाहर हो जाते हैं, उसमें भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों को लगभग 20-30 अंकों का नुकसान उठाने के लिए मजबूर किया गया.

आज जो यूपीएससी इसे गलत अनुवाद कहकर टाल रही है, उसने न तो अपनी ओर से इस समस्या का संज्ञान तक लिया और न ही इन छात्रों को हुए नुकसान की भरपाई की.

सामान्य अध्ययन पेपर के प्रश्न जान-बूझकर इतने मुश्किल बनाए जाने लगे कि शायद ही कोई 100 में से 60-65 से ज्यादा सही कर सके जबकि सीसैट के पेपर का स्तर ऐसा रखा गया कि अंग्रेजी और तकनीकी ज्ञान में पारंगत उम्मीदवार आसानी से 80 में से 70 के करीब (कभी-कभी तो 79-80 भी) प्रश्न हल कर लें. सामान्य अध्ययन का एक प्रश्न दो अंकों का होता है जबकि सीसैट का 2.5 अंकों का.

चूंकि मेरिट का निर्धारण दोनों प्रश्नपत्रों के अंकों को जोड़कर होता है, इसी का असर है कि 2011 के बाद से इस परीक्षा में सफल होने वाले उम्मीदवारों की आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है. स्वयं यूपीएससी की गठित निगवेकर समिति का आकलन है कि ''सीसैट शहरी क्षेत्रों के अंग्रेजी माध्यम के प्रतियोगियों को फायदा पहुंचाता है और ग्रामीण क्षेत्र के प्रतियोगियों के लिए मुश्किलें पैदा करता है.”

सवाल है कि आंदोलन कर रहे छात्र आखिर चाहते क्या हैं? क्या ये अंग्रेजी और ग्लोबलाइजेशन के विरोधी हैं? क्या ये अपनी अयोग्यता को ढकने का बहाना खोज रहे हैं? नहीं. बिल्कुल नहीं. ये सिर्फ भाषायी भेदभाव के विरोधी हैं. जरा इनके तर्कों पर गौर कीजिए:

एक अच्छा सिविल सेवक बनने के लिए सिर्फ अंग्रेजी का ज्ञान चाहिए या भारतीय भाषा का भी? कोठारी आयोग ने सिफारिश की थी कि प्रारंभिक परीक्षा में एक पेपर अंग्रेजी का हो और एक भारतीय भाषा का, तथा दोनों का वजन बराबर हो. निगवेकर समिति ने मुख्य परीक्षा के बारे में यही सलाह दी. खन्ना समिति के अलावा सभी समितियां इस प्रश्न पर एकमत दिखाई पड़ती हैं कि सिविल सेवकों को दोनों भाषाओं में सक्षम होना चाहिए.

अगर ऐसा है तो सीसैट में सिर्फ अंग्रेजी भाषा के सवाल क्यों पूछे जाते हैं? क्यों न 8-9 प्रश्न ऐसे भी रखे जाएं जो सिर्फ भारतीय भाषाओं में पूछे जाएं और उनका अंग्रेजी अनुवाद न दिया जाए? अगर यह यूपीएससी को मंजूर नहीं है तो सिर्फ अंग्रेजी के प्रश्नों को हटाया जाए. आखिर मुख्य परीक्षा में तो अंग्रेजी का क्वालिफाइंग पेपर 1979 से ही सभी को पास करना होता है.

कॉम्प्रिहेंशन के जो सवाल दोनों भाषाओं में पूछे जाते हैं, उनमें अनुवाद से जूझ्ने का संकट हिंदी वालों के सिर पर ही क्यों होना चाहिए? क्यों न ऐसा किया जाए कि हिंदी पाठ को मूल माना जाए और अंग्रेजी में अनुवाद करके सवाल पूछे जाएं? कल्पना कीजिए कि अगर  राम चिडिय़ाघर गया का अनुवाद Ram went to sparrows home  हो और अंग्रेजीभाषियों की सफलता का फैसला इसी भाषा से होना हो तो क्या अंग्रेजी के बुद्धिजीवी इस मुद्दे को उतनी आसानी से टाल पाएंगे जैसे आज टाल रहे हैं?

ऐसी स्थिति में क्या यह उचित नहीं कि भाषायी असमानता के आधार पर ऐसे सवाल सीसैट से हटाए जाएं? स्वयं यूपीएससी की निगवेकर समिति ने इस अनुवाद के बारे में टिप्पणी की है कि ''अंग्रेजी से किया जाने वाला अनुवाद मशीनी किस्म का होता है.”

3. गणित, रीजनिंग, निर्णयन और डाटा-व्याख्या के प्रश्नों से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन उनका अनुपात ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी एक पृष्ठभूमि के छात्रों को नाजायज फायदा मिले.

साफ है कि आंदोलनकारियों के ये तर्क कमजोर नहीं हैं. सरकार और यूपीएससी को चाहिए कि या तो इन तर्कों को ठोस तरीके से खारिज करें, और नहीं तो यह जरूरी है कि प्रारंभिक परीक्षा के ढांचे को बदला जाए.

यह आंदोलन सिर्फ सीसैट और प्रारंभिक परीक्षा के लिए नहीं है. मुख्य परीक्षा और साह्नात्कार में भी भारतीय भाषाओं संग सुनियोजित भेदभाव है. मसलन, मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन के चारों पेपरों की जांच के लिए मॉडल जवाब सिर्फ अंग्रेजी में होते हैं. उन्हीं के आधार पर भारतीय भाषाओं की उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन किया जाता है. अगर यूपीएससी में नैतिक साहस है तो उसे किसी भी साल की भाषावार अंक तालिका जारी करनी चाहिए. उससे यह बात साफ हो जाएगी कि भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों को लगभग हर पेपर में औसतन 15-25 अंकों का नुकसान उठाना पड़ता है.

इसी तरह, साक्षात्कार में भी भाषायी भेदभाव दिखाई पड़ता है. हिंदी, तमिल, बांग्ला या अन्य भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों पर दबाव बनाया जाता है कि वे अंग्रेजी में इंटरव्यू दें, लेकिन आज तक किसी ने नहीं सुना कि किसी अंग्रेजी भाषी उम्मीदवार पर किसी भारतीय भाषा में इंटरव्यू देने के लिए दबाव बनाया गया हो.

अगर यूपीएससी सचमुच पारदर्शिता का सम्मान करती है तो उसे भाषावार वर्गीकरण के साथ किसी भी साल के इंटरव्यू के अंक घोषित करने चाहिए ताकि सच सामने आ सके. इस बात का दावा किया जा सकता है कि औसत रूप से यह अंतर 20-25 अंकों से कम नहीं होगा.

(लेखक हिंदी माध्यम से चयनित पूर्व सिविल सेवक हैं)
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