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राजस्थान में एलपीजी शवदाह गृहों के जरिए अब बचाए जाएंगे पेड़

राजस्थान में अंत्येष्टि के लिए हर साल 22 लाख पेड़ काटे जाते हैं. एलपीजी शवदाह गृहों के जरिए अब इस दिशा में नई पहल हो रही है और इस तरह बचेंगे पेड़.

अपडेटेड 10 जून , 2014

एक बार फिर राजस्थान में वन क्षेत्र के घटने के संकेत मिल रहे हैं. भारतीय अंतरिह्न अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत हुए शोध में प्रदेश का वन क्षेत्र महज 7.5 से 8 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया है. यहां का वन महकमा यह वन ह्नेत्र साढ़े नौ फीसदी मानता आ रहा है.
असल में वनों के विनाश का एक बड़ा सच हिंदू समाज में अंत्येष्टि की परंपरा से भी जुड़ा हुआ है. एक शव का दाह करने के लिए 4 से 6 क्विंटल लकड़ी की जरूरत होती है यानी करीब ढाई से तीन हजार रु. का खर्च. श्मशान प्रबंधन से जुड़ी एक संस्था की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में हर साल अंत्येष्टि के लिए करीब 22 लाख पेड़ों की लकड़ी की जरूरत पड़ती है. और पूरे देश में यह आंकड़ा 7 करोड़ पेड़ सालाना का बैठता है. जिस रफ्तार से सघन वन की जगह कंकरीट के जंगल ले रहे हैं, वह एक बड़े खतरे का संकेत है.
इसी खतरे को ध्यान में रखते हुए प्रदेश में कुछ शहरों में अलग तरह की पहल की गई है. अंतिम संस्कार के दौरान लकडिय़ां बचाने के लिए विद्युत शव दाह गृह जयपुर, कोटा और दूसरे शहरों में तो पहले से थे, अब उदयपुर और भीलवाड़ा शहरों में एल.पी.जी. शवदाह गृह शुरू हुए हैं. भीलवाड़ा में आदर्श पंचमुखी मुक्तिधाम समिति नाम की संस्था ने 70 लाख रु. की लागत से इसका इंतजाम किया है. इसमें 30 लाख रु. तो इसके संयंत्र पर ही खर्च हुए हैं. पेड़ों को बचाने और एल.पी.जी. से अंतिम संस्कार को बढ़ावा देने के लिए पृथ्वी दिवस यानी 22 अप्रैल को यह पहल की गई. साल भर तक यहां दाह संस्कार निशुल्क कराए जाएंगे. खर्च को समिति और कुछ अन्य संस्थाएं वहन करेंगी. इस पहल से साल भर में तीन हजार पेड़ बचाए जा सकेंगे.
हरा-भरा प्रदेश बनाने के नाम पर सालोसाल सैकड़ों करोड़ रु. खर्च करने के बाद भी हालात इतने चिंताजनक क्यों हैं? पौधारोपण के नाम पर आंकड़ों की खेती होती है. वन महकमे की फौज अवैध कटाई और कोल माफिया पर काबू नहीं पा सकी है. प्रदेश की पर्यटन नगरी बूंदी में वन विभाग की अपनी रिपोर्ट के अनुसार, 2009 से 2012 के बीच 20 करोड़ रु. से ज्यादा खर्च कर साढ़े चार लाख पौधे लगाए गए. इनमें से करीब सवा लाख पौधे मर गए. प्रदेश के दूसरे जिलों की तरह बूंदी में भी कोयला कारोबार बड़े पैमाने पर बेखौफ  चलता रहा है. सूचना के अधिकार के तहत ली गई जानकारी के अनुसार जिले में 2011-12 में अवैध कोयला निर्गमन के 24 अलग-अलग मामलों में करीब 2,000 बोरी कोयला जब्त किया गया. लेकिन 2013 में माफिया पर कार्रवाई मंद रही.
इधर वन महकमे ने भी इस साल बारिश के सीजन में वन क्षेत्र में  वृह्नारोपण का लक्ष्य बढ़ाने की बजाए घटा दिया है. पिछले साल के 67,000 हेक्टेयर के मुकाबले इस साल यह 53,000 हेक्टेयर के करीब ही रखा गया है. बूंदी जिले का तो 2,400 हेक्टेयर से घटाकर सीधे 1,300 हेक्टेयर कर दिया गया है.
ऐसे में पर्यावरणविदों की यह चिंता जायज है कि आने वाले समय में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी मिलना मुश्किल हो जाएगा. देश में इस काम के लिए हर साल 7 करोड़ पेड़ों का दहन अब सोचने पर मजबूर कर रहा है. लेकिन बदलाव भी आसान नहीं. बूंदी के पंडित गोरधन शर्मा की मानें तो ङ्क्षहदू रीति रिवाजों के अनुसार, ''अंतिम संस्कार में तो शव अग्नि को समर्पित करने की परिपाटी है. चंदन, पीपल वगैरह की लकड़ी का विशेष महत्व है. ये न मिलें तो दूसरी चलती हैं लेकिन लकड़ी आवश्यक मानी गई है.”
पंचमुखी मुक्तिधाम समिति के बाबूलाल जाजू कहते हैं, ''एल.पी.जी. शवदाह गृह का ङ्क्षहदू संस्कृति से ज्यादा तारतम्य इसलिए है कि इसमें लपटें निकलती हैं. लागत भी लकडिय़ों से कम आती है. डेढ़ सिलेंडर में एक शव का अंतिम संस्कार हो जाता है. भीलवाड़ा के एल.पी.जी. शवदाह गृह में सवा महीने के दौरान 23 शवों का अंतिम संस्कार हुआ है.ÓÓ लकडिय़ों पर निश्चित रूप से इससे कई गुना ज्यादा अंतिम संस्कार Þए पर जैसा कि जाजू कहते हैं, ''समय लगेगा लेकिन बदलाव जरूर आएगा.” और निश्चित रूप से इसे फिर बड़े पैमाने पर दूसरी जगहों पर भी प्रयोग किया जा सकता है.   

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